Tuesday, October 21, 2025
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विरासतनामा: खजुराहो का पुनर्पाठ- काम ही नहीं, कर्म और आध्यात्म का सजीव घोषणापत्र

खजुराहो की कला कहती है कि जीवन का हर रूप पवित्र है। यहाँ तपस्वी भी है, प्रेमी भी; नर्तक भी है, ध्यानमग्न योगी भी। यह संतुलन भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान है, जहाँ त्याग और भोग, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले में स्थित खजुराहो के मंदिर समूह भारतीय मूर्तिकला, स्थापत्य और दर्शन की महानतम उपलब्धियों में गिने जाते हैं। 10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच राजपूत चंदेल वंश के शासकों द्वारा निर्मित ये मंदिर आज भी पत्थर पर उकेरे गए जीवन के सबसे जीवंत प्रतीक हैं। कभी यहाँ लगभग 85 मंदिर हुआ करते थे, जिनमें से अब 22 मंदिर शेष हैं और इन्हें 1986 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया।

इन मंदिरों को तीन समूहों में बाँटा गया है जिसमें से पश्चिमी समूहसबसे बड़ा और प्रसिद्ध है जिसमें कंदरिया महादेव, लक्ष्मण, विश्वनाथ, चित्रगुप्त मंदिर शामिल हैं। पूर्वी समूह मुख्यतः जैन परंपरा के मंदिरों से सुसज्जित है जिसमें पार्श्वनाथ और आदिनाथ मंदिर हैं। दक्षिणी समूह में अपेक्षाकृत छोटे परंतु सुंदर मंदिर हैं जैसे दूलादेव और चतुर्भुज मंदिर।

खजुराहो का स्थापत्य और मूर्तिकला

खजुराहो का स्थापत्य “नागर शैली” का उत्कृष्ट उदाहरण है। मंदिरों के ऊँचे शिखर, मेरु पर्वत का प्रतीक हैं जो पृथ्वी से आकाश की ओर बढ़ती चेतना की यात्रा को दर्शाते हैं। हर मंदिर के गर्भगृह से लेकर बाहरी दीवारों तक मूर्तियाँ जीवन के हर रूप को व्यक्त करती हैं: देवता, मानव, पशु, अप्सराएँ, नर्तक, योद्धा, संगीतज्ञ, युगल और ऋषि, सब एक ही ब्रह्मांडीय नृत्य में शामिल हैं।

इन मंदिरों की खासियत यह है कि इनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थों का सामंजस्य है। यहाँ काम को वर्जना नहीं, बल्कि सृष्टि का मूल तत्व माना गया है। इसीलिए खजुराहो की मूर्तियों को केवल “काम कला” कहना गलत है। बल्कि वे जीवन, सृजन और चेतना के शाश्वत संवाद की अभिव्यक्ति हैं।

खजुराहो: बाह्य धारणाओं का शिकार

खजुराहो को लेकर बनी धारणा एक जटिल विषय है, जिस पर ओरिएंटलिज़्म (Orientalism) यानी पश्चिमी दृष्टिकोण का गहरा प्रभाव पड़ा है। यह दृष्टिकोण अक्सर गैर-पश्चिमी सभ्यताओं को “exotic” और “erotic” बताकर प्रस्तुत करता है। इसी सोच ने यह तय किया कि दुनिया ने खजुराहो के मंदिरों को कैसे “खोजा”, “प्रचारित” और “समझा”।

ब्रिटिश इंजीनियर और पुरातत्वविद एलेक्ज़ेंडर कनिंघम, जिन्होंने 1860 के दशक की शुरुआत में खजुराहो का दौरा किया था, इन मंदिरों की कामुक मूर्तियों को देखकर चकित रह गए थे। साथ ही उन्होंने यहाँ की समृद्ध मूर्तिकला कलात्मक प्रचुरता की भी सराहना की।

इतिहासकारों और विद्वानों का मानना है कि खजुराहो की कुछ मूर्तियाँ समलैंगिकता, समान-लिंग प्रेम, और यौनिकता के खुले दृष्टिकोण का प्रतीक हैं जो म दर्शाता है कि उस समय भारतीय समाज इन विषयों के प्रति अधिक स्वीकारशील था। यह सोच बाद में औपनिवेशिक काल में लागू की गई पश्चिमी नैतिकता के विपरीत था, जिसके द्वारा हमारे सामाजिक व्यवहार के कई पहलुओं को अनैतिक घोषित कर दिया। आज, खजुराहो केवल “काम कला” का प्रतीक नहीं, बल्कि एक ऐसा ऐतिहासिक स्थल है जो भारतीय समाज की विविधता, संवेदनशीलता और कलात्मक गहराई को दिखाता है, जिसे अक्सर पश्चिमी दृष्टिकोण ने सीमित अर्थों में समझा।

फिर भी, यह ध्यान देने योग्य है कि पूरे मंदिर परिसर की केवल लगभग 10 प्रतिशत मूर्तियाँ ही कामुक विषयों को दर्शाती हैं। बाकी अधिकांश मूर्तियाँ दैनिक जीवन के दृश्य दिखाती हैं, जैसे राजा-महाराजाओं की झाँकियाँ, शिकार के दृश्य, नृत्य, संगीत, और सैनिकों के जुलूस। ये चित्रण चंदेल राजवंश की शक्ति, समृद्धि और सांस्कृतिक उन्नति को प्रदर्शित करते हैं।

विदेशी आक्रमणों के बाद खजुराहो लंबे समय तक उपेक्षा का शिकार रहा। बाद में, औपनिवेशिक काल की उदासीनता और स्वतंत्रता के बाद की लापरवाही ने भी इन मंदिरों की स्थिति को बिगाड़ने में भूमिका निभाई।

खजुराहो की मूर्तियों का प्रतीकवाद

खजुराहो की मूर्तियाँ शरीर से आत्मा तक की यात्रा को दिखाती हैं। यहाँ युगल मूर्तियाँ काम का नहीं, एकत्व का दर्शन कराती हैं। स्त्री की कोमलता और पुरुष की दृढ़ता मिलकर सृष्टि की निरंतरता का संदेश देती हैं।

इन मूर्तियों में नर्तक, संगीतज्ञ, योद्धा, शिकारी, किसान, सब शामिल हैं। यह संदेश देता है कि आध्यात्मिकता संसार से दूर नहीं, बल्कि उसके भीतर है। हर व्यक्ति, हर कर्म, हर भावना, ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है। ये मूर्तियां धर्म शिक्षा के माध्यम के रूप में भी उकेरी गईं थीं।

खजुराहो में स्त्री की मूर्तियाँ सबसे जीवंत हैं। कभी वह आईना देखती है, कभी साज सज्जा करती है, कभी बच्चा थामे है, कभी वीणा बजा रही है। वह यहाँ वासना की वस्तु नहीं, बल्कि सृजन की देवी है। भारतीय शिल्प में उसे शक्ति कहा गया है; वही शक्ति जिससे सृष्टि चलती है।

इन मूर्तियों में त्रिभंग मुद्रा यानि तीन मोड़ों वाली शारीरिक लय का प्रयोग हुआ है, जो भारतीय कला की सबसे सुंदर अभिव्यक्तियों में से एक है। यह दर्शाता है कि पत्थर में भी लय और गति हो सकती है।

भारतीय दर्शन कहता है: “कामो भगवतः स्वरूपम्”, अर्थात काम स्वयं ईश्वर का स्वरूप है। खजुराहो की मूर्तियाँ इसी सत्य को प्रकट करती हैं। यहाँ भोग और योग, दोनों को एक ही धारा में दिखाया गया है क्योंकि जीवन की पूर्णता इन्हीं के संगम से आती है। मंदिर के बाहरी भाग पर जो सांसारिक दृश्य हैं, वही व्यक्ति को भीतर के गर्भगृह की ओर यानी मोक्ष की ओर ले जाते हैं। यह स्थापत्य संरचना अपने आप में आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है।

खजुराहो की कला कहती है कि जीवन का हर रूप पवित्र है। यहाँ तपस्वी भी है, प्रेमी भी; नर्तक भी है, ध्यानमग्न योगी भी। यह संतुलन भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान है, जहाँ त्याग और भोग, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इसलिए खजुराहो केवल “काम कला” नहीं, बल्कि भारतीय जीवन-दर्शन का सजीव घोषणापत्र है। यह सिखाता है कि शरीर आत्मा का विरोधी नहीं, बल्कि उसका साधन है। और जब दोनों एक लय में होते हैं, तब मनुष्य ईश्वर के सबसे निकट पहुँचता है।

समरसता का सार

खजुराहो के मंदिर पत्थर में उकेरा गया जीवन का काव्य हैं। इनकी हर मूर्ति हमें यह सिखाती है कि आध्यात्मिकता संसार से भागने में नहीं, उसे समझने में है। साथ ही यह मंदिर परिसर और इसकी विविध मूर्तिकला इस बात का भी प्रमाण है कि खजुराहो को समझने का सही तरीका यह नहीं कि हम उसे पश्चिमी नैतिक दृष्टि से आंकें, बल्कि यह कि हम उसे भारतीय दर्शन की समग्रता में देखें जहाँ देह भी साधना है, कला भी भक्ति है, और सौंदर्य भी सत्य की ओर जाने का मार्ग।

ऐश्वर्या ठाकुर
ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट और लेखक; वास्तुकला, धरोहर और संस्कृति के विषय पर लिखना-बोलना।
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