नई दिल्ली: केरल उच्च न्यायालय कहा है कि कोई भी इस बात पर जोर नहीं दे सकता कि संतियों (मंदिर के पुजारी) की नियुक्ति केवल एक विशेष जाति या वंश से ही हो सकती है। कोर्ट ने बुधवार (22 अक्टूबर) को अखिल केरल तंत्री समाजम (AKTS) द्वारा दायर एक रिट याचिका खारिज करते हुए यह फैसला दिया।
याचिका में त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड (TDB) और केरल देवस्वम भर्ती बोर्ड (KDRB) द्वारा ‘तंत्र विद्यालय’ कहे जाने वाले कुछ संस्थानों को दी गई मान्यता को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ताओं ने KDRB द्वारा जारी उस अधिसूचना को भी चुनौती दी थी जिसमें विभिन्न मंदिरों में पार्ट टाइम संति (पुजारी) के रूप में नियुक्ति के लिए योग्यता के रूप में उसके द्वारा मान्यता प्राप्त तंत्र विद्या पीठों से प्रमाण पत्र को अनिवार्य किया गया था।
वेबसाइट लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस राजा विजयराघवन और जस्टिस के.वी. जयकुमार की खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि संति (मंदिर के पुजारी) की नियुक्ति पारंपरिक प्रथा के अनुसार होनी चाहिए और अधीनस्थ कानून द्वारा इसे कमजोर नहीं किया जा सकता।
याचिका अखिल केरल तंत्री समाजम नाम की एक संस्था की ओर से दी गई थी। इस संस्था में केरल के लगभग 300 पारंपरिक तंत्री परिवार शामिल हैं, और ये युवा पीढ़ी के पुजारियों को मंदिर अनुष्ठानों का प्रशिक्षण देती है। संस्था ने तंत्र विद्यालयों के माध्यम से मंदिर पुजारियों की ऐसी भर्ती को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की थी। इसके अध्यक्ष ईसानन नंबूदरीपाद ने भी इस मामले में उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने में संस्था का साथ दिया।
याचिका में क्या दलील दी गई थी?
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि टीडीबी और केडीआरबी के पास ‘संति’ (मंदिर पुजारी) के पद के लिए ऐसी योग्यताएँ निर्धारित करने का कोई अधिकार नहीं है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि केडीआरबी और टीडीबी ने बिना किसी अधिकार के, और ऐसे विद्यालयों में उचित तांत्रिक शिक्षा के अभाव के बावजूद, मनमाने ढंग से कुछ ‘विद्यालयों’ को अनुभव प्रमाण पत्र जारी करने के योग्य मान लिया।
उन्होंने तर्क दिया कि इस तरह के कृत्यों ने पारंपरिक तांत्रिक शिक्षा को कमजोर कर दिया है और मंदिर तंत्रियों द्वारा प्रमाणन की लंबे समय से चली आ रही प्रथा को दरकिनार किया है। याचिका में कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों और प्राधिकारियों जैसे- आगम और तांथ्रसमुचयम के अनुसार संतियों की नियुक्ति एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है।
केरल हाई कोर्ट ने क्या कुछ कहा?
पीठ ने हालांकि सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि शेषम्मल बनाम तमिलनाडु राज्य मामले (Seshammal v. State of Tamil Nadu) में 1972 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में यह पहले ही माना जा चुका है कि अर्चकों (मंदिर के पुजारियों) की नियुक्ति अनिवार्य रूप से एक धर्मनिरपेक्ष कार्य है जो एक न्यासी द्वारा किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि एक अर्चक, एक बार नियुक्त होने के बाद, पवित्र कार्य करता है, लेकिन उसकी नियुक्ति का कार्य एक धर्मनिरपेक्ष प्राधिकारी (न्यासी) द्वारा किया जाता है।
इस और संबंधित मामलों के आधार पर केरल हाई कोर्ट ने कहा, ‘याचिकाकर्ताओं का यह तर्क कि संतियों की नियुक्ति धार्मिक ग्रंथों और आगम तथा तंत्रसमुच्चयम् जैसे प्राधिकारों के अनुसार की जाएगी, क्योंकि यह एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है, स्वीकार नहीं किया जा सकता।’
सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि उनका उद्देश्य मंदिर के पुजारियों के वंशानुगत विशेषाधिकार और मामले-आधारित भर्ती को कायम रखना भी है, खासकर जब समाजम में केवल ब्राह्मण समुदाय के सदस्य शामिल हैं। याचिकाकर्ता ने ये भी तर्क दिया कि उनके संस्था में सदस्यता केवल उन परिवारों तक सीमित रही है जो कम से कम सात पीढ़ियों से मंदिरों में थंथरिक पूजा करते आ रहे हैं।
इस पर न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मंदिर के पुजारियों की जाति या वंश-आधारित नियुक्ति को एक आवश्यक धार्मिक प्रथा के रूप में कोई संवैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि मंदिर पुजारी के रूप में नियुक्ति के लिए उम्मीदवारों को योग्य प्रमाणित करने की तंत्र विद्यालय प्रणाली एक गहन प्रक्रिया प्रतीत होती है। इसके बाद कोर्ट ने फैसला दिया कि रिट याचिका में कोई योग्यता नहीं है और इसे खारिज किया जाता है।