कवि शमशेर बहादुर सिंह (1911-1993) से बहुतों का परिचय होगा,व्यक्ति शमशेर से शायद कुछेक का ही हो। काव्य-प्रेमियों की अपने प्रिय कवि के निजी व्यक्तित्व को जानने की इच्छा बहुधा दबी ही रह जाती है। हिन्दी साहित्य में साहित्यिक-जीवनी,संस्मरण इत्यादि के पर्याप्त प्रचलन का अभाव इसका सर्वप्रमुख कारण है। ऐसे शिकवे और जवाबे-शिकवे के रूप में शमशेर पर लिखे संस्मरणों की यह किताब हमारे बीच है। प्रस्तुत पुस्तक ‘एक शमशेर भी है’ का संपादन कथाकार दूधनाथ सिंह ने किया है। दूधनाथ सिंह भूमिका में लिखते हैं कि “यह किताब शमशेर जी की चित्र-विचित्र छवि का एक पारिवारिक अलबम है।” अतः इस अलबम में शमशेर की बेहद घरेलू और निजी छवियां कैद है। इसमें व्यक्तिगत जीवन में शमशरे के बहुत करीब रहे लोगों के संस्मरण हैं। कुछ पत्र हैं। पत्राचार में लिखी तीन कविताएं हैं। पुस्तक के परिशिष्ट में शमशेर के कालेज के दिनों के मित्र-सहपाठी हरिवंश राय बच्चन और नरेन्द्र शर्मा के संस्मरण हैं।
शमशेर पर लिखे इन संस्मरणों का पढ़ने के बाद कहा जा सकता है कि कवियों के कवि के रूप में प्रतिष्ठित शमशेर व्यक्तिगत जीवन में भी वैसे ही थे जैसी छवि उनका काव्य पढ़ने के बाद किसी पाठक के जेहन में बनती है। शमशेर के शब्दों में कहें तो,
मैं कई बार मिट चुका हूंगा / वरना इस जिंदगी की इतनी धूम।
एक कवि और व्यक्ति के रूप में शमशेर जी लोगों से घिरे रहे फिर भी उनकी विडम्बना यह थी कि,
“ये भी क्या जिन्दगी रही अब तक….हर कहीं जहां भी रहा खुद मुझे ही समझना पड़ा और उनकी सुविधा-असुविधा के अनुसार अपने को एडजस्ट होना पड़ा….खुद अपनी बात समझने वाला कोई नहीं,खुद मेरी परेशानी अपने ऊपर लेने वाला कोई नहीं” (मलयज की डायरी से)।
मुक्तिबोध के लिए कभी शमशेर ने कहा था,
“जमाने भर का कोई इस कदर अपना न हो जाए, कि अपनी जिन्दगी खुद आप को बेगाना हो जाए।”
आप से यह बेगानगी खुद शमशेर में भी थी। मुक्तिबोध के प्रिय और मुक्तिबोध के प्रेमी शमशेर उन्हीं की तरह “खुद को दिए-दिए फिरते रहे”। इस तरह हिन्दी को उन्होंने “बहुत-बहुत ज्यादा दिया,लिया बहुत-बहुत कम।”
सभी संस्मरणों को पढ़ने के बाद शमशेर के बारे में कुछ बातें साझा नजर आएंगी। जिनमें पाठकों को दिखेगा, शमशेर का आर्थिक अभाव के बावजूद अति-उदार,मेहमाननवाज होना, कुतर्क से बचने के लिए सामने वाले की बात को सहज स्वीकार कर लेना, एकांत प्रेमी होना लेकिन घर पर मिलने-जुलने वालों का सिलसिला लगे रहना, हिन्दी,उर्दू,अंग्रेजी इत्यादि भाषाओं के महानतम लेखकों के प्रभाव से सम्मोहित रहना,अपने कविताओं के साहित्यिक-मूल्य को लेकर सशंकित रहना इत्यादि। नरेन्द्र शर्मा के शमशेर के कालेज के दिनों के संस्मरण से लेकर अन्य लेखकों द्वारा शमशेर के उम्र के अंतसमय तक के संस्मरण से शमशेर की छवि एक ऐसी व्यक्ति की बनती है ‘सहना ज्यादा,कहना कम’ जिसकी बुनियादी तबीयत में शामिल था।
शमशेर के बारे में सबसे विस्तार से मलयज ने लिखा है। अपनी डायरी में। शमशेर व्यक्ति-रूप और कवि-रूप दोनों को मलयज ने कलमबंद किया है। निजी संबंधों की दरारों की रगड़ की छाया मलयज की डायरी में कई जगह दिखती है। फिर भी,शमशेर को समझने की जो जद्दोजहद मलयज में दिखती है वह श्रेय है। शमशेर मलयज की डायरी में एक लम्बे वक्फे तक सघनता से उपस्थित रहे। मलयज शमशेर का मूल्य समझते थे,खुद शमशेर भले ही अपना मूल्य न समझते रहे हों !
निर्मल वर्मा ने स्वीकारा था कि कई बार उन्हें दूसरों के लेखन में वही तत्व आकर्षित करते हैं जो उनकी अपनी कहानियों में नहीं है। इस संस्मरणों के पेशेनजर करीबन यही हाल शमशेर का दिखता है। जिन काव्य-गुणों का कवि में अभाव है वह उन्हीं को ज्यादा मूल्यवान मानता है या उन्हीं की तरफ ज्यादा आकर्षित होता है। संभवतः वह उन्हें पाकर पूर्ण हो जाना चाहता है। शेक्सपीयर,गेटे या तुलसीदास सा पूर्ण कवि। गौरतलब है कि शमशेर के लिए वही कवि पूर्ण एवं आर्दश कवि हैं ”जो व्यक्तिगत रूप से विशिष्ट होते हुए भी सामान्य जनता तक पहुंच रखते हों“ (मलयज के डायरी में शमशेर का बयान)।
मुक्तिबोध के सन्दर्भ में शमशेर ने यह माना भी है कि मुक्तिबोध का काव्य-लोक उनके लिए सर्वथा अलग होने के कारण उन्हें अत्यधिक आकर्षित करता रहा। नागार्जुन की लोक संवेदना पर गहरी पैठ उन्हें प्रेय रही। शमशेर सदैव दूसरों के प्रति उदार और स्वयं के प्रति निर्मम रहे। इसी जिल्द के कई संस्मरणों में इसके कई-कई उदाहरण मिल जाएंगे।
इस संग्रहणीय पुस्तक से शमशेरियत के इतने रंग पाठक के सामने खुलते हैं कि उन सब की इस समीक्षा में समाई न हो सकेगी। पुस्तक के बारे में दो-टुक राय यही बनती है कि जिन्हें भी कविता और कवियों में रुचि है,खासकर शमशेर और उनकी कविता में, उनके लिए यह एक जरूरी किताब है।
पुस्तक – एक शमशेर भी है, सम्पादक – दूधनाथ सिंह,प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली , मूल्य – रु 450/-