वक्फ संशोधन कानून के खिलाफ लड़ाई पहुंची सुप्रीम कोर्ट, याचिकाकर्ताओं ने क्या कुछ कहा है?

संसद के दोनों सदनों से बजट सत्र में पारित वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2025 को शनिवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी मिल गई। नए कानून पर सवाल उठाते हुए कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं।

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वक्फ कानून के खिलाफ कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं।

नई दिल्ली: संसद में लंबी बहसों और राजनीतिक टकरावों के बाद पारित हुए वक्फ संशोधन कानून को लेकर अब सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई शुरू हो गई है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु की स्वीकृति मिलने के बाद शुक्रवार को यह कानून अस्तित्व में आ गया, लेकिन इसके ठीक बाद इस पर सवाल उठाते हुए कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं।

एक ओर एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद ने याचिकाएं दायर कीं, तो शनिवार को आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान और एक गैर-सरकारी संगठन 'एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स' ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की। इस बीच राजद नेता तेजस्वी यादव ने भी कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है। दाखिल याचिकाओं में कानून को असंवैधानिक बताते हुए इसे अल्पसंख्यक अधिकारों का उल्लंघन कहा गया है।

याचिकाओं में क्या है मुख्य आपत्ति?

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि नया वक्फ कानून संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (भेदभाव का निषेध), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता), 25-26 (धार्मिक स्वतंत्रता), 29-30 (संस्कृति और अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान की सुरक्षा), और 300A (स्वामित्व का अधिकार) का उल्लंघन करता है।

विशेष रूप से, "यूनिफाइड वक्फ मैनेजमेंट, एम्पावरमेंट, एफिशिएंसी एंड डेवलपमेंट (उम्मीद) एक्ट" के तहत किए गए संशोधनों को लेकर यह कहा गया है कि इससे मुस्लिम समुदाय की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता प्रभावित होती है, कार्यपालिका का अनुचित हस्तक्षेप बढ़ता है, और वक्फ संपत्तियों पर मुस्लिम समुदाय का नियंत्रण कमजोर होता है।

गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति पर सवाल

याचिकाकर्ता वकील अदील अहमद की याचिका में विशेष रूप से वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद में गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति पर आपत्ति जताई गई है। उनका तर्क है कि "यह धार्मिक मामलों में ऐसा हस्तक्षेप है जो केवल मुस्लिम संस्थाओं तक सीमित है। गैर-मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है, जिससे यह कानून भेदभावपूर्ण बन जाता है।"

याचिका में यह भी कहा गया है कि इसे 'समावेशिता' का नाम देना केवल एक भ्रम है, जबकि इसका वास्तविक प्रभाव अल्पसंख्यक समुदाय की पहले से ही सीमित संस्थागत भागीदारी को और कमजोर करता है।

ट्राइब्यूनल की शक्तियों में कटौती पर भी आपत्ति

याचिका में वक्फ संपत्तियों से संबंधित विवादों की सुनवाई के अधिकार जिला कलेक्टर जैसे कार्यपालिका अधिकारियों को सौंपने और वक्फ ट्राइब्यूनल की स्थगन (stay) देने की शक्तियों को सीमित करने पर भी आपत्ति जताई गई है। इसे न्याय के उचित प्रक्रिया से वंचित करना बताया गया है।

'सच्चर कमेटी' का हवाला

गैर-सरकारी संगठनों की याचिका में 'सच्चर कमेटी रिपोर्ट' का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मुस्लिम समुदाय पहले से ही सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ा है और सार्वजनिक संस्थाओं में उनका प्रतिनिधित्व नगण्य है। ऐसे में यह कानून उनकी धार्मिक संस्थाओं में हस्तक्षेप करके उन्हें और हाशिये पर धकेल देगा।

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