नई दिल्ली: रविवार विद्रोही गुटों द्वारा सीरिया की राजधानी दमिश्क पर कब्जे के बाद राष्ट्रपति बशर अल-असद का 24 साल का शासन खत्म हो गया। राष्ट्रपति असद अपने परिवार के साथ रूस में शरण लिए हुए हैं। माना जा रहा है कि सीरिया में बशर अल-असद शासन के पतन का असर न केवल मध्य पूर्व, बल्कि भारत पर भी अप्रत्याशित रूप से पड़ सकता है। भारत और सीरिया के बीच ऐतिहासिक और सभ्यतागत संबंध रहे हैं। यही नहीं, दोनों देशों के बीच हमेशा से मित्रवत संबंध रहा हैं।
बशर अल-असद के शासन का पतन, जिसे मध्य पूर्व का एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जा रहा है, न केवल भारत-सीरिया संबंधों, बल्कि एक बढ़ते हुए प्रतिस्पर्धात्मक विश्व व्यवस्था में भारत की स्थिति को भी नया रूप दे सकता है। खासतौर पर यह सवाल उठ रहे हैं कि सीरिया के कश्मीर पर रुख में क्या बदलाव आएगा और क्या भारत सीरिया के गोलन हाइट्स पर अधिकार को लेकर अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करेगा।
भारत-सीरिया के रिश्ते: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत और सीरिया के रिश्ते 1950 के दशक से मजबूत रहे हैं, जब भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सीरिया के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित किए थे। 1957 में जब नेहरू ने दमिश्क का दौरा किया, तब दोनों देशों के बीच मित्रवत रिश्तों की नींव रखी गई थी। सीरिया में असद शासन के दौरान, सीरिया ने भारत के कश्मीर मुद्दे पर हमेशा उसका समर्थन किया और इसे भारत का आंतरिक मामला माना। इसके अलावा, भारत ने सीरिया को आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में सहयोग दिया और गोलन हाइट्स पर सीरिया के दावे का समर्थन किया।
कश्मीर पर सीरिया का रुख
बशर अल-असद के शासन में, सीरिया ने हमेशा भारत के कश्मीर मुद्दे का समर्थन किया था। 2016 में उन्होंने इसे भारत का आंतरिक मामला मानते हुए इस विवाद में पाकिस्तान या अन्य बाहरी ताकतों की हस्तक्षेप का विरोध किया। वहीं 2019 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले का भी सीरियाई सरकार समर्थन किया था। उस वक्तनई दिल्ली में सीरिया के दूत रियाद अब्बास ने कहा था कि “हर सरकार को अपने लोगों की रक्षा के लिए अपनी भूमि पर जो चाहे करने का अधिकार है। हम किसी भी कार्रवाई में हमेशा भारत के साथ हैं।”
असद शासन के पतन के बाद यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सीरिया में नए शासक इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाते हैं। हालांकि, यह संभावना है कि नया शासन भी सीरिया की पारंपरिक नीति को बरकरार रखे, क्योंकि कश्मीर पर भारत का रुख व्यापक अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त कर चुका है।
भारत-सीरिया आर्थिक और सामरिक सहयोग
भारत ने सीरिया के बुनियादी ढांचे और तेल क्षेत्र में महत्वपूर्ण निवेश किया है। 240 मिलियन डॉलर का ऋण सीरिया में थर्मल पावर प्लांट के लिए दिया गया था और भारत ने वहाँ के छात्रों के लिए 1,500 सीटें “Study in India” कार्यक्रम के तहत प्रदान की हैं जिनमें यूजी, मास्टर और पीएचडी कार्यक्रम शामिल थे।
व्यापार के दृष्टिकोण से, 2020 से 2023 तक दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 100 मिलियन डॉलर से अधिक था। हालांकि, 2024 में यह घटकर 80 मिलियन डॉलर हो गया है। इसके अलावा, भारत ने सीरिया में जैव प्रौद्योगिकी और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भी योगदान दिया है। इन आर्थिक सहयोगों से दोनों देशों के रिश्ते और मजबूत हुए थे। असद शासन के पतन के बाद भारत के लिए यह चुनौती हो सकती है कि वह नए शासन के साथ सामरिक और आर्थिक संबंधों को कैसे बनाए रखे।
सीरिया में असद के पतन के बाद की चुनौतियाँ
सीरिया में असद के शासन के पतन के साथ-साथ चरमपंथी समूहों के फिर से उभरने का खतरा भी बढ़ सकता है। ISIS जैसे चरमपंथी संगठन, जिन्हें असद शासन और रूस-ईरान समर्थन के माध्यम से कमजोर किया गया था, अब पुनः सक्रिय हो सकते हैं। इससे भारत के लिए नई सुरक्षा चुनौतियाँ पैदा हो सकती हैं, क्योंकि ऐसे समूह मध्य पूर्व और अन्य क्षेत्रों में आतंकवाद को बढ़ावा दे सकते हैं। साथ ही, गोलन हाइट्स पर सीरिया के अधिकार को लेकर भारत की स्थिति भी महत्वपूर्ण रहेगी, क्योंकि यह इज़राइल और मध्य पूर्व के अन्य देशों के साथ भारत के संबंधों को प्रभावित कर सकता है। भारत ने सीरिया के नए राजनीतिक परिवर्तनों के दौरान संतुलित रुख अपनाया है और सीरिया में शांति स्थापना के लिए नेतृत्व-आधारित समाधान का समर्थन किया है।
असद ने 2000 में सत्ता संभाली थी
गौरतलब है कि 59 वर्षीय बशर अल-असद ने 2000 में अपने पिता हाफिज अल-असद की मृत्यु के बाद सत्ता संभाली थी। उनपर मानवाधिकार उल्लंघनों का आरोप लगता रहा है, जिनमें युद्ध के दौरान सीरिया में रासायनिक हथियारों का प्रयोग, कुर्दों का दमन और लोगों को जबरन गायब करना शामिल है।
2011 उनके शासन काल के लिए सबसे अहम साल रहा जब लोकतंत्र की मांग को लेकर हजारों सीरियाई नागरिक सड़कों पर उतर आए, लेकिन उन्हें भारी सरकारी दमन का सामना करना पड़ा। हालांकि सरकार के विरोध में विभिन्न सशस्त्र विद्रोही समूहों का गठन हो गया और सरकार का विरोध 2012 के मध्य तक, विद्रोह एक पूर्ण गृह युद्ध में बदल गया।