सुप्रीम कोर्ट।
नई दिल्ली: राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए निश्चित समय-सीमा तय करने के मामले में मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में अहम सुनवाई हुई। शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर राष्ट्रपति खुद इस मुद्दे पर अपनी राय मांगती हैं तो इसमें क्या गलत है। यह सवाल मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने उस समय किया, जब केरल और तमिलनाडु सरकारों के वकीलों ने राष्ट्रपति के संदर्भ (राष्ट्रपति रेफरेंस) की वैधता पर ही सवाल उठा दिया।
पीठ ने राज्यों के वकीलों से पूछा, "जब माननीय राष्ट्रपति स्वयं संदर्भ मांग रही हैं तो क्या समस्या है? क्या आप वास्तव में इसकी वैधता पर सवाल उठाने को लेकर गंभीर हैं?" पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि वह एक सलाहकार क्षेत्राधिकार में बैठी है।
गौरतलब है कि मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए रेफरेंस (संदर्भ) दायर किया है। उन्होंने शीर्ष अदालत से यह जानने की मांग की थी कि क्या न्यायिक आदेश, राष्ट्रपति और राज्यपालों के विधेयकों पर फैसला लेने की विवेकाधीन शक्तियों पर समय-सीमा लगा सकते हैं।
राष्ट्रपति मुर्मू ने अपने पांच पन्नों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट से कुल 14 सवाल पूछे हैं। इनमें अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों की स्पष्ट व्याख्या मांगी गई है।
अदालत ने पहले भी कहा था कि राज्यपालों को विधेयकों पर अपनी व्यक्तिगत मर्जी से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह माननी ही होगी। अगर राष्ट्रपति किसी विधेयक पर सहमति नहीं देतीं तो संबंधित राज्य सरकार सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है।
केंद्र सरकार ने अपने लिखित जवाब में कहा है कि राज्यपालों और राष्ट्रपति पर विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए निश्चित समय-सीमा थोपना, सरकार के एक अंग द्वारा उन शक्तियों को ग्रहण करने जैसा होगा जो संविधान में निहित नहीं हैं, और इससे "संवैधानिक अव्यवस्था" पैदा होगी।
राज्यों ने कहा- यह राष्ट्रपति का नहीं, सरकार का संदर्भ है
केरल सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील केके वेणुगोपाल ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 200 से संबंधित ऐसे ही सवालों की व्याख्या पहले ही पंजाब, तेलंगाना और तमिलनाडु से जुड़े मामलों में शीर्ष अदालत कर चुकी है। उन्होंने तर्क दिया कि जब एक बार फैसले इस क्षेत्र को कवर कर लेते हैं, तो एक नए राष्ट्रपति संदर्भ पर विचार नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार को अनुच्छेद 143 के तहत एक नया संदर्भ मांगने के बजाय, पिछले फैसले की औपचारिक समीक्षा मांगनी चाहिए थी।
वहीं, तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील अभिषेक सिंघवी ने कहा कि अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भ दाखिल करके "अप्रत्यक्ष रूप से अदालत के भीतर अपील" नहीं की जा सकती। उन्होंने इसे "संस्थागत अखंडता का उल्लंघन" बताते हुए कहा कि यह एक फैसले की सामग्री और सार को बदलने की कोशिश है।
पिछले फैसले से उठा विवाद
यह पूरा विवाद सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल को आए एक फैसले से शुरू हुआ था। उस फैसले में अदालत ने पहली बार राज्यपालों को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए समय-सीमा निर्धारित की थी। इसमें कहा गया था कि राज्यपालों को प्रस्तुत किसी भी विधेयक के संबंध में उनके पास कोई विवेकाधिकार नहीं है, और उन्हें मंत्री परिषद द्वारा दी गई सलाह का अनिवार्य रूप से पालन करना चाहिए। इस फैसले में यह भी कहा गया था कि राज्यपाल द्वारा विचार के लिए राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए।