उत्तराखंडः स्कूलों में श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाने को अनिवार्य किए जाने पर शिक्षक संघ ने जताई आपत्ति, मदरसा बोर्ड ने सराहा

प्रदेश सरकार के इस फैसले पर सियासत भी तेज हो गई है।  उत्तराखंड सरकार के इस फैसले का जहां मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष मुफ्ती शमून काजमी ने स्वागत किया है, वहीं दूसरी ओर एससी-एसटी शिक्षक संगठन ने इसे संविधान विरोधी बताते हुए आपत्ति दर्ज कराई है।

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Photograph: (IANS)

देहरादून/मुरादाबादः उत्तराखंड सरकार ने कक्षा 6 से 12 तक के सरकारी स्कूलों में श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाना अनिवार्य करने का निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा कि गीता का ज्ञान न केवल धार्मिक है, बल्कि नैतिक और जीवन मूल्यों की भी शिक्षा देता है, जिससे छात्र बेहतर नागरिक बन सकेंगे। मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय किसी एक धर्म का प्रचार नहीं है बल्कि भारतीय दर्शन और जीवन मूल्यों को शिक्षा से जोड़ने का प्रयास है।

हालांकि प्रदेश सरकार के इस फैसले पर सियासत भी तेज हो गई है।  उत्तराखंड सरकार के इस फैसले का जहां मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष मुफ्ती शमून काजमी ने स्वागत किया है, वहीं दूसरी ओर एससी-एसटी शिक्षक संगठन ने इसे संविधान विरोधी बताते हुए आपत्ति दर्ज कराई है।

राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष मुफ्ती शमून काजमी ने सरकार के इस फैसले सराहना करते हुए कहा, “मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में उत्तराखंड एक अग्रणी राज्य बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। गीता का पाठ बच्चों को श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन दर्शन से परिचित कराएगा, जो भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं। इससे बच्चों में नैतिकता, भाईचारा और राष्ट्रीय मूल्यों की भावना विकसित होगी।”

उन्होंने यह भी बताया कि मदरसा बोर्ड ने हाल ही में संस्कृत पढ़ाने के लिए संस्कृत विभाग से एमओयू करने का निर्णय लिया है, ताकि छात्रों को बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी शिक्षा का अवसर मिल सके।

शिक्षक संघ की आपत्ति

वहीं, दूसरी ओर एससी-एसटी शिक्षक एसोसिएशन ने स्कूलों में गीता पढ़ाने को लेकर विरोध जताया है। एसोसिएशन के अध्यक्ष संजय कुमार टम्टा ने शिक्षा निदेशक को पत्र लिखकर कहा है कि, “श्रीमद्भगवद्गीता एक धार्मिक ग्रंथ है और संविधान के अनुच्छेद 28(1) के तहत पूरी या आंशिक रूप से सरकारी अनुदान से संचालित शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती।”

टम्टा ने कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और विद्यालयों में किसी एक धर्म विशेष की शिक्षा थोपना संविधान की भावना के खिलाफ है। उन्होंने मांग की है कि गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने से पहले इस पर व्यापक संवाद और कानूनी समीक्षा की जाए।

यह 'राइट टू-च्‍वाइस' होनी चाहिएः मौलाना सैयद काब रशीदी

जमीयत उलमा-ए-हिंद के कानूनी सलाहकार मौलाना सैयद काब रशीदी ने भी विरोध जताया। उन्होंने धामी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि यह 'राइट टू-च्‍वाइस' होना चाहिए। मौलाना सैयद काब रशीदी ने समाचार एजेंसी आईएएनएस से बात करते हुए कहा कि श्रीमद्भगवद्गीता को स्‍कूलों में अनिवार्य करना 'राइट टू-च्‍वाइस' होनी चाहिए। जो जिस धर्म की धार्मिक किताबों को पढ़ने में इच्छुक है, अगर वह पढ़ता है तो इस पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, सबके लिए अनिवार्य कर देना संविधान के आर्टिकल-25 (धार्मिक स्वतंत्रता) के खिलाफ होगा। 

मौलाना सैयद आगे कहा कि देश के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने भारत में शिक्षा नीति को धर्मनिरपेक्ष रखा था, उन्होंने हर बच्चे को यह अधिकार दिया था कि अपने धर्म के अनुसार शिक्षा ले सकता है। मुझे उत्तराखंड सरकार के भगवद् गीता पढ़ाने के दिए गए आदेश पर आपत्ति नहीं है, अगर यह आदेश सभी धर्म के बच्चों के लिए अनिवार्य होगा तो कहीं ना कहीं यह एक बड़ा सवालिया निशान है।

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