13 अप्रैल, 1984…आजाद भारत के इतिहास की यह वो तारीख है जिसका जिक्र किए बगैर भारतीय सेना और इसके जवानों की शौर्यगाथा लिखने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भारत के पाकिस्तान और चीन के साथ युद्ध की कहानी तो हम सभी जानते हैं। इसके अलावा भी लेकिन सेना ने कई ऐसे दुष्कर ऑपरेशन को अंजाम दिया है, जिसकी कहानी किसी भी भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा कर देगी। भारतीय सेना का ऐसा ही एक ऑपरेशन है- ऑपरेशन मेघदूत। आज इस ऑपरेशन की सफलता की 40वीं वर्षगांठ है।
यह ऑपरेशन इसलिए भी खास है क्योंकि इसने पाकिस्तान के साथ-साथ भारत ने चीन के मंसूबों को भी नाकाम कर दिया था। इस ऑपरेशन की 40वीं वर्षगांठ पर भारतीय सेना की ओर से भी एक वीडियो जारी किया गया है, जिसे आप यहां देख सकते हैं।
ऑपरेशन मेघदूत क्या है?
इस ऑपरेशन का मकसद रणनीतिक लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण सियाचीन ग्लेशियर पर कब्जा करना था। पाकिस्तान बेहद गुपचुप तरीके से इस ग्लेशियर को हथियाने की तैयारी कर रहा था। हालांकि, इससे पहले कि पाकिस्तान कोई ठोस कदम उठा पाता, भारत को इसकी भनक लग गई। इसके बाद भारतीय सेना ने ऑपरेशन मेघदूत चलाकर यहां अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी। सियाचिन दुनिया की वह सबसे ऊंची जगह भी है जहां किसी देश के सैनिकों की मौजूदगी है। यह भी बता दें कि करीब 76 किलोमीटर लंबे सियाचिन को दुनिया का दूसरा सबसे लंबा ग्लेशियर भी माना जाता है।
इसके एक तरफ पाकिस्तान तो दूसरी ओर चीन है। इस लिहाज से भी भारत के लिए जरूरी था कि वह सियाचीन पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराए। करीब 5400 मीटर यानी 18 हजार फीट से ज्यादा की ऊंचाई वाली यह जगह जहां न्यूनतम तापमान -50 डिग्री सेल्सियस तक रहता है, वहां आखिर कैसे हमारे जवानों ने सफलता हासिल की और लगातार बने हुए…इसकी कहानी भी बेहद दिलचस्प और हैरान करने वाली है।
ऑपरेशन मेघदूत….सियाचीन कैसे और क्यों बन गया अहम?
ये साल 1984 का था। उस समय इंदिरा गांधी की सरकार थी। भारत को खुफिया सूचनाओं से पता चला कि पाकिस्तान सियाचीन पर कब्जा करने की तैयारी में जुटा है। सियाचीन बेहद सर्द इलाका है। ऐसे में पाकिस्तान इसके लिए जर्मनी से बर्फीले इलाके के लिए आने वाले कपड़े और सैन्य-उपकरण भी खरीद रहा था ताकि अपने सैनिकों को वहां भेज सके।
सियाचीन को लेकर विवाद 1977-78 में ही शुरू हो गया था जब पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में कुछ विदेशी पर्वतारोहियों और वैज्ञानिक शोध आदि के लिए अनुमति दी और खुद भी सहायता देने की बात करने लगा। जबकि यह उसके अधिकार में ही नहीं था। दरअसल, 1947 की जंग के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता हुआ था। इसे कराची समझौता के नाम से जाना जाता है।
इसमें दोनों देशों के बीच सीजफायर की बात कही गई थी और लाइन ऑफ कंट्रोल (LOC) पर भी सहमति बनी। इसमें हालांकि सियाचीन का नाम शामिल नहीं था। बस इसी का फायदा पाकिस्तान लेना चाह रहा था। इसके बाद से भारतीय सेना भी सक्रिय हो गई थी और सियाचिन को लेकर योजना बनाई जाने लगी थी।
उस दौर में सियाचीन के इलाके के बेहद दुर्गम होने की वजह से इस पर किसी का ध्यान भी नहीं गया। हालांकि बाद में इसकी ऊंचाई सहित कई मायनों में इसका महत्व सामने आने लगा था। यही वजह रही कि 1972 के शिमला समझौते के बाद पाकिस्तान सियाचीन को अपने नक्शे में दिखाने लगा था। यह बात भी भारत की चिंता बढ़ा रही थी क्योंकि दोनों देशों के बीच इस इलाके को लेकर ऐसी कोई बात ही नहीं हुई थी।
ऑपरेशन मेघदूत कैसे दिया गया अंजाम?
भारत सरकार से ऑपरेशन मेघदूत की मंजूरी मिलने के बाद सेना ने इसकी तैयारी शुरू की। मार्च 1984 को सियाचीन पर कब्जा करने के लिए सेना की एक टुकड़ी पैदल रवाना हुई। ऐसा इसलिए ताकि पाकिस्तान को भारतीय सेना की मूवमेंट के बारे में जानकारी नहीं मिल सके। ऑपरेशन मेघदूत की अगुवाई की जिम्मेदारी लेफ्टिनेंट जनरल प्रेम नाथ हून को दी गई। वे उस वक्त जम्मू कश्मीर में श्रीनगर 15 कॉर्प के जनरल कमांडिंग अफसर थे।
ऑपरेशन मेघदूत को 13 अप्रैल, 1984 को शुरू किया गया। दिलचस्प बात ये थी कि पाकिस्तान ने 17 अप्रैल को सियाचीन पर अपनी सेना भेज उस पर कब्जा करने की योजना बनाई थी। भारत ने इससे ठीक चार दिन पहले अपनी सेना भेज दी। 13 अप्रैल की सुबह करीब 5:30 बजे भारतीय सेना का चीता हेलिकॉप्टर बेस कैंप से उड़ा और दोपहर तक सैनिकों को लेकर सियाचीन के पास बिलीफोंड ला के पास उतरा। कई और हेलीकॉप्टर भी अन्य सैनिकों को लेकर ग्लेशियर के करीब पहुंच गए थे। तभी मौसम खराब हो गया। सैनिकों का हेडक्वार्टर से संपर्क टूट गया। 4 दिनों तक यही हालात बने रहे।
करीब 4 दिनों के बाद 17 अप्रैल को खबर आई कि भारतीय सैनिकों ने सियाचीन के दो मेन पास सिया ला और बोलफोंड ला को अलावा 3 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके पर कब्जा कर लिया है। इसके बाद भारतीय वायुसेना ने आईएल-76, एनएन-12 और एन-32 विमानों को सामान ढ़ोने के लिए लगाया। दुनिया के सबसे ऊंचे आर्मी बेस पर तेजी से सैन्य टुकड़ी और अन्य सामान पहुंचाए जाने लगे। इसमें एमआई-17, एमआई-8, चेतक और चीता हेलिकॉप्टरों का भी सहारा लिया गया।
ऑपरेशन मेघदूत: पाकिस्तान की योजना हुई फेल
इस बीच अपनी योजना के अनुसार 17 अप्रैल जब पाकिस्तानी सेना वहां पहुंची, तो उन्होंने देखा कि सियाचीन में भारतीय जांबाज पहले ही साजोसामान के साथ मौजूद है। इस घटना के करीब तीन साल बाद 1987 में भारतीय सैनिकों ने सियाचीन की उस पोस्ट पर भी कब्जा कर लिया जहां पाकिस्तानी जवानों कब्जा कर रखा था। पाकिस्तान की ओर से इस पोस्ट का नाम कायदे रखा गया था। इस पोस्ट पर भारत के कब्जे के दौरान भारतीय सेना के सूबेदार बाना सिंह ने जबरदस्त पराक्रम किया था और इसलिए उन्हें परमवीर चक्र दिया गया। भारत के कब्जे के बाद इस पोस्ट का नाम कायदे से बदलकर बाना पोस्ट कर दिया गया।
सियाचीन में डटे रहना कितना मुश्किल…मौसम है यहां सबसे बड़ा दुश्मन
सियाचीन के एक और पाकिस्तान तो दूसरी ओर चीन जरूर है लेकिन भारतीय सेना के लिए यहां सबसे बड़ी मुश्किल यहां का मौसम है। इस ग्लेशियर पर दिन में भी औसत तापमान -20 डिग्री सेल्सियस रहता है और यह रात तक कई बार घटकर -50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। यहां हवा भी करीब 100 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चलती है। ऐसे मुश्किल हालात में सैनिकों के लिए यहां डटे रहना बेहद मुश्किल है।
ऊंचाई पर होने की वजह से अक्सर सैनिकों को ऑक्सीजन की कमी महसूस होती है। कई जवान तो इस वजह से बेहोश भी हो जाते हैं या उनकी तबीयत खराब हो जाती है। यही नहीं…बर्फीले तूफान और हिमस्खलन का खतरा लगातार बना रहता है। थकान और ऑक्सिजन की कमी की वजह से सिरदर्द, पेट में दर्द आदि का भी सामना सैनिकों को करना पड़ता है। इल्यूशन और एक्स्ट्रीम हाइपोक्समिया होने का खतरा भी बना रहता है। इसके अलावा फेफड़ों और दिमाग में सूजन, याद्दाश्त कम होना, डिप्रेशन जैसी समस्या भी सैनिकों को घेरती हैं।
सियाचीन में मौजूद सैनिकों की वर्दी, जूते और स्लीपिंग बैग्स आदि भी बेहद खास होते हैं जो ठंड में इनकी सुरक्षा करें। ऐसे में इनपर लाखों रुपये रोज खर्च होते हैं।