नई दिल्ली: उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कार्यकारी नियुक्तियों में मुख्य न्यायाधीश की भागीदारी जैसी व्यवस्था पर सवाल उठाया है। उन्होंने शुक्रवार को कहा कि वैधानिक व्यवस्था के आधार पर भी भारत के मुख्य न्यायाधीश सीबीआई निदेशक जैसी कार्यकारी नियुक्तियों में कैसे शामिल हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसी व्यवस्थाओं को लेकर फिर से विचार करने का समय आ गया है।
भोपाल में राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी में बोलते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा, 'आपके दिमाग में यह सवाल उठना चाहिए हमारे जैसे देश में या किसी भी लोकतंत्र में वैधानिक निर्देश द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश सीबीआई निदेशक के चयन में कैसे भाग ले सकते हैं?'
उन्होंने कहा, 'क्या इसके लिए कोई कानूनी तर्क हो सकता है? मैं इस बात की सराहना कर सकता हूं कि वैधानिक निर्देश ने आकार लिया क्योंकि उस समय की कार्यपालिका ने न्यायिक फैसले को स्वीकार कर लिया था। लेकिन अब समय आ गया है कि इस पर फिर से विचार किया जाए। इसे निश्चित रूप से लोकतंत्र के साथ विलय नहीं किया जा सकता है। हम किसी भी कार्यकारी नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश को कैसे शामिल कर सकते हैं!'
शक्तियों के विभाजन पर सवाल
उपराष्ट्रपति ने आगे कहा, 'न्यायिक डिक्री द्वारा कार्यकारी शासन एक संवैधानिक विरोधाभास है जिसे धरती पर सबसे बड़ा लोकतंत्र अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता है।'
उन्होंने कहा कि सभी संस्थानों को अपनी संवैधानिक सीमा के भीतर काम करना चाहिए। उन्होंने कहा, 'सरकारें विधायिका के प्रति जवाबदेह हैं और समय-समय पर मतदाताओं के प्रति जवाबदेह होती हैं। लेकिन अगर कार्यकारी शासन को आउटसोर्स किया जाता है, तो जवाबदेही नहीं बनी रहेगी।'
उपराष्ट्रपति ने कहा, 'विधायिका या न्यायपालिका की ओर से शासन में कोई भी हस्तक्षेप संविधानवाद के विपरीत है।'
उन्होंने कहा, 'लोकतंत्र संस्थागत अलगाव पर नहीं, बल्कि समन्वित स्वायत्तता में पनपता है। निर्विवाद रूप से संस्थाएं अपने संबंधित डोमेन में काम करते हुए उत्पादक और बेहतर योगदान देती हैं। सम्मान के तौर पर मैं उदाहरणों का जिक्र नहीं करूंगा, सिवाय इसके कि न्यायपालिका द्वारा कार्यकारी शासन पर अक्सर ध्यान दिया जा रहा है और लगभग सभी क्षेत्रों में चर्चा की जाती है।'
'संसद के पास अंतिम अधिकार'
न्यायिक समीक्षा पर धनखड़ ने कहा कि 'यह एक "अच्छी बात" है क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि कानून संविधान के अनुरूप हों। लेकिन जब संविधान में संशोधन की बात आती है, तो अंतिम प्राधिकार संसद है।'
उन्होंने आगे कहा, 'न्यायपालिका की सार्वजनिक उपस्थिति मुख्य रूप से फैसलों के माध्यम से होनी चाहिए। निर्णय खुद बोलते हैं...अभिव्यक्ति का कोई अन्य तरीका...संस्थागत गरिमा को कमजोर करता है।'
धनखड़ ने कहा, 'मैं मामलों की वर्तमान स्थिति पर फिर से विचार करना चाहता हूं ताकि हम उस खांचे में वापस आ सकें, एक ऐसा खांचा जो हमारी न्यायपालिका को बेहतरी दे सके। जब हम दुनिया भर में देखते हैं, तो हम कभी भी न्यायाधीशों को उस तरह से नहीं पाते हैं जैसा हम यहां सभी मुद्दों पर देखते हैं।'