पटना HC ने सिंगल जज के आदेश को किया खारिज, न्यायिक अधिकारियों पर की गई टिप्पणियों को हटाया

एक मामले में, न्यायमूर्ति चौधरी ने किशनगंज के एससी/एसटी विशेष न्यायाधीश के बारे में कहा कि वे "फौजदारी कानून के मूल सिद्धांतों को नहीं जानते" और आदेश दिया कि उनसे सत्र न्यायाधीश की शक्तियां वापस ली जाएं और उन्हें केवल सिविल मामलों की सुनवाई तक सीमित कर दिया जाए।

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पटना हाईकोर्ट। फोटोः IANS

एक दुर्लभ संस्थागत हस्तक्षेप में पटना हाईकोर्ट ने अपने ही एक सिंगल जज द्वारा अधीनस्थ न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ की गई कड़ी टिप्पणियों को खारिज करते हुए कहा है कि संबंधित जज ने अपनी अधिकार-सीमा से बाहर जाकर प्रशासनिक प्रकृति के निर्देश दे डाले।

कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश अशुतोष कुमार और न्यायमूर्ति पार्थ सारथी की खंडपीठ ने दो अलग-अलग लेकिन संबंधित फैसले—एलपीए नं. 698/2025 और एलपीए नं. 699/2025—सुनाए। ये अपीलें हाईकोर्ट की ओर से उसके रजिस्ट्रार जनरल के माध्यम से दायर की गई थीं। ये दोनों मामले न्यायमूर्ति विवेक कुमार चौधरी द्वारा पारित आदेशों से जुड़े थे, जिनमें उन्होंने क्रिमिनल रिविजन याचिकाएं निपटाते हुए अधीनस्थ न्यायिक अधिकारियों पर तीखी टिप्पणियां की थीं और उनके खिलाफ कार्रवाई के निर्देश दे दिए थे—वह भी बिना कोई मौका दिए।

एक मामले में, न्यायमूर्ति चौधरी ने किशनगंज के एससी/एसटी विशेष न्यायाधीश के बारे में कहा कि वे "फौजदारी कानून के मूल सिद्धांतों को नहीं जानते" और आदेश दिया कि उनसे सत्र न्यायाधीश की शक्तियां वापस ली जाएं और उन्हें केवल सिविल मामलों की सुनवाई तक सीमित कर दिया जाए। दूसरे मामले में, रोहतास के एक एडीजे के बारे में टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि वह “सीआरपीसी के अध्याय XI और XXXIII से अनभिज्ञ हैं” और निर्देश दिया कि उन्हें बिहार न्यायिक अकादमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा जाए तथा तब तक उनकी आपराधिक न्यायिक शक्तियां वापस ली जाएं।

खंडपीठ ने इन निर्देशों को सख्ती से खारिज करते हुए कहा कि ऐसी कार्यवाही "रिविजनल अधिकार-क्षेत्र" के बाहर की बात है। पीठ ने कहा, "इस तरह के निर्देश अनुच्छेद 226 के तहत पारित आदेश जैसे हैं और इसलिए अपील योग्य हैं।”
और साफ तौर पर टिप्पणी की, "यह एक ऐसे जज की अधिकार-सीमा से बाहर की कार्यवाही है जो क्रिमिनल रिविजन की सुनवाई कर रहा था।”

पीठ ने प्रयुक्त भाषा पर भी नाराजगी जाहिर की। एक मामले में कहा गया, "एक न्यायिक अधिकारी पर की गई कठोर लेकिन पूरी तरह से अनुचित और अयोग्य टिप्पणी।”

इसके साथ ही यह भी जोड़ा, "ऐसी असंगत और रास्ते में की गई टिप्पणियां जो बदनामी या लांछन का कारण बनें, उन्हें जज की आत्म-अनुशासन की भावना के तहत टालना चाहिए।”

कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि उक्त टिप्पणियां किए जाने से पहले संबंधित न्यायिक अधिकारियों को अपनी बात रखने का कोई अवसर नहीं दिया गया—जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का स्पष्ट उल्लंघन है। एक मामले में तो जिस अधिकारी पर टिप्पणी की गई थी, वह उस ज़मानत आदेश का लेखक भी नहीं था, जो विवादित था।

महत्वपूर्ण रूप से, खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि इन टिप्पणियों का उन अधिकारियों की गोपनीय सेवा रिपोर्ट (एसीआर) पर कोई असर नहीं पड़ेगा। खंडपीठ ने कहा, "ऐसी टिप्पणियां संबंधित न्यायिक अधिकारी की एसीआर में कभी शामिल नहीं की जाएंगी और न ही किसी अन्य कार्यवाही में इनका उपयोग किया जाएगा।”

पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले ओम प्रकाश चौटाला बनाम कंवर भान (2014) का हवाला देते हुए दोहराया, "ऐसी टिप्पणियों से बचना चाहिए और जब कोई लिखी जाए तो भाषा पर नियंत्रण होना चाहिए। कोई भी जज किसी धारणा से संचालित न हो। निर्णय की प्रक्रिया में जज से यह अपेक्षा होती है कि वह संयम रखे, अपने निजी नजरिए को अलग रखे, और अपनी भावना को तर्क के अधीन रखकर निष्पक्षता से विचार करे।”

हालांकि खंडपीठ ने न्यायमूर्ति चौधरी द्वारा रिविजन याचिकाएं खारिज किए जाने के कानूनी आधारों पर कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन यह स्पष्ट किया कि उनके द्वारा दिए गए प्रशासनिक निर्देशों का कोई कानूनी आधार नहीं है और वे निरस्त किए जाते हैं।

कोर्ट ने अंत में कहा कि इस प्रकार के प्रशासनिक निर्णय लेने का अधिकार केवल मुख्य न्यायाधीश को उनके प्रशासनिक अधिकार-क्षेत्र में प्राप्त है, न कि किसी न्यायाधीश को जो रिविजनल न्यायिक कार्य कर रहा हो।

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