जम्मू-कश्मीर: आतंकियों की मदद करने वालों पर चलेगा बेहद कड़े एनमी एजेंट कानून के तहत मुकदमा

एनमी एजेंट (दुश्मन का जासूस) अध्यादेश के तहत जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल भट्ट पर मुकदमा चला था और उन्हें फांसी की सजा हुई थी।

एडिट
Why does Jammu Kashmir Police want to invoke Enemy Agent Ordinance against local who help terrorists know this law Maqbool Bhatt been hanged

प्रतिकात्मक फोटो (फोटो- IANS)

जम्मू:  जम्मू-कश्मीर के रियासी में तीर्थयात्रियों से भरी बस आतंकी हमले के बाद से सुरक्षा बल और पुलिस आतंकवादियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई कर रही है। आतंकवादियों के साथ ही उनकी मदद करने वालों पर नकेल कसने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस ने संदिग्धों पर एनमी एजेंट अध्यादेश 2005 के तहत मुकदमा चलाएगी। एनमी एजेंट (दुश्मन का जासूस) कानून बेहद कड़ा माना जाता है। इसके तहत दोषी पाए जाने पर मृत्यदण्ड, सश्रम उम्रकैद या सश्रम 10 साल तक की जेल और जुर्माना या दोनों की सजा दी जा सकती है।

रियासी हमले के बाद की जा रही कार्रवाई की जानकारी देते हुए हुए जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) आरआर स्वैन ने बताया कि आंतकवादियों की मदद करने वालों को दुश्मन के 'एजेंट' के रूप में चिह्नित किया जाएगा और उन पर एनमी एजेंट अध्यादेश 2005 के तहत कार्रवाई की जाएगी।

नौ जून को हुए जम्मू के रियासी बस हमले में नौ तीर्थयात्रियों की मौत हो गई थी और 41 अन्य घायल भी हुए थे। आंतकवादियों की मदद करने के लिए पुलिस ने कुछ स्थानीय निवासियों को हिरासत में लिया है।

विशेष परिस्थिति में प्रयोग होने वाला कानून

एनमी एजेंट अध्यादेश 2005 को हमेशा इस्तेमाल नहीं किया जाता है बल्कि इसे विशेष परिस्थिति में इस्तेमाल में लाया जाता है। हाल में एनमी एजेंट अध्यादेश को फरवरी 2022 में सीमा पार से ड्रग तस्करी मामले में और फिर मई 2022 में जासूसी एक अन्य मामले में इसे लागू किया गया था।

रियासी आतंकी हमले में पाकिस्तानी एजेंसियों की भूमिका की आशंका को देखते हुए इस कानून का प्रयोग किया जा रहा है। हमले में शामिल कुछ आतंकवादियों को पाकिस्तानी होने का सन्देह हैं। वहीं आतंकवादियों को भारत में गैर-कानूनी तरीके से प्रवेश दिलाने और उन्हें अत्याधुनिक हथियार इत्यादि उपलब्ध कराने के पीछे भी पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों और खुफिया एजेंसियों का हाथ होने की आशंका है।

स्थानीय सूत्रों का दावा है कि घाटी में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ने उनके लिए गुप्त रूप से काम करने वाले सहयोगियों का एक जाल बिछा रखा है जो परोक्ष तरीकों से आतंकवादियों को मदद पहुंचाता है। पाकिस्तान समर्थक न केवल आतंकवादियों को वारदात अंजाम देने में मदद करते हैं बल्कि आतंकी कार्रवाई के बाद छिपने में भी मदद करते हैं।

एनमी एजेंट अध्यादेश का इतिहास

शत्रु एजेंट अधिनियम 2005 या एनिमी एजेंट ऑर्डिनेंस एक ऐसा कानून है जिसमें दोषियों के लिए कठोर सजा का प्रावधान है। साल 1917 में जम्मू-कश्मीर के महाराजा डोगरा ने अपनी रियासत को दुश्मनों से बचाने के लिए इस अध्यादेश को लाया था।

इस कानून को 'अध्यादेश' भी कहा जाता है क्योंकि डोगरा शासन के दौरान बनाए गए कानूनों को अध्यादेश कहा जाता था।

1951 को संविधान अधिनियम निरस्त होने के बाद भी अध्यादेश रहा प्रभावी

भारत की आजादी और विभाजन के बाद सन 1948 में जम्मू-कश्मीर के महाराजा द्वारा अध्यादेश को एक कानून के रूप में फिर से अधिनियमित किया गया था।

17 नवंबर 1951 को संविधान अधिनियम निरस्त होने के बाद भी शत्रु एजेंट अध्यादेश प्रभावी रहा क्योंकि 1977 के सामान्य खंड अधिनियम की धारा 6 के क्लॉज (बी) पहले से बने कानूनों को सुरक्षा प्रदान करता है। यही कारण है कि यह कानून अभी भी लागू है।

अनुच्छेद 370 के हटने के बाद भी बरकरार रहा अध्यादेश

साल 2019 में जब केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटा दिया था तब उस समय राज्य के कई और कानून भी खत्म हो गए थे। लेकिन इसके बाद भी पब्लिक सेफ्टी एक्ट और शत्रु एजेंट अध्यादेश बरकरार रहा और तब से लेकर अभी तक यह कानून चलते आ रहा है।

शत्रु एजेंट अध्यादेश को बहुत ही सख्त कानून माना जाता है। इसमें आतंकवादियों की मदद करने वालों को भी आंतकवादियों के रूप में देखा जाता है और उन्हें सख्त सजा दी जाती है।

इस अध्यादेश में कहा गया है कि जो कोई भी भारत के शत्रुओं के एजेंट के रूप में काम करेगा या फिर भारतीय सैन्य अभियानों में बाधा डालेगा या फिर भारतीय जवानों की जान को खतरे में डालने वाले तरीकों से दुश्मनों की मदद करेगा उसे कड़ी सजा होगी।

इस कानून के तहत दोषियों को मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या जुर्माने के साथ 10 साल तक की सजा हो सकती है।

अध्यादेश की वैधता को कोर्ट में दी गई थी चुनौती

सन 1948 में इस अध्यादेश को जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी और इसे खत्म करने को कहा गया था। लेकिन कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि यह अध्यादेश अभी भी वैध रहेगा क्योंकि इसे 1977 के जनरल क्लॉज एक्ट की धारा 6 (बी) और 1957 के जम्मू और कश्मीर संविधान की धारा 157 के तहत इसे सुरक्षा प्राप्त है।

साल 1959 में रहमान शागू और अन्य बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश की वैधता को बरकरार रखा था।

अध्यादेश के तहत कैसे होती है सुनवाई

इस अध्यादेश के तहत आम सुनवाइयों की तरह इसकी सुनवाई नहीं होती है बल्कि सरकार द्वारा नियुक्त एक विशेष न्यायाधीश द्वारा इसका ट्रायल चलता है। सरकार द्वारा इस विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति हाई कोर्ट के सलाह पर की जाती है।

इस कानून के तहत ट्रायल के दौरान आरोपी को अपने सुरक्षा में किसी वकील को रखने की इजाजत भी नहीं होती है जब तक कोर्ट उसे इस बात की अनुमति न दे दे।

यह कानून क्यों है इतना सख्त

इस कानून में विशेष न्यायाधीश द्वारा दिए गए फैसलों के खिलाफ अपील करने का कोई भी प्रावधान नहीं है। इस स्पेशल जज के फैसले की समीक्षा केवल सरकार द्वारा हाई कोर्ट से चुना हुआ कोई और जज ही कर सकता है।

ऐसे में हाई कोर्ट के दूसरे जज का फैसला अंतिम फैसला माना जाएगा। इस अध्यादेश के तहत चल रहे मुकदमे और इससे जुड़े लोगों के बारे में जानकारी देने वालों को दो साल तक की जेल की सजा और जुर्माना या फिर दोनों एक साथ भी हो सकता है।

अध्यादेश की तहत दी गई सजा

इस अध्यादेश के तहत पहले भी मुकदमा चल चुका है और सजा भी सुनाई गई है। इसके तहत जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के फाउंडर मकबूल भट्ट पर मुकदमा चला था। मुकदमे में मकबूल दोषी करार दिया गया था और उसे 1984 में तिहाड़ जेल में फांसी भी दे दी गई थी।

यह भी पढ़ें
Here are a few more articles:
Read the Next Article