नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि मतदाता सूची में नागरिकों और गैर-नागरिकों को शामिल करना या बाहर करना भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) के अधिकार क्षेत्र में आता है। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने यह भी कहा कि चुनाव आयोग का यह कहना सही था कि आधार कार्ड नागरिकता का निर्णायक प्रमाण नहीं है।
अदालत इस तर्क से भी सहमत नहीं हुई कि बिहार के लोगों के पास विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के दौरान चुनाव आयोग द्वारा प्रमाण के रूप में मांगे गए ज्यादातर दस्तावेज मौजूद नहीं हैं। जस्टिस कांत ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी की, 'यह विश्वास की कमी का मामला है, बस इतना ही।'
सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में इसी साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले मतदाता सूचियों की एसआईआर (SIR) के आदेश देने वाले चुनाव आयोग के 24 जून के निर्देश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह सभी टिप्पणियां की। इस मामले पर बुधवार को भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी रहेगी।
याचिकाओं के खिलाफ चुनाव आयोग ने क्या दलीलें रखी?
चुनाव आयोग की पहल के खिलाफ याचिका देने वालों में से एक एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने तर्क दिया है कि एसआईआर मनमाने ढंग से और बिना उचित प्रक्रिया के लाखों नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने के अधिकार से वंचित कर सकता है, जिससे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव और लोकतंत्र बाधित हो सकता है।
दूसरी ओर, चुनाव आयोग ने अपने 24 जून के निर्देश का बचाव करते हुए कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 324 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21(3) के तहत मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण करने के लिए उसके पास पूर्ण शक्तियाँ हैं।
चुनाव आयोग ने कोर्ट को बताया कि शहरी प्रवास, जनसांख्यिकीय परिवर्तन और मौजूदा सूचियों में अशुद्धियों को लेकर उठाई गई चिंताओं आदि की वजह से एसआईआर की प्रक्रिया जरूरी हो गई थी। आयोग ने कहा कि लगभग दो दशकों से इनका गहन पुनरीक्षण नहीं हुआ था। इससे पहले 6 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट को बताया गया था कि 1 अगस्त को प्रकाशित बिहार मतदाता सूची के मसौदे से 65 लाख नाम हटा दिए गए हैं।
नाम काटने के कारण सार्वजनिक नहीं करने पर क्या बोला आयोग?
चुनाव आयोग ने अपने जवाब में कोर्ट को आश्वासन दिया है कि बिहार की मसौदा मतदाता सूची से बिना पूर्व सूचना, सुनवाई का अवसर और सक्षम प्राधिकारी के तर्कपूर्ण आदेश के बगैर किसी भी नाम को नहीं हटाया जाएगा।
चुनाव आयोग ने यह भी कहा कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और निर्वाचक पंजीकरण नियम, 1960 के तहत चुनाव आयोग को किसी भी कारण से मसौदा मतदाता सूची में किसी का नाम शामिल न करने के कारणों को प्रकाशित करने की आवश्यकता नहीं है।
कोर्ट में मंगलवार को सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ताओं के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने एक ऐसे मामले का उल्लेख किया जिसमें चुनाव अधिकारियों ने 12 जीवित लोगों को मृत दिखाया है। इस पर चुनाव आयोग का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि प्रकाशित मतदाता सूची केवल एक मसौदा है और इतनी बड़ी प्रक्रिया में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है। इस पर न्यायालय ने कहा, 'हमें आपसे पूछना होगा कि कितने लोगों की पहचान मृत व्यक्तियों के रूप में की गई है...आपके अधिकारियों ने कुछ काम तो किया ही होगा।'
वहीं, याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने कहा कि एसआईआर के कारण पहले ही बड़े पैमाने पर लोगों के नाम बाहर हो चुके हैं। हालाँकि, न्यायालय ने कहा, 'बड़े पैमाने पर नामों को हटाया जाना तथ्यों और आंकड़ों पर निर्भर करेगा।'
'आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं'
अदालत ने एसआईआर के दौरान पहचान के प्रमाण के तौर पर सूची में शामिल किए गए दस्तावेजों के मसले को भी सुना। कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि एसआईआर में मांगे गए ज्यादातरर दस्तावेज बिहार के लोगों के पास उपलब्ध नहीं हैं। हालाँकि, जस्टिस कांत ने इसे एक ऐसे ही बिना गंभीरत के दिया गया तर्क बताया और ऐसे कई दस्तावेजों की बात कही जो लोगों के लिए उपलब्ध होंगे।
अदालत ने कहा, 'लेकिन यह देखने के लिए कुछ तो जरूरी होगा कि वे निवासी हैं या नहीं। परिवार रजिस्टर, पेंशन कार्ड वगैरह...यह कहना बहुत व्यापक तर्क है कि लोगों के पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।' इसके बाद सिब्बल ने दलील दी कि चुनाव अधिकारी आधार और राशन कार्ड भी स्वीकार नहीं करते।
उन्होंने आगे कहा, 'एक बार जब मैं आधार दे देता हूँ, तो मैं अपना निवास साबित कर देता हूँ... लेकिन फिर यह जिम्मेदारी उस व्यक्ति पर डाल दी जाती है जो कहता है कि दस्तावेज सही नहीं है।'
कोर्ट ने एसआईआर से बाहर हुए लोगों की संख्या पर भी गौर किया। सिब्बल ने मतदाताओं को बाहर करने के लिए की गई जाँच के स्तर पर सवाल उठाते हुए तर्क दिया कि 2025 की सारांश सूची में शामिल लोगों को भी एसआईआर में शामिल नहीं किया गया है। इस पर जस्टिस बागची ने कहा, 'संक्षिप्त पुनरीक्षण सूची में शामिल किए जाने से आपको गहन पुनरीक्षण सूची में शामिल होने की पूरी छूट नहीं मिल जाती।'
जस्टिस कांत ने यह भी टिप्पणी की कि चुनाव आयोग का यह कहना सही था कि आधार को नागरिकता के निर्णायक प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा, 'इसका सत्यापन किया जाना चाहिए। आधार अधिनियम की धारा 9 देखें।'
इस बीच सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु संघवी ने भी अपनी दलील रखी। सिंघवी ने कहा कि चुनाव आयोग कभी भी नागरिकता जांचने के लिए नहीं बना था। हालांकि, जस्टिस कांत ने इस पर टिप्पणी की कि नागरिकों और गैर-नागरिकों को मतदाता सूची में शामिल करना और हटाना चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है।