नई दिल्ली: केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ओर से आयोजित होने वाली गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों के भाग लेने संबंधी दशकों पुराने प्रतिबंध को हटा दिया है। जारी आदेश में कहा गया है, 'दिनांक 30.11.1966, 25.07.1970 और 28.10.1980 के आदेश से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.एस.) का उल्लेख हटाने का निर्णय लिया गया है।'

भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय के अनुसार यह प्रतिबंध शुरू में 7 नवंबर, 1966 को संसद में बड़े पैमाने पर गोहत्या विरोधी प्रदर्शन के बाद लागू किया गया थ, जिसे आरएसएस और जनसंघ ने समर्थन दिया था। अमित मालवीय ने एक्स पर लिखा, '58 साल पहले 1966 में जारी असंवैधानिक आदेश, जिसमें सरकारी कर्मचारियों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया था, उसे मोदी सरकार ने वापस ले लिया है। मूल आदेश पहले ही पारित नहीं किया जाना चाहिए था। प्रतिबंध इसलिए लगाया गया था क्योंकि 7 नवंबर 1966 को गोहत्या विरोधी प्रदर्शन बड़े पैमाने पर संसद में हुआ था। इसमें आरएसएस-जनसंघ ने लाखों लोगों का समर्थन जुटाया था। पुलिस गोलीबारी में तब कई लोगों की जान चली गई थी।'

मालवीय ने आगे लिखा, '30 नवंबर 1966 को आरएसएस-जनसंघ के दबदबे से हिलीं इंदिरा गांधी ने सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया।'

कई राज्य निरस्त कर चुके हैं आदेश

समाचार एजेंसी IANS के अनुसार आरोप है कि पूर्व की कांग्रेस सरकारों ने सरकारी कर्मचारियों के संघ के कार्यक्रमों में शामिल होने पर रोक लगा दी थी। आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने पर कर्मचारियों को कड़ी सजा देने तक का प्रावधान लागू किया गया था। सेवानिवृत होने के बाद पेंशन लाभ इत्यादि को ध्यान में रखते हुए सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में शामिल होने से बचते थे।

हालांकि, इस बीच मध्यप्रदेश सहित कई राज्य सरकारों ने इस आदेश को निरस्त कर दिया था, लेकिन इसके बाद भी केंद्र सरकार के स्तर पर यह वैध बना हुआ था। इस मामले में एक वाद इंदौर की अदालत में चल रहा था, जिस पर अदालत ने केंद्र सरकार से सफाई मांगी थी। इसी पर कार्रवाई करते हुए केंद्र सरकार ने एक आदेश जारी करते हुए उक्त प्रतिबंधों को समाप्त करने की घोषणा की है।

क्या थी 1966 में हुई गोहत्या विरोधी प्रदर्शन की वो घटना

साल 1966 भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक वर्ष है। इसी साल एक बड़ा गोहत्या विरोधी आंदोलन दिल्ली में हुआ था। इसने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को इस बेहद भावनात्मक मुद्दे पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया था। आंदोलन बाद में हिंसक भी हो गया था, जिससे पुलिस को भी जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी थी।

दरअसल, गोरक्षा और गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग को लेकर 7 नवंबर, 1966 को सर्वदलीय गोरक्षा महाअभियान समिति ने नई दिल्ली में सत्याग्रह की घोषणा की। इसे जनसंघ और आरएसएस ने तब बड़ा समर्थ दिया था। इसमें हिस्सा लेने के लिए करीब एक लाख लोग पहुंचे थे। उस समय के अखबारों की रिपोर्ट के अनुसार स्वामी करपात्री और लोकसभा सांसद स्वामी रामेश्वरानंद जैसे नेताओं के भाषणों के बाद आंदोलनकारियों ने संसद का रूख किया। इसके परिणामस्वरूप पुलिस के साथ उनकी झड़प हो गई।

विभिन्न अखबारों की तब की रिपोर्ट के अनुसार घटना में 7 से 8 लोग मारे गए जबकि 100 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। कुछ अखबारों की रिपोर्ट में कम से कम पांच लोगों की मौत की बात कही गई है। रिपोर्ट्स के अनुसार मरने वालों में एक पुलिसकर्मी भी शामिल था।

सरकारी रिकॉर्ड की बात करें तो 8 नवंबर 1966 को संसद में पेश दस्तावेजों में 7 लोगों की मौत 184 लोगों के घायल होने की बात कही गई है। इसके बाद 9 नवंबर को पेश दस्तावेज में 8 लोगों के मरने की बात कही गई। संसद में सरकार ने मरने वाले पांच लोगों के नाम भी बताएं। तीन शवों की पहचान नहीं हो सकी।