नई दिल्लीः दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों ने राजधानी की राजनीति में बड़ा उलटफेर कर दिया। अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी (AAP), जो एक समय दिल्ली की अजेय राजनीतिक शक्ति मानी जाती थी, अब अपनी सत्ता गंवा चुकी है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने 48 सीटों पर बढ़त बनाते हुए बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया, जबकि आप केवल 22 सीटों पर सिमट गई। इससे भी बड़ा झटका यह रहा कि खुद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन अपनी-अपनी सीटों से हार गए, जो पार्टी की साख पर गहरा आघात है।
आप के खिलाफ इस बार जबरदस्त एंटी-इनकंबेंसी लहर थी। 2015 से लगातार सत्ता में रहने वाले केजरीवाल इस चुनाव में पहली बार ऐसी स्थिति में आए जहां उन्हें विपक्ष की भूमिका निभानी पड़ेगी। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जन्मी और ‘दिल्ली मॉडल’ के सहारे सत्ता तक पहुंची इस पार्टी आखिर यह हश्र कैसे हुआ, आइए उन कारणों को जानते हैं।
‘शीश महल’ विवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों ने बिगाड़ी AAP की साख
आप की राजनीति दो स्तंभों पर टिकी थी- एक, दिल्ली मॉडल, और दूसरा, भ्रष्टाचार विरोधी रुख। लेकिन बीते पांच वर्षों में दोनों कमजोर पड़ गए। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए चर्चित यह मॉडल अब सवालों के घेरे में था। MCD पर नियंत्रण के बावजूद सफाई, जल निकासी और प्रदूषण जैसे बुनियादी मुद्दों पर पार्टी कोई ठोस समाधान नहीं दे पाई।
इसके साथ ही, शराब घोटाले, दिल्ली जल बोर्ड में अनियमितताएं और अन्य वित्तीय घोटाले AAP के लिए भारी पड़े। केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह की गिरफ्तारियों ने भाजपा की इस बात को बल दिया कि आप अब ‘ईमानदार’ नहीं रही। भाजपा ने इसके विपरीत ‘डबल इंजन सरकार’ का वादा किया, जिससे मतदाताओं को एक ठोस विकल्प मिला।
कभी आम आदमी की सादगी का प्रतीक रहे केजरीवाल की छवि को उनके ‘शीश महल’ विवाद ने भी गहरा नुकसान पहुंचाया। लाखों-करोड़ों के सरकारी बंगले पर खर्च और विलासिता भरे जीवन की खबरों ने मध्यम वर्ग को आप से दूर कर दिया। यही वर्ग एक समय पार्टी का मजबूत समर्थक था।
अनर्गल आरोपों और झूठ ने विश्वसनीयता पर चोट की
अरविंद केजरीवाल की राजनीति का एक बड़ा हिस्सा आक्रामक विरोध और आरोपों पर टिका रहा है। हालांकि, जब आरोप बेबुनियाद साबित होते हैं, तो उनकी विश्वसनीयता पर सीधा असर पड़ता है। हरियाणा सरकार पर जानबूझकर दिल्ली को जहरीला पानी भेजने का उनका दावा इस चुनाव में उनके लिए भारी पड़ गया। जब हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सैनी ने खुद बॉर्डर पर जाकर यमुना का पानी पीकर उनके आरोपों को गलत साबित किया, तो जनता के एक बड़े वर्ग में यह धारणा बनी कि केजरीवाल सिर्फ राजनीतिक स्टंट कर रहे हैं। इससे न केवल विरोधियों को उन्हें घेरने का मौका मिला, बल्कि उनके कट्टर समर्थकों में भी निराशा देखी गई।
कांग्रेस के साथ गठबंधन टूटना भी आप के खिलाफ गया
जहां आप ने लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ लड़ा था, वहीं दिल्ली चुनाव में अपनी-अपनी राह अलग कर ली। दोनों के बीच संभावित गठबंधन पर काफी चर्चा हुई, लेकिन यह जमीन पर नहीं उतर सका। इसका नतीज यह हुआ का राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल एक-दूसरे पर खूब राजनीतिक तीर चलाए।
दिल्ली से पहले हरियाणा में कांग्रेस बहुत कम अंतर से सरकार बनाने से चूक गई थी, लेकिन वहां के नतीजों से सीख लेने के बावजूद आप और कांग्रेस एक मंच पर नहीं आ सके। इसका सीधा फायदा भाजपा को हुआ। अगर दोनों पार्टियां सामूहिक रूप से मैदान में उतरतीं, तो शायद नतीजे अलग होते। क्योंकि मौजूदा चुनाव में 12 से 15 ऐसी सीटें रहीं जहां आप के हारने में कांग्रेस का रोल नजर आता है। यहां तक केजरीवाल और मनीष सिसोदिया की सीटों पर हार का जो अंतर है, उससे कहीं अधिक वोट कांग्रेस के खाते में गए हैं। राजनीतिक विश्लेषक पहले ही कह रहे थे कि कांग्रेस के मजबूती से लड़ने से आप का समीकरण बिगड़ सकता है।
महिलाओं के लिए 2100 रुपये योजना लागू न कर पाना
आम आदमी पार्टी को 2020 में आप को महिलाओं का जबरदस्त समर्थन मिला था। इस बार भी महिला वोटर्स को लुभाने के लिए केजरीवाल ने उन्हें हर महीने 2100 रुपए देने का वादा किया था। लेकिन यह योजना नाकाम रही। वजह थी पंजाब में किए गए वादों को पूरा न कर पाना, जिससे आप की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए। भाजपा ने इसके बरक्स 2500 देने का वादा किया और इसका उसे लाभ भी मिलता दिखा। दिल्ली की 41 सीटों पर इस बार पुरुषों से ज्यादा महिलाओं ने मतदान किया, जिससे भाजपा को फायदा मिला।
मध्यम वर्ग का BJP की ओर चले जाना
आप की हार का एक बड़ा कारण मध्यम वर्ग का भाजपा की ओर शिफ्ट होना भी रहा। जहां गरीब तबके को बिजली-पानी सब्सिडी ने आप के साथ बनाए रखा, वहीं मध्य और उच्च-मध्यम वर्ग के मतदाताओं को यह लगा कि उनके टैक्स का पैसा मुफ्त योजनाओं पर खर्च हो रहा है।
भाजपा ने इसे भांपकर चुनावी घोषणा पत्र में ₹12 लाख तक की आय पर ‘जीरो इनकम टैक्स’ का वादा किया, जो मध्यम वर्ग के लिए एक ठोस आर्थिक प्रस्ताव था। इससे आप को भारी नुकसान हुआ। इसके अलावा 8वें वेतन आयोग की घोषणा भी भाजपा के लिए असरदार साबित हुआ। क्योंकि बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी दिल्ली में मतदाता हैं। यही वजह है कि भाजपा ने यूपी और हरियाणा की सीमा से लगे बाहरी दिल्ली की लगभग सभी सीटों और पश्चिमी दिल्ली की लगभग पूरी सीट पर कब्जा कर लिया है।
मुस्लिम और दलित वोटों में सेंध
आप को इस बार मुस्लिम और दलित वोटर्स का भी पहले जैसा समर्थन नहीं मिला। केजरीवाल का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की ओर झुकाव, और शाहीन बाग जैसे मुद्दों पर उनकी चुप्पी से मुस्लिम वोटर्स कांग्रेस की ओर खिसक गए।
दिल्ली की 13% मुस्लिम आबादी लगभग 9 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाती है। पिछले एक दशक से यह समुदाय AAP के लिए मजबूत वोटबैंक था, जिसने पार्टी को बड़ी जीत दिलाई थी। लेकिन इस बार समीकरण पूरी तरह बदल गया। भाजपा ने मुस्लिम बहुल इलाकों में भी उल्लेखनीय प्रदर्शन किया, जो पहले असंभव माना जाता था।
मुस्तफाबाद और करावल नगर जैसी सीटों पर बीजेपी के मोहन सिंह बिष्ट और कपिल मिश्रा की जीत यह संकेत देती है कि इन इलाकों में जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ है। यह वही क्षेत्र हैं जहां 2020 में दंगे हुए थे। इससे स्पष्ट है कि बीजेपी ने यहां मजबूत रणनीति अपनाई और आप को अपने ही गढ़ में पछाड़ दिया।
इसी तरह, दलित वोटों में भी इस बार बिखराव देखने को मिला। दिल्ली की 12 अनुसूचित जाति (SC) सीटों पर आम आदमी पार्टी ने भले ही 8 सीटों पर जीत दर्ज की हो लेकिन उसे इन सीटों पर कड़ी चुनौती मिली। आप ने अपने शासन में दलितों के लिए ठोस काम करने का दावा किया था, लेकिन जमीनी स्तर पर वह विश्वास बहाल नहीं कर पाई। नतीजतन, आप के दलित समर्थन में सेंध लगी और भाजपा ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया।
गंदे पानी और सफाई व्यवस्था की बदहाली
दिल्ली सरकार ने बिजली और पानी की मुफ्त योजनाओं से जनता को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन मूलभूत सुविधाओं की अनदेखी पार्टी के लिए महंगी साबित हुई। राजधानी में स्वच्छ जल की आपूर्ति एक बड़ा मुद्दा बनी रही। गर्मियों में लोग साफ पानी के लिए जूझते रहे और टैंकर माफिया पूरी तरह हावी रहा।
इसके अलावा, दिल्ली की सफाई व्यवस्था भी चरमरा गई। एमसीडी पर भी आम आदमी पार्टी का ही नियंत्रण था, इसलिए इस बदहाल स्थिति का कोई ठीकरा किसी और पर नहीं फोड़ा जा सकता था। कचरे के ढेर और जलभराव जैसी समस्याएं सरकार की अक्षमता का संकेत देने लगीं, जिससे जनता में असंतोष बढ़ा।
नेतृत्व संकट: AAP का सबसे बड़ा नुकसान
आप की सबसे बड़ी समस्या यही रही कि पार्टी पूरी तरह से केजरीवाल-केंद्रित रही है। जहां भाजपा और कांग्रेस में विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व उभरता रहता है, वहीं आप में कोई सेकेंड-रैंक लीडरशिप नहीं बन पाई।
मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन जैसे नेता पहले ही कानूनी पचड़ों में फंसे थे, जिससे चुनावी रणनीति कमजोर पड़ी। नतीजा यह हुआ कि आप पूरी तरह केजरीवाल की व्यक्तिगत लोकप्रियता पर निर्भर हो गई, जो अब लगातार गिरती जा रही है।