नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को समलैंगिक विवाह को लेकर दायर याचिकाएं खारिज कर दी। यह याचिकाएं उसके पूर्व में दिए फैसले पर पुनर्विचार को लेकर दायर की गई थीं। अदालत ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि पहले के फैसले में कोई खामी नहीं थी।
न्यायालय ने कहा कि मूल निर्णय कानून के अनुसार दिया गया था और इसमें किसी प्रकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। इससे पहले अदालत ने कहा था कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का कोई संवैधानिक आधार नहीं है। यह फैसला LGBTQIA+ समुदाय और उनके समर्थकों में गहरी निराशा और बहस का कारण बना।
पुनर्विचार याचिकाओं में क्या कहा गया था?
गुरुवार को पांच जजों की पीठ ने 2023 के फैसले के खिलाफ दायर पुनर्विचार याचिकाओं पर विचार किया। इस पीठ में न्यायमूर्ति बीआर गवई, सूर्यकांत, बीवी नागरत्ना, पीएस नरसिम्हा और दीपांकर दत्ता शामिल थे। याचिकाओं की समीक्षा कक्ष में की गई और खुली अदालत में सुनवाई नहीं हुई।
पिछले साल जुलाई में, याचिकाकर्ताओं ने इस मुद्दे के जनहित को देखते हुए ओपन कोर्ट में सुनवाई की मांग की थी। हालांकि, न्यायमूर्ति एसके कौल, एस रविंद्र भट, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति कोहली के सेवानिवृत्त होने के कारण नई पीठ का गठन किया गया। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने खुद को मामले से अलग कर लिया था।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कई पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गईं, जिनमें याचिकाकर्ताओं ने कड़ा विरोध जताया। उनका तर्क था कि यह फैसला समलैंगिक जोड़ों को “छुपकर और असत्य जीवन जीने” के लिए मजबूर करता है। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि अदालत ने भेदभाव को स्वीकार करने के बावजूद समलैंगिक जोड़ों को कानूनी सुरक्षा प्रदान नहीं की, जिससे उनका मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का कर्तव्य अधूरा रह गया।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि निर्णय “रिकॉर्ड पर स्पष्ट त्रुटियों” से भरा हुआ है और “स्व-विरोधाभासी तथा स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण” है। उन्होंने तर्क दिया कि न्यायालय ने राज्य द्वारा किए जा रहे भेदभाव को स्वीकार किया, लेकिन इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने में विफल रहा। याचिकाकर्ताओं ने इसे न्यायिक कर्तव्य का उल्लंघन करार दिया।
2023 में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
अक्टूबर 2023 में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत से समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया था। अदालत ने यह भी कहा था कि समलैंगिक जोड़ों के लिए सिविल यूनियन की अनुमति भी नहीं दी जा सकती।
बहुमत की राय न्यायमूर्ति भट ने लिखी थी जबकि न्यायमूर्ति कौल और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अल्पमत में अपना मत रखा था। हालांकि, सभी जज इस बात पर सहमत थे कि स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 में संशोधन कर समलैंगिक विवाह की अनुमति देना संभव नहीं है।
फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने केंद्र सरकार और पुलिस बलों को LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए कई दिशानिर्देश जारी किए थे। उन्होंने कहा कि समलैंगिक समुदाय के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए और वस्तुओं व सेवाओं तक उनकी पहुंच में कोई रुकावट नहीं आनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने जनता को समलैंगिक अधिकारों के प्रति जागरूक और संवेदनशील बनाने की बात कही थी। LGBTQ+ समुदाय के लिए एक हॉटलाइन सेवा शुरू करने और समलैंगिक जोड़ों के लिए सुरक्षित घर या ‘गरिमा गृह’ बनाने का निर्देश भी दिया था। इसके अलावा, अंतरलैंगिक बच्चों को अनावश्यक ऑपरेशनों के लिए मजबूर न करने और किसी भी व्यक्ति को हार्मोनल थेरेपी लेने के लिए बाध्य न करने का भी आदेश दिया गया।
बहुमत के फैसले में कहा गया कि इस मुद्दे पर कानून बनाने और बहस करने के लिए संसद सबसे उपयुक्त मंच है। वहीं, अल्पमत में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति कौल ने समलैंगिक जोड़ों के लिए सिविल यूनियन की वकालत की थी।
क्या है सिविल यूनियन?
सिविल यूनियन विवाह से अलग होती है। इसे मान्यता देने पर समलैंगिक जोड़ों को कुछ विशिष्ट अधिकार और जिम्मेदारियां मिल सकती थीं, जो सामान्यतः शादीशुदा जोड़ों को दी जाती हैं। लेकिन अदालत ने इसे मान्यता देने से इनकार कर दिया। यह निर्णय LGBTQIA+ समुदाय के लिए एक बड़ा झटका है, जो समान अधिकारों और मान्यता की लंबे समय से मांग कर रहे हैं।