केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की पहली विधानसभा के पांच दिवसीय सत्र में क्या हुआ? अगर सच कहा जाए, तो हर दिन अनुच्छेद 370 पर अंतहीन बहस नजर आई। हर दिन की शुरुआत और अंत इसी खत्म किए जा चुके अनुच्छेद के साथ हुई। आर्टिकल 370 जबकि 5 अगस्त, 2019 को ही इतिहास बन गया था जब अनुच्छेद 35-ए को भी भारतीय संसद द्वारा हटा दिया गया था। इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर विधानसभा जिसकी 90 सीटों के लिए 10 साल बाद सितंबर में चुनाव हुए थे, वहां अनुच्छेद 370 पर हंगामे के अलावा कुछ नहीं हुआ।
‘नंबर’ बढ़ाने की बस दिखी कोशिश
सोमवार (4 नवंबर) से शुक्रवार (8 नवंबर) तक सभी पांच दिनों में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में काम के नाम पर कछ नहीं हुआ। विधानसभा में जो कुछ हुआ वह सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और भाजपा की ओर से अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को जाहिर करने और अपने-अपने ‘राजनीतिक नंबर’ बढ़ाने के अलावा कुछ भी नहीं था।
कांग्रेस, पीडीपी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी), सीपीएम और अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) बस बीजेपी और एनसी के इस टकराव को किनारे खड़े होकर देखते रहे। यहां ये भी गौर करने की बात है कि पीसी, सीपीएम और एआईपी के एक-एक सदस्य जीते हैं। ये सभी विधानसभा में लगभग अदृश्य थे। 42 विधायकों वाली एनसी और 28 विधायकों वाली भाजपा ही खबरों में रही।
इन दोनों पार्टियों के यानी एनसी और भाजपा के विधानसभा में कुल 70 सदस्य हैं। अन्य 19 (एक मौजूदा विधायक के निधन के बाद) सदस्य लगभग गौण नजर आए। तीन सदस्यों वाली पीडीपी और छह विधायकों वाली कांग्रेस भी इन हंगामों के बीच लगभग ‘अदृश्य’ ही रही। सवाल है कि आखिर यह स्थिति कैसे बनी जहां पांच दिनों में किसी भी सार्थक मुद्दे पर बहस या चर्चा नहीं हो सकी?
370 के मुद्दे पर साथ नहीं आएंगे एनसी-भाजपा
यह तो स्पष्ट है कि कम से कम अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर एनसी और भाजपा के बीच कोई तालमेल नहीं बैठ सकता। एनसी के संस्थापक शेख अब्दुल्ला यानी वर्तमान सीएम उमर अब्दुल्ला के दादा ने इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल करने में अहम भूमिका निभाई थी। इस अनुच्छेद की रक्षा के प्रति प्रतिबद्धता ही अब्दुल्ला परिवार की अब तक की तीन पीढ़ियों की राजनीति को परिभाषित करती रही है। दूसरी ओर, भाजपा और उसके पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ (बीजेएस) ने लगातार इसे खत्म करने की आवाज उठाई है।
नरेंद्र मोदी ने कई मौकों पर सार्वजनिक रूप से अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के लिए अपनी अटूट प्रतिबद्धता का संकेत दिया था। इसमें भी 23 जून 2013 को माधोपुर (पंजाब) में इसरा बेहद स्पष्ट रूप से ऐलान किया गया था। वे तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इस दिन मोदी ने दिवंगत प्रकाश सिंह बादल, शांता कुमार और अन्य की उपस्थिति में इस अनुच्छेद को संविधान से बाहर करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई थी। मौका श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 60वीं पुण्यतिथि का था जिनकी इसी दिन 1953 में शेख अब्दुल्ला के शासनकाल में श्रीनगर में मृत्यु हो गई थी।
अगर अब्दुल्ला परिवार अनुच्छेद 370 की राजनीति से आगे नहीं बढ़ पाया है, तो भाजपा ने भी इसे पांच साल पहले खत्म करके अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता दिखाई है। पीएम मोदी को 2029 की शुरुआत तक प्रधानमंत्री पद पर रहना है और ऐसे में कम से कम उस समय तक आर्टिकल 370 की वापसी या किसी बदलाव की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी स्वीकार किया है कि मोदी के कार्यकाल में इसकी बहाली असंभव है। इसका मतलब यह भी है कि हम उम्मीद कर सकते हैं कि एनसी इस पर काम करेगी और अगले पांच वर्षों तक इसकी बहाली पर जोर देती रहेगी!
उमर अब्दुल्ला की मुश्किल डगर
बड़ा सवाल ये भी है कि निरस्त अनुच्छेदों की बहाली के लिए आवाज उठाते रहने के अलावा आने वाले दिनों में एनसी का एजेंडा क्या होगा? यदि अनुच्छेद 35-ए और 370 की बात बार-बार होती रही तो इससे सरकार का उपराज्यपाल मनोज सिन्हा और दिल्ली में मोदी के साथ टकराव भी निश्चित बात है। आर्टिकल-370 पर अत्यधिक बयानबाजी से एनसी की गठबंधन सहयोगी कांग्रेस भी अलग-थलग पड़ सकती है। कांग्रेस ने निरस्त हो चुके अनुच्छेदों की बहाली पर हमेशा एक तरह की दुविधा बनाए रखी है, हालांकि उसके नेताओं ने पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग हमेशा खुलकर उठाई है।
बहरहाल जैसे-जैसे दिन बीतते जाएंगे, एनसी समर्थक ये भी देखेंगे कि पार्टी की ओर से घोषणापत्र में किए गए वादों को किस हद तक पूरा किया जा रहा है। नेशनल कॉन्फ्रेंस विधानसभा में अनुच्छेद 370 के बारे में शोर मचाकर अभी तक अपने मतदाताओं को घोषणापत्र के बिंदुओं पर असल काम की बजाय हो रहे ड्रामे पर ध्यान केंद्रित कराने में कामयाब रही है। विधानसभा में एलजी मनोज सिन्हा के भाषण में सभी घरों को 200 यूनिट बिजली देने के वादे को चतुराई से ‘योग्य परिवारों’ में बदल दिया गया। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह योजना कैसे विकसित होती है क्योंकि केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) सरकार को पिछले साल बिजली सब्सिडी पर लगभग 5,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था।
राज्य परिवहन बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा का वादा भी जल्द ही एनसी के लिए परेशानी का सबब बन सकता है, अगर वह इस कदम को लागू करती है। मुफ्त राशन, घरों में मुफ्त गैस सिलेंडर और ऐसे कई अन्य वादे हैं जो जल्द ही एनसी को परेशान करना शुरू करेंगे। इनमें से हर वादे को लागू करने के लिए उसे केंद्र सरकार से पैसे की भीख मांगनी होगी।
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