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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर नहीं माने जाने वाले मामलों में भी जांच पूरी होने के बाद जमानत याचिकाएं खारिज करने की प्रवृत्ति पर गहरी नाराजगी जताई है। अदालत ने इसे न्यायिक प्रणाली पर अनावश्यक बोझ बताते हुए कहा कि एक लोकतांत्रिक देश को पुलिस राज्य की तरह नहीं चलाया जा सकता, जहां लोगों को बिना ठोस कारणों के हिरासत में रखा जाए।
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने सोमवार को एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा, “यह चौंकाने वाला है कि सुप्रीम कोर्ट को उन जमानत याचिकाओं पर निर्णय लेना पड़ रहा है, जो ट्रायल कोर्ट में ही निपटाई जानी चाहिए थीं। इससे पूरी न्याय प्रणाली पर अनावश्यक दबाव पड़ रहा है।”
छोटे मामलों के लिए भी लोग सुप्रीम कोर्ट का रुख कर रहे
पीठ ने यह भी कहा कि पहले छोटे-मोटे मामलों में जमानत की याचिकाएं शायद ही कभी उच्च न्यायालयों तक पहुंचती थीं। अब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि ऐसे मामूली मामलों में भी लोग सुप्रीम कोर्ट की शरण ले रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर चिंता जताई हो। शीर्ष अदालत पहले भी ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट से अपील कर चुकी है कि वे मामूली मामलों में जमानत देने में उदार रवैया अपनाएं। शीर्ष अदालत ने इस प्रवृत्ति को ‘बौद्धिक बेईमानी’ की संज्ञा दी है, जब हिरासत की जरूरत नहीं होती और फिर भी जमानत नहीं दी जाती।
जांच पूरी होने के बाद भी जेल में बंद आरोपी को SC ने दी जमानत
सुनवाई के दौरान अदालत ने धोखाधड़ी के एक मामले में दो साल से ज्यादा समय से जेल में बंद आरोपी को जमानत दी। ट्रायल कोर्ट और गुजरात हाईकोर्ट ने आरोपी की याचिका खारिज कर दी थी, हालांकि जांच पूरी हो चुकी थी और आरोप पत्र दाखिल हो चुका था।
न्यायमूर्ति ओका ने कहा, “यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि मजिस्ट्रेट स्तर पर निपटने वाले जमानत मामलों को सुप्रीम कोर्ट तक लाना पड़ रहा है। लोग वहां भी राहत नहीं पा रहे, जहां उन्हें मिलनी चाहिए।”
सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में यह स्पष्ट निर्देश दिया था कि सात साल तक की सजा वाले संज्ञेय अपराधों में यदि हिरासत जरूरी न हो, तो गिरफ्तारी से बचा जाए। साथ ही, अदालतों को भी यह सुनिश्चित करने को कहा था कि लोगों को निष्पक्ष और समयबद्ध ढंग से जमानत मिले।
अदालत ने दोहराया कि यदि कोई आरोपी जांच में सहयोग करता है और उसे पहले कभी गिरफ्तार नहीं किया गया, तो केवल आरोप पत्र दाखिल होने पर उसे हिरासत में लेना उचित नहीं है। न्यायालय ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन माना है, जिसकी रक्षा न्याय व्यवस्था की प्राथमिक जिम्मेदारी है।