जब ब्रिटिश सरकार अगस्त 1947 में भारत छोड़ने की तैयारी कर रही थी, उस समय देश में बहुत तेजी से कई ऐतिहासिक घटनाएँ घट रही थीं। इतनी तेजी से कि लोग पूरी तरह समझ भी नहीं पा रहे थे कि हो क्या रहा है। इन्हीं दिनों जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में एक चौंकाने वाली घटना हुई। 14 अगस्त 1947 को डाक विभाग के कुछ कर्मचारियों ने श्रीनगर के डाकघर की इमारत पर पाकिस्तान का झंडा- हरा-सफेद जिसमें चाँद और सितारा बना था-फहरा दिया। यह कदम काफी साहसी था क्योंकि महाराजा हरि सिंह उसी इलाके में निवास कर रहे थे।
कहा जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सैकड़ों स्वयंसेवक उस समय चुपचाप कुछ मुस्लिम नागरिकों की गतिविधियों पर नजर रख रहे थे। वे इस तरह की किसी भी हरकत से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार थे। रात में उन्होंने डाकघर की इमारत से पाकिस्तान का झंडा उतार दिया और अगले दिन सुबह शहर की कई इमारतों पर तिरंगा लहराता मिला। इस एक घटना ने साफ़ संदेश दे दिया कि जम्मू-कश्मीर के लोगों की निष्ठा भारत के प्रति है।
कुछ महीनों बाद, 26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने भारत के पक्ष में विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। उस दौर की कहानियाँ बार-बार सुनाई जानी चाहिए ताकि लोग उस समय की परिस्थितियों को सही नजरिए से समझ सकें। यह कहानी है कुछ लोगों की विश्वासघात की, लेकिन उससे कहीं अधिक उन लोगों की अद्भुत वीरता और असंख्य हिंदू-सिखों के बलिदान की।
भारत की आजादी, विभाजन और पाकिस्तान के गठन की घटनाएँ इतनी अचानक हुईं कि उस समय किसी के लिए भी हालात आसान नहीं थे। अंग्रेजों के लिए भी नहीं, जिन्हें हजारों किलोमीटर दूर से आकर भारतीयों पर शासन करने का अब कोई नैतिक या राजनीतिक अधिकार नहीं बचा था। और उन भारतीयों के लिए भी नहीं, जिनके लिए अपने देश का विभाजन किसी गहरे सदमे से कम नहीं था।
पाकिस्तान बनने के कारण भारत के लिए जो ज़ख्म बना, वह आज तक नहीं भरा है। अक्टूबर 1947 में यह जख्म बहुत ताजा था, खासकर जम्मू-कश्मीर के लिए, जिसने अपना आधा से अधिक इलाका पाकिस्तान के हमले में खो दिया। पाकिस्तान ने उस समय धोखे से हमला किया, जबकि अगस्त 1947 में महाराजा से स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट करते समय उसने खुद को ईमानदार और सहयोगी बताया था।
पंजाब और बंगाल में हुए दंगों और अव्यवस्था को देखकर पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने महाराजा को भारत में विलय करने की सलाह दी। उन्होंने जनता की राय जुटाई और कई राजनीतिक-सामाजिक संगठनों से एक सामूहिक पत्र पर हस्ताक्षर करवाए जो महाराजा को संबोधित था। पंजाब के संघचालक बद्री दास भी महाराजा से मिले, लेकिन स्थिति अब भी अस्पष्ट थी। राजा निर्णय नहीं ले पा रहे थे।
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की महाराजा हरि सिंह के प्रति शत्रुता, उनके निर्णय में झिझक का बड़ा कारण थी। यह नाराजगी 1946 की गर्मियों में कोहाला प्रसंग से शुरू हुई थी, जब नेहरू अपने मित्र शेख अब्दुल्ला की पैरवी के लिए श्रीनगर जाना चाहते थे, जो उस समय जेल में थे। झेलम नदी के पुल (कोहाला, जो अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में है) पार करने पर नेहरू को रोक दिया गया और पास के गेस्टहाउस में ठहराया गया।
नेहरू को साफ बता दिया गया कि वे महाराजा के राज्य की सीमा में आगे नहीं जा सकते, खासकर श्रीनगर की ओर नहीं। यह घटना नेहरू के मन में महाराजा के प्रति गहरी नाराजगी का कारण बनी और उन्होंने उन्हें लगभग अपना “राजनीतिक शत्रु” मान लिया।
अक्टूबर 1947 में संघ प्रमुख गुरुजी गोलवलकर श्रीनगर पहुँचे। 17 से 19 अक्टूबर के बीच उन्होंने महाराजा हरि सिंह से मुलाकात की और उन्हें भारत में तत्काल विलय के लिए राजी किया। गुरुजी दिल्ली से हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुँचे और तीन दिन वहीं रहे। इस दौरान उन्होंने आरएसएस के अनेक कार्यकर्ताओं से भी मुलाकात की।
1947 में शारदीय नवरात्र 15 अक्टूबर से शुरू हुए थे, दशहरा 24 अक्टूबर को था और दिवाली 12 नवंबर को पड़ी। यानी गुरुजी और महाराजा की यह महत्वपूर्ण बातचीत नवरात्र के दिनों में हुई थी।
1947 में भारत में 560 से अधिक रियासतें थीं- कुछ बड़ी, जैसे जम्मू-कश्मीर, जिसका क्षेत्रफल दो लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक था और कुछ बहुत छोटी। इन रियासतों को यह अधिकार था कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल हों या स्वतंत्र रहें। कुछ लोगों ने गलतफहमी से यह मान लिया था कि यह निर्णय 15 अगस्त 1947 तक लेना जरूरी है, जबकि ऐसा कोई समय-सीमा नहीं था।
गृह विभाग उस समय सरदार वल्लभभाई पटेल के पास था और रियासतों को भारत में मिलाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। उन्होंने हर संभव तरीका अपनाया- कहीं समझाया, कहीं दबाव डाला और हैदराबाद के निजाम के मामले में तो सेना भेजना ही सबसे उचित कदम माना गया।
दुर्भाग्य से जम्मू-कश्मीर का मामला नेहरू ने अपने नियंत्रण में रखा और सरदार पटेल को इसमें हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी। नेहरू चाहते थे कि उनके मित्र शेख अब्दुल्ला को सत्ता में अच्छा स्थान मिले। इसी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने जम्मू-कश्मीर के पूरे प्रश्न को जटिल बना दिया। महाराजा के प्रति नेहरू की व्यक्तिगत शत्रुता ने भी हालात को और उलझाया, जिसके परिणाम आज तक महसूस किए जाते हैं।
स्वतंत्रता के समय महाराजा हरि सिंह की दुविधा का बड़ा कारण यही नेहरू की दुश्मनी थी। अन्यथा 1930-31 में लंदन में हुई राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस ऑफ प्रिंसेस में महाराजा ने भारत के समर्थन में साफ रुख दिखाया था। उनका राज्य मुस्लिम-बहुल था, लेकिन हिंदुओं की भी बड़ी आबादी थी, जो पूरे राज्य में फैली हुई थी। महाराजा जानते थे कि पाकिस्तान से जुड़ना हिंदुओं के लिए विनाशकारी होगा।
गुरुजी गोलवलकर से मुलाकात के 10 दिन बाद ही, 26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और पूरे राज्य को भारत का हिस्सा घोषित किया। हालांकि, गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर (पीओजेके) जैसे बड़े हिस्से को तत्कालीन सरकार ने पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी, जिसके कारण वे क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में चले गए और आज तक वहीं हैं।