नई दिल्ली: अंग्रेजों की गुलामी से भारत को आजादी दिलाने के लिए हजारों लोगों ने संघर्ष किया। कई नौजवान हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। इन्हीं जोशिले युवकों में करतार सिंह सराभा का नाम भी शामिल है, जिन्हें भगत सिंह भी अपनी प्रेरणा मानते थे। करतार सिंह सराभा को महज 19 साल की उम्र में 16 नवंबर, 1915 को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। करतार सिंह सराभा के साथ पांच अन्य युवकों को भी इसी दिन फांसी दे दी गई थी।
करतार सिंह: लुधियाना में जन्म
राष्ट्र आज (16 नवंबर) महान शहीद करतार सिंह सराभा को श्रद्धांजलि दे रहा है। गदर पार्टी के सदस्य रहे करतार सिंह सराभा की शहादत ने शहीद-ए-आजम कहे जाने वाले भगत सिंह सहित कई युवाओं को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था।
करतार सिंह का जन्म 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम मंगल सिंह और माता का नाम साहिब कौर था। करतार सिंह एक संपन्न परिवार से थे। हालांकि, बचपन में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया और उनका पालन-पोषण उनके दादाजी ने किया। अपने दादाजी के साथ करतार स्कूली पढ़ाई के दिनों में ओडिशा में रहे और रेवेनशॉ कॉलेज में पढ़ाई की।
सराभा जुलाई 1912 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए सैन फ्रांसिस्को पहुंचे। कैलिफोर्निया में बिताए गए समय ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। सराभा तब कई अन्य आप्रवासियों की तरह, उस समय कैलिफोर्निया में एक मजदूर के रूप में भी काम कर रहे थे।
यहीं पर उन्हें एक उपनिवेशित देश से होने के अपमान का अहसास हुआ। वहां भारतीयों को ‘हिंदू गुलाम’ कहा जाता था। अमेरिका में भारतीय अक्सर अपनी समस्याओं पर चर्चा करने और अपना दुख साझा करने के लिए कहीं एक जगह एकत्र होते थे। अमेरिकी तब आम तौर पर आप्रवासियों और विशेष रूप से उपनिवेश वाले क्षेत्रों से आए आप्रवासियों के प्रति खराब रवैया रखते थे।
करतार सिंह जब गदर पार्टी से जुड़े
बहरहाल, इन्हीं दिनों में कनाडा और अमेरिका के प्रशांत तटों पर बसने वाले भारतीय अप्रवासियों में अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की योजना पर काम करने का ख्याल आया। इस विचार ने विद्रोह को जन्म देना शुरू किया।
अंग्रेजों को भारत से भगाने के लक्ष्य के साथ गदर पार्टी की स्थापना 1913 में अमेरिका के ओरेगॉन में हुई थी। इस क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना पंडित सोहन सिंह भकना ने की थी। कांशी राम, हरनाम सिंह टुंडिलट, लाला हर दयाल, और अन्य लोग भी संस्थापकों में शामिल थे। यह एक भारतीय संगठन था जिसने सशस्त्र विद्रोह के माध्यम से भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का इरादा किया। इस संगठन का मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में था। सराभा इसमें शामिल हुए और बेहद सक्रियता से काम करने लगे।
प्रथम विश्व युद्ध और गदर पार्टी की योजना
साल 1914 की 28 जुलाई को प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई। गदर पार्टी को लगा कि भारत में ब्रिटिश सम्राज्य पर हमला करने का यह सटीक मौका है। गदर पार्टी के बड़े और प्रमुख सदस्य भारत पहुंच गए ताकि लोगों को जोड़ा जा सके और मिशन की शुरुआत की जाए। करतार सिंह भी 14 सितंबर को कोलंबो (श्रीलंका) पहुंचे और वहां से पंजाब गए।
पंजाब पहुंचने के बाद करतार सिंह ने कई बैठकें की। पार्टी की ओर से उन्होंने फिरोज़पुर, लाहौर, रावलपिंडी और अन्य सैन्य छावनियों में सैनिकों से भी संपर्क किया। उन्होंने बंगाल के क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित किया और रासबिहारी बोस को पंजाब में इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया। बोस के पहुंचने पर विद्रोह की योजना शुरू हुई।
विद्रोह के लिए 21 फरवरी 1915 की तारीख निर्धारित की गई थी, लेकिन बाद में इसे 19 फरवरी कर दिया गया। हालांकि करतार सिंह और गदर पार्टी को भनक नहीं थी कि विदेश से लौटा कृपाल सिंह नाम का शख्स पुलिस जासूस है और इनके बीच रहकर सारी योजनाओं का पुलिस के पास खुलासा कर रहा है।
यहीं गलती हो गई। इससे पहले की योजना को अंजाम दिया जाता पूरी बात ब्रिटिश अधिकारियों के सामने खुल गई। ऐसे में इससे पहले कि गदर पार्टी के कार्यकर्ता कोई विद्रोह कर पाते, अंग्रेजों ने शिकंजा कस दिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
करतार सिंह जब हुए गिरफ्तार
विद्रोह के विफल होने के बाद गिरफ्तारी से बचे गदर पार्टी के नेताओं को भारत छोड़ना पड़ा। करतार सिंह को भी पार्टी द्वारा अफगानिस्तान की ओर जाने को कहा गया। हालांकि, करतार सिंह, जगत सिंह और हरनाम सिंह कुछ ही दिनों बाद भारत लौट आए। इन तीनों को 2 मार्च 1915 को सरगोधा (अब पाकिस्तान में) से गिरफ्तार कर लिया गया।
तीनों को लाहौर सेंट्रल जेल ले जाया गया, जहां उन पर ‘पहले लाहौर षड्यंत्र’ मामले में आरोप लगाया गया। मुकदमा 26 अप्रैल 1915 को शुरू हुआ और फैसला 13 सितंबर 1915 को सुनाया गया। उन पर आईपीसी की धारा 121, 121ए और 131 के तहत आरोप लगाए गए।
अदालत में करतार सिंह सराभा उसी जोशिले भाव से मौजूद रहे और गर्व से अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को संगठित करने के अपने काम के बारे में बताया। उनकी बातें सुन अदालत ने करतार सिंह को विद्रोहियों में सबसे खतरनाक माना। जजों ने कहा, ‘उसे अपने अपराधों पर बहुत गर्व है। वह दया का पात्र नहीं है और उसे फांसी दी जानी चाहिए।’
आखिरकार सराभा और उनके सात साथी देशवासियों को 16 नवंबर 1915 को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई। करतार सिंह सराभा को ब्रिटिश अधिकारियों ने जब फांसी दी थी तब उनकी उम्र केवल 19 साल थी। उनकी यह बहादुरी बाद के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा और साहस का स्रोत बनी। भगत सिंह भी करतार सिंह सराभा को अपना आदर्श मानते थे। करतार सिंह को जब फांसी हुई थी, तब भगत सिंह की उम्र महज 8 साल की थी।