नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिक्र किया। उन्होंने इसे ‘सेक्युलर सिविल कोड’ बताते हुए कहा कि ये आज के समय की जरूरत है। पीएम मोदी ने ये भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी जरूरत कई बार बताई है।
स्वतंत्रता दिवस पर पीएम मोदी की ओर से इस विषय का जिक्र करने के बाद एक बार फिर यह सवाल उठने लगा है कि क्या केंद्र सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर बेहद गंभीरता से विचार कर रही है? बीजेपी के एजेंडे में यूनिफॉर्म सिविल कोड हमेशा से रहा है। यह मुद्दा हमेशा से देश में बहस का एक विषय भी रहा है।
इन सबके बीच कई बार बीआर अंबेडकर का भी जिक्र होता है जो देश के पहले कानून मंत्री थे। साथ ही वे संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष भी रहे। बीआर अंबेडकर ने सिविल कोड पर क्या कहा था और सुप्रीम कोर्ट में कब-कब इस विषय का जिक्र हुआ, आइए इस पर नजर डालते हैं।
‘दो दिन में तैयार हो सकता है यूनिफॉर्म सिविल कोड’
ये साल 1951 की बात है जब संविधान लागू हुए लगभग सिर्फ एक साल हुआ था। देश के पहले कानून मंत्री बीआर अंबेडकर हिंदू कोड बिल- 1951 को लेकर आलोचनाओं के घेरे में थे। इस बिल पर सांप्रदायिक होने के आरोप लग रहे थे। इस कानून के प्रावधान मुसलमानों, पारसी, यहूदी और ईसाईयों पर लागू नहीं थे और इसी बात का विरोध हो रहा था।
हिंदू कोड बिल- 1951 का विरोध करते हुए कई हिंदूवादी संगठन और संसद के सदस्य यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की मांग कर रहे थे। 6 फरवरी, 1951 को इसी मांग का जवाब देते हुए अंबेडकर ने कहा था, अगर ये सिविल कोड की मांग कर रहे हैं, तो क्या इन्हें लगता है कि इसे लाने में बहुत लंबा समय लगेगा। अंबेडकर के मन में संभवत: अनुच्छेद 44 की बात थी, जिसमें कहा गया था – ‘राज्य नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा…।’
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि अंबेडकर ने तब कहा था, ‘संभवतः उन्होंने ऐसा सुझाव क्यों दिया इसका उद्देश्य यही है। उन्हें लगता है कि जिस तरह हिंदू कोड का मसौदा तैयार करने में चार या पांच साल लगे, उसी तरह नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने में शायद दस साल लगेंगे। मैं उन्हें बताना चाहूंगा कि नागरिक संहिता मौजूद है। अगर वे चाहते हैं तो इसे दो दिन के अंदर सदन में रखा जा सकता है। अगर वे तैयार हैं तो हम इसे आधे घंटे में इस सदन में पारित कर सकते हैं।’
अंबेडकर ने कहा कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम-1925 और विशेष विवाह अधिनियम- 1872 में मामूली संशोधन करके आप कल एक नागरिक संहिता तैयार कर सकते हैं।
हिंदू कोड बिल पर हंगामा
हिंदू कोड बिल पर विवाद और हंगामे के बीच अंबेडकर ने अक्टूबर 1951 में कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। ये वह दौर था जब संसद के सदस्य जनता के चुने हुए नहीं थे। इसलिए भी हिंदू कोड बिल पर खूब हंगामा हुआ। इस बिल में हिंदू समाज में बदलाव और कुछ पुराने रीति-रिवाजों को बदलने की बात थी। इसलिए भी इसका विरोध हो रहा था। कई लोगों का मत था कि सिर्फ हिंदुओं के लिए कानून क्यों लाया जा रहा है, बहुविवाह की परंपरा तो और धर्मों में भी है।
कुल मिलाकर हिंदू कोड बिल तब पास नहीं हो सका। बाद में 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव के बाद इस बिल को कई हिस्सों में तोड़ा गया। साल 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया गया। इसमें तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों में विवाह का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी कर दिया गया। ऐसे ही
लंबी-चौड़ी बहस के बाद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम आदि लागू हुए।
यूनिफॉर्म सिविल कोड और विरोध
पश्चिम बंगाल का प्रतिनिधित्व करने वाले संविधान सभा के सदस्य नजिरुद्दीन अहमद ने उसी दौर में संसद में कहा था, ‘मुस्लिम समुदाय यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए तैयार नहीं है।’ यह तर्क संभवत: आज भी चला आ रहा है। हिंदुओं के लिए अलग कानून और दूसरे समुदाय के लिए अलग व्यवस्था पर तब जेबी कृपलानी ने भी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जमकर आलोचना की थी।
जेबी कृपलानी ने कहा था, ‘केवल (हिन्दू) महासभा ही सांप्रदायिक नहीं हैं। यह सरकार भी सांप्रदायिक है, चाहे वह कुछ भी कह ले। यह एक सांप्रदायिक कानून पारित कर रहा है। मैं आप पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाता हूं क्योंकि आप केवल हिंदू समुदाय के लिए एक विवाह का कानून ला रहे हैं। मेरी कही ये बात मान लीजिए कि मुस्लिम समुदाय इसे (UCC) लेने के लिए तैयार है, लेकिन आप में ऐसा करने का साहस नहीं हैं। यदि आप हिंदू समुदाय के लिए (तलाक का प्रावधान) चाहते हैं, तो बेशक करें, लेकिन इसे कैथोलिक समुदाय के लिए भी रखें।’
सुप्रीम कोर्ट में भी कई बार आया UCC का जिक्र
सुप्रीम कोर्ट में कई मौकों पर यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिक्र आया है। कोर्ट ने इसकी जरूरत भी बताई है। एक बड़ा मौका 1985 के शाह बानो केस के दौरान भी आया था। इस केस का फैसला शाह बानो के हक में गया था और तब चीफ जस्टिस रहे वाईवी चंद्रचूड़ की अगुआई वाली संविधान पीठ ने समान नागरिक संहिता लागू करने की राय दी थी।
वीवआई चंद्रचूड़ मौजूदा चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के पिता थे। उस बेंच ने तब सरकार को ‘समान नागरिक संहिता’ लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने की अपील की थी। ये और बात है कि बाद में राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (अधिकार और तलाक संरक्षण) विधेयक-1986 लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही पलट दिया।
इसके बाद सरला मुद्गल केस (1995) में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘जब 80% से अधिक नागरिकों को पहले से ही संहिताबद्ध पर्सनल लॉ के तहत लाया जा चुका है, तो ‘समान नागरिक संहिता’ को भारत के सभी नागरिकों के लिए रोक रखने का कोई औचित्य नहीं बनता है।’
ऐसे ही लिली थॉमस केस (2000 (6) एससीसी 224) में सुप्रीम कोर्ट ने गौर किया कि सरकार ने अगस्त और दिसंबर 1996 के दो हलफनामों में कहा कि वह यूनिफॉर्म कोड बनाने के लिए तभी कदम उठाएगी, जब इसकी इच्छा रखने वाले समुदाय उससे संपर्क करेंगे और खुद पहल करेंगे।