जम्मू-कश्मीर के चुनाव हो गए हैं और नतीजे भी सामने आ चुके हैं। इस बार भी पिछले कम से कम तीन चुनावों की तरह, जम्मू के दो पहाड़ी क्षेत्रों सहित मैदानी इलाकों और कश्मीर घाटी में अलग-अलग पैटर्न पर मतदान हुआ है। कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस 47 में से 35 सीटें यानी करीब 75 फीसदी सीटें जीतकर नंबर एक स्थान पर आई है। वहीं, जम्मू क्षेत्र में बीजेपी को दांव पर लगी 43 सीटों में से 29 यानी दो-तिहाई से ज्यादा सीटें मिल गई हैं। इस प्रकार जम्मू और कश्मीर के मतदान पैटर्न में विभाजन पहली नजर में ही स्पष्ट तौर पर दिखता है।
पिछले तीन चुनाव में क्या हुआ था?
साल 2002, 2008 और फिर 2014 के विधानसभा चुनाव में लगातार तीन बार जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनावों में कोई भी पार्टी 87 में से अधिकतम 28 सीटें कर सकी, जो सदन की कुल सीट का लगभग 32 प्रतिशत था। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने 2002 और 2008 के चुनावों में 28 सीटें हासिल कीं। 2014 में दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने 28 सीटें जीती। जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में 28 का यह आंकड़ा लगातार तीन बार दोहराया गया। बहुमत का आंकड़ा 44 होने के कारण पार्टियों को हर बार कम से कम 16 विधायकों का समर्थन हर बार जुटाना पड़ा।
उस समय 16 विधायकों का समर्थन जुटाना कोई छोटी चुनौती नहीं थी और इसकी वजह से पार्टियों के बीच पर्दे के पीछे समझौते भी होते रहे। ऐसे खंडित जनादेश में जम्मू क्षेत्र को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। साल 2002 में पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन था, जिसमें पीडीपी के 16 विधायक और कांग्रेस के 20 विधायक थे। इनमें से 15 जम्मू क्षेत्र से थे। दोनों गठबंधन सहयोगियों ने जम्मू से पांच और कश्मीर से छह निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी जुटाया। इसके बाद ही गठबंधन की सरकार बन सकी।
जम्मू को नजरअंदाज करना हमेशा रहा मुश्किल
मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार में जम्मू क्षेत्र के 20 विधायकों के साथ, जम्मू की मांगों को नजरअंदाज करना संभव नहीं था। तब कांग्रेस के दिवंगत पंडित मंगत राम शर्मा उपमुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि जम्मू के लोग सशक्त महसूस करें और सत्ता के गलियारों में उनकी बात सुनी जाए।
जुलाई 2008 में पीडीपी ने अमरनाथ भूमि विवाद को लेकर गुलाम नबी आजाद की सरकार को गिरा दिया और दोनों पार्टियाँ अलग हो गईं। 2008 के विधानसभा चुनावों के बाद, एनसी ने कांग्रेस के साथ साझेदारी की और गठबंधन सरकार बनाई। 5 जनवरी, 2009 को मुख्यमंत्री बने उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली इस गठबंधन सरकार में एक बार फिर जम्मू क्षेत्र के एक दर्जन से अधिक विधायक शामिल थे।
जम्मू के छंब से कांग्रेस के तारा चंद उपमुख्यमंत्री बने। ये गुलाम नबी आजाद के भी करीबी माने जाते थे। इस बार भी जम्मू क्षेत्र की आकांक्षाओं को नजरअंदाज करना संभव नहीं था क्योंकि उमर की सरकार का समर्थन करने वाले कांग्रेस के अधिकांश विधायक जम्मू से थे। इस प्रकार उमर को अपने कार्यकाल में एक नाजुक संतुलन बनाए रखना पड़ा। उन्हें जम्मू के विधायकों को मना कर रखना था और वह यह आभास नहीं होने दे सकते थे कि वह उन्हें नजरअंदाज करेंगे।
बीजेपी-पीडीपी के गठबंधन में भी जम्मू का प्रभाव बरकरार रहा
साल 2014 के विधानसभा चुनाव से पहले एनसी और कांग्रेस अलग हो गए और अकेले चुनाव लड़ना पसंद किया। नतीजा यह हुआ कि दोनों हार गए। पीडीपी 28 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गई। इसके ज्यादातर विधायक कश्मीर से थे। दूसरी ओर बीजेपी को 25 विधायक मिले और सभी जम्मू क्षेत्र से थे। कागज पर ऐसा संभावना थी कि कश्मीर क्षेत्र की सभी पार्टियाँ हाथ मिला सकती थीं और भाजपा को सत्ता से दूर रख सकती थीं।
स्पष्ट बहुमत किसी को नहीं मिलने की वजह से साल 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद लगभग तीन महीने तक जम्मू-कश्मीर केंद्र शासन के अधीन रहा। पीडीपी और भाजपा के एक साथ आने और गठबंधन सरकार बनाने के बाद यह स्थिति खत्म हुई। साथ ही जैसा कि 2002 और 2008 के चुनावों के बाद हुआ था, जम्मू क्षेत्र के एक भाजपा नेता डॉ. निर्मल सिंह को डिप्टी सीएम बनाया गया। मुफ्ती की सरकार में भाजपा के कई लोग मंत्री बने।
उमर अब्दुल्ला के लिए इस बार पर्याप्त समर्थन
इस बार यानी 2024 में एनसी को 42 सीटें मिली हैं। नई व्यवस्था के बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस बार कुल 90 विधायक चुनकर पहुंचे हैं। इसके अलावा पांच विधायक उपराज्यपाल की ओर से मनोनीत भी किए जाएंगे, जिनके पास वोटिंग सहित तमाम दूसरे अधिकार होंगे। एनसी के 42 विधायकों के बाद कांग्रेस के छह विधायकों को भी मिला लें तो यह संख्या 48 हो जाती है जो स्पष्ट बहुमत है। कुलगाम में सीपीएम के यूसुफ तारिगामी ने पांचवीं बार जीत हासिल की और वह एनसी और कांग्रेस के चुनाव पूर्व बनाए गठबंधन का हिस्सा थे। इससे गठबंधन के विधायकों की संख्या 49 हो गई है । इसके अलावा कुछ निर्दलीय विधायकों से भी समर्थन की बात आ रही है।
संयोग से जीते हुए सात निर्दलीय उम्मीदवारों में से कम से कम तीन बागी एनसी उम्मीदवार थे, जिन्होंने चुनावों में आधिकारिक कांग्रेस उम्मीदवारों का समर्थन करने से इनकार कर दिया था। एनसी के सरकार बनाने की तैयारी के साथ वे सभी पार्टी में लौटने के लिए तैयार हैं। छंब विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव जीतने वाले सतीश शर्मा कांग्रेस के दिवंगत मदन लाल शर्मा के बेटे हैं। मदन लाल शर्मा अपने समय में एक बड़े नेता थे और दो बार अखनूर से विधायक और दो बार जम्मू-पुंछ लोकसभा क्षेत्र से सांसद भी रहे। यह सब देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि सतीश शर्मा भाजपा के साथ जाएंगे। संभावना जताई जा रही है कि वे उमर सरकार को समर्थन दे सकते हैं, जिससे कुल समर्थक विधायकों संख्या 50 हो जाएगी।
जम्मू को इस बार नजरअंदाज करेंगे उमर अब्दुल्ला?
इस बीच सवाल जम्मू क्षेत्र का आता है, जहां से भाजपा ने 29 सीटों पर जीत हासिल की है। यह अच्छी खासी संख्या है। लेकिन मौजूदा स्थिति के हिसाब से देखें तो उमर अपने नौ मंत्रियों में जम्मू क्षेत्र से किसी को भी शामिल नहीं कर सकते हैं। बता दें कि एक केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) में मंत्रियों की संख्या सदन में कुल निर्वाचित विधायकों की संख्या का 10 प्रतिशत हो सकती है। इसका मतलब है कि जम्मू-कश्मीर में केवल नौ मंत्री हो सकते हैं, जिनमें सीएम उमर अब्दुल्ला भी शामिल हैं।
इसका मतलब यह हो सकता है कि सरकार गठन में जम्मू क्षेत्र को नजरअंदाज किया जाए क्योंकि एनसी और कांग्रेस ने जम्मू के चार जिलों (11 सीटें), कठुआ (छह सीटें), उधमपुर (चार सीटें) और सांबा (तीन सीटें) से कोई सीट नहीं जीती है। हालाँकि, उमर के सामने समस्या यह है कि उन्हें भाजपा शासित केंद्र के साथ भी अच्छे संबंध रखने होंगे। अपने समर्थकों को संतुष्ट करने और उनके मुद्दों पर गौर करने के लिए, भाजपा की ओर से जम्मू-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाने की सबसे अधिक संभावना है। इसका मतलब यह होगा कि उमर को भी भाजपा के साथ संबंध बनाने होंगे और जम्मू क्षेत्र को कमजोर महसूस नहीं होने देना होगा। नहीं तो फिर आने वाली सर्दी उनके लिए सचमुच ठंडी साबित होने वाली है।
भाजपा का सबसे ज्यादा वोट शेयर
वोट शेयर के मामले में जम्मू-कश्मीर के इस साल के विधानसभा चुनावों में बीजेपी का वोट शेयर सबसे ज्यादा है। यह 25.54 प्रतिशत है। यह आंकड़ा एनसी से अधिक है, जिसे केवल 23.43 प्रतिशत वोट मिले हैं। हालांकि, यहां यह बात दोहराना होगा कि 25.54 फीसदी वोट शेयर के साथ बीजेपी ने 29 सीटें जीती है। दूसरी ओर 23.43 प्रतिशत वोट शेयर के साथ यानी भाजपा से 2.11 प्रतिशत कम वोट पाने के बावजूद नेशनल कांफ्रेंस ने 42 विधानसभा क्षेत्रों में जीत हासिल की है और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।
इसमें यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि भाजपा ने पुंछ और राजौरी जिलों में खराब प्रदर्शन किया। यहां आठ विधानसभा क्षेत्रों में से भाजपा केवल एक, सुंदरबनी-कालाकोटे में जीत हासिल कर सकी। सात अन्य विधानसभा क्षेत्रों में उसके उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे। इसका मतलब है कि इन दोनों जिलों में थोड़ा और बेहतर प्रदर्शन करने से भाजपा की सीटें आसानी से ऊपर जा सकती थीं। राजौरी में भाजपा के विबोध गुप्ता कांग्रेस उम्मीदवार इफ्तिखार अहमद से लगभग 1,400 वोटों से हार गए, जिन्हें एनसी समर्थकों का भी साथ मिला था।
आप द स्टेट्समैन (दिल्ली), द टाइम्स ऑफ इंडिया (दिल्ली और जम्मू में), द इंडियन एक्सप्रेस, स्टार न्यूज, दैनिक भास्कर और नई दुनिया जैसी मीडिया संस्थानों के साथ काम कर चुके हैं। जम्मू-कश्मीर से संबंधित मुद्दों में गहरी रुचि रखते हैं और यहां से जुड़े मुद्दों को लेकर कुछ किताबें भी लिख चुके हैं।)