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दिल्ली में आजकल की ही तरह 27 जनवरी,1948 को भी कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। कई दिनों से सूरज देवता भी दिन में कुछ देर के लिए ही दर्शन देने के बाद ओझल हो रहे थे। इसके बावजूद महात्मा गांधी सुबह साढ़े आठ बजे के आसपास अलबुर्कर रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) पर स्थित बिड़ला हाउस से अपने कुछ सहयोगियों के साथ महरौली की तरफ निकले। वे महरौली में कुतुबउद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह में जा रहे थे।
इससे पहले महात्मा गांधी अपनी सन 1915 की पहली दिल्ली यात्रा के समय महरौली में कुतुबमीनार को देखने गए थे। इस बार मामला गंभीर था। दरअसल महात्मा गांधी को दिल्ली आए हुए लगभग चार महीने हो चुके थे। पर इधर सांप्रदायिक दंगे थमने नहीं रहे थे। वे नोआखाली और कलकत्ता में दंगों को शांत करवाकर 9 सितंबर, 1947 को यहां आए थे। तब दिल्ली में सरहद पार से हिन्दू- सिख शरणार्थी आ रहे थे, यहां से बहुत से मुसलमान पाकिस्तान जा रहे है।
बंटवारे के समय दिल्ली के हाल पर दुखी थे गांधी जी
करोल बाग, पहाड़गंज, दरियागंज, महरौली में मारकाट मची हुई थी। वे दंगाग्रस्त क्षेत्रों का बार-बार दौरा कर रहे थे। पर बात नहीं बन रही थी। इस बीच, कुतुबउदीन बख्तियार काकी की दरगाह के बाहरी हिस्से को भी दंगाइयों ने क्षति पहुंचाई। इस घटना से बापू दुखी थे। उन्हें 12 जनवरी 1948 को खबर मिली थी कि कुतुबउदीन बख्तियार काकी की दरगाह के बाहरी हिस्से को दंगाइयों ने क्षति पहुंचाई है। ये सुनने के बाद उन्होंने अगले ही दिन से उपवास पर जाने का निर्णय लिया।
माना जाता है कि बापू ने अपना अंतिम उपवास इसलिए रखा था ताकि भारत सरकार पर दबाव बनाया जा सके कि वो पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये अदा कर दे। पर सच ये है कि उनका उपवास दंगाइयों पर नैतिक दबाव डालने को लेकर था। गांधी जी ने 13 जनवरी 1948 को प्रात: साढ़े दस बजे अपना उपवास चालू किया। उस वक्त पंडित नेहरु, बापू के निजी सचिव प्यारे लाल नैयर वगैरह वहां पर थे। बिड़ला हाउस परिसर के बाहर मीडिया भी ‘ब्रेकिंग’ खबर पाने की कोशिश कर रहा था।
बापू का उपवास 18 जनवरी को टूटा
तब तक खबरिया चैनलों का युग आने में लंबा वक्त बचा था। बापू से अपना उपवास तोड़ने के लिए सैकड़ों हिन्दू, मुसलमान और सिख भी पहुंच रहे थे। उनकी निजी चिकित्सक डा. सुशीला नैयर उनके गिरते स्वास्थ्य पर नजर रख रही थीं। आकाशवाणी बापू की सेहत पर बुलेटिन प्रसारित कर रहा था। उनके उपवास का असर दिखने लगा।
दिल्ली शांत हो गई। तब बापू ने 18 जनवरी को अपना उपवास तोड़ा। उन्हें नेहरु जी और मौलाना आजाद ने ताजा फलों का रस पिलाया। इस तरह से 78 साल के बापू ने हिंसा को अपने उपवास से मात दी। इसके बाद वे काकी की दरगाह में पहुंचते हैं। तब तक महरौली बिल्कुल जंगल सी रही होगी। वे बिड़ला हाउस से जब महरौली के लिए निकले होंगे तो उन्हें सबसे पहली बस्ती युसुफ सराय ही मिली होगी। तक तक दक्षिण दिल्ली में गांवों में ही आबादी थी। हौज खास, सर्वप्रिय विहार, सफदरजंग डवलपमेंट एरिया वगैरह तो 50 के दशक के शुरू में बनने शुरू हुए थे।
खैर, बिड़ला हाउस से वे युसुफ सराय के रास्ते 30 मिनट में पहुंच गए होंगे दरगाह में। वहां पर उर्स चल रहा था, पर जायरीन कम ही थे। वहां पर पहुंचते ही उन्होंने दरगाह के उन हिस्सों को देखा जिसे दंगाइयों ने क्षति पहुंचाई थी। उन्होंने वहां पर एकत्र हुए मुसलमानों को भरोसा दिलाया कि उन्हें सरकार सुरक्षा देगी। उन्हें पाकिस्तान जाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु से दरगाह की फिर से मरम्मत करने के लिए भी कहा। दरअसल वे वहां पर मुसलमानों को भरोसा दिलाते हैं कि उन्हें भारत में ही रहना है।
बापू दरगाह में जाकर मुसलमानों को भरोसा दिलाते हैं कि उन्हें भारत में ही रहना है। पर अफसोस कि अब दरगाह से जुड़े किसी खादिम को ये जानकारी नहीं है कि बापू का काकी की दरगाह से किस तरह का रिश्ता रहा है। दरगाह के आसपास कोई शिलालेख भी नहीं लगा जिससे पता चल सके कि यहां कब और किसलिए राष्ट्रपिता आए थे।
बिड़ला मंदिर का उद्घाटन और बापू की शर्त
एक बात ध्यान देने की है कि महात्मा गांधी सनातनी हिन्दू होने के बावजूद कर्मकांडी हिन्दू कभी नहीं रहे थे। अगर बात दिल्ली की करें तो वे यहां 12 अप्रैल,1915 से लेकर 30 जनवरी 1948 तक बार-बार आते रहे, अंतिम 144 दिन भी यहां ही रहे, पर सिर्फ दो बार ही किसी धार्मिक स्थान में गए। वे एक बार बिड़ला मंदिर गए, दूसरी बार काकी की दरगाह में।
दरअसल राजधानी के मंदिर मार्ग स्थित प्रसिद्ध बिड़ला मंदिर ( लक्ष्मी नारायणमंदिर) के उदघाटन करने के लिए जब प्रमुख उद्योगपति और गांधी जी के सहयोगी श्री घनश्याम बिड़ला ने उनसे अनुरोध किया तो बापू एक शर्त रख दी। गांधी जी ने कहा कि वे मंदिर का उदघाटन करने के लिए तैयार हैं, पर उनकी एक शर्त है। अगर उस शर्त को माना जाएगा तब ही वे मंदिर का उद्घाटन करेंगे। ये बात 1939 के सितंबर महीने की है।
बिड़ला जी ने सोचा भी नहीं था कि उन्हें गांधी जी से इस तरह का उत्तर मिलेगा क्योंकि उनके बापू से काफी समय से मधुर संबंध थे। गांधी जी उनके अलबुर्कर रोड ( अब तीस जनवरी मार्ग) के आवास में ठहरते भी थे।
खैर, बिड़ला जी ने बापू से उनकी शर्त पूछी। गांधी जी ने कहा कि मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर रोक नहीं होगी। दरअसल उस दौर में मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश पर अनेक तरह से अवरोध खड़े किए जाते थे। उन्हें पूजा करने के लिए धर्म के ठेकेदार जाने नहीं देते थे।
जब गांधी जी को आश्वासन दिया गया कि बिड़ला मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर रोक नहीं होगी तो वे बिड़ला मंदिर के उद्घाटन के लिए राजी हो गए। इसके बाद बिड़ला मंदिर का 22 सितंबर, 1939 को विधिवत उद्घाटन हुआ। बहरहाल, गांधी जी यहां पर उद्घाटन करने के बाद फिर कभी नहीं आए। पर उनकी प्रार्थना सभाओं में सभी धर्मों की पुस्तकों का पाठ होता था।