उत्तर प्रदेश के 2007 के विधानसभा चुनाव में 403 सीटों में से 206 सीटें जीतने वाली मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) साल 2022 के विधानसभा चुनाव में एक सीट जीत सकी थी। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका था। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में जब बसपा और समाजवादी पार्टी (सपा) साथ आए तो बसपा 10 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही।
कुल मिलाकर पिछले 17 सालों में मायावती और उनकी पार्टी ने अर्श से फर्श तक का सफर देखा। ऐसें में सवाल है कि 2024 का चुनाव बसपा के भविष्य के लिए क्या लेकर आया है। 2014 के बाद कई बार ऐसा भी आभास हुआ है कि बसपा मौजूदा राजनीति में बहुत सक्रिय नहीं है। कई बार बसपा पर भाजपा की ‘बी’ टीम होने के आरोप भी लगते रहे हैं।
हालांकि, यह भी सच है कि तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद राजनीतिक पंडित मानते हैं कि बसपा के पास अपना ‘वोटर बेस’ है जो उससे हर हाल में नहीं छिटकता। बसपा के वोट शेयर में भारी गिरावट के बाद भी यह देखा गया है कि अधिकांश जाटव- जो कुल दलित आबादी के आधे से अधिक हैं, बसपा के प्रति वफादार बने रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के लिए मायावती की क्या है योजना?
भाजपा की ‘बी’ टीम होने के आरोपों से बेपरवाह मायावती ने पार्टी कैडर से यही कहा है कि वे एनडीए और इंडिया ब्लॉक को पूर्ण बहुमत मिलने से रोकने के लिए प्रयास करें। मायावती के मुताबिक ऐसी स्थिति में केंद्र में ‘मजबूर सरकार’ बनेगी और बसपा को सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाने का मौका मिल सकता है।
मायावती ने यूपी में जिस तरह उम्मीदवारों को टिकट दिया है, वह भी दिलचस्प है। मसलन बसपा की पहली लिस्ट में 16 उम्मीदवार थे, इसमें 7 मुस्लिम नाम थे। पश्चिमी यूपी के लिए घोषित किए गए इन नामों से स्पष्ट है कि यह सपा-कांग्रेस की उम्मीदों को झटका देंगे। ऐसे ही गाजियाबाद में जैसे ही भाजपा ने वीके सिंह का पत्ता काटा, बसपा ने भी अपना उम्मीदवार बदल दिया और भाजपा से आए नंद किशोर पुंडिर को टिकट दे दिया।
वीके सिंह का पत्ता कटने से ठाकुरों में नाराजगी की बात सामने आई है। ऐसे में ठाकुर समाज से प्रत्याशी उतार कर बसपा की कोशिश है कि इस नाराजगी को भुनाया जाए। ऐसे ही मेरठ, जहां से भाजपा से अरुण गोविल मैदान में हैं, बसपा ने देवव्रत त्यागी को टिकट दिया है। यहां अगर प्रभावशाली त्यागी समुदाय बसपा का समर्थन करता है तो अरुण गोविल के लिए मुकाबल मुश्किल हो जाएगा।
पश्चिमी यूपी में कई ऐसी और भी सीटें हैं, जहां बसपा के उम्मीदर भाजपा या इंडिया गठबंधन का खेल बिगाड़ सकते हैं। मसलन बात मुजफ्फरनगर की करें तो यहां पर बसपा ने पिछड़ा कार्ड खेल कर दलित और पिछड़ा वोट समेटने की कोशिश की है। दारा सिंह प्रजापति की कोशिश ओबीसी-दलित समीकरण को साधने की रहेगी। भाजपा और सपा ने यहां से जाट उम्मीदवार उतारे हैं।
इसके अलावा कैराना में भाजपा ने गुर्जर समाज के प्रदीप चौधरी को उतारा है। सपा ने यहां से इकरा हसन को टिकट दिया है। बसपा ने यहां ठाकुर समुदाय से आने वाले श्रीपाल सिंह राणा को टिकट दिया है। उन्हें दलित वोट के साथ ठाकुर समाज का वोट मिलने की उम्मीद है। अगर वो ऐसा करने में सफल रहते हैं तो बाजी किधर भी पलट सकती है।
मायावती की कोशिश मुस्लिम-दलित फॉर्मूला साधने की
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम+यादव (एम+वाई) समीकरण की खूब बात होती है जो सपा की राजनीति का भी आधार रहा है। हालांकि मायावती की कोशिश मुस्लिम+दलित (एम+डी) संयोजन बनाने की लग रही है जो अगर फिट बैठ गई तो बसपा के लिए यह वापसी जैसा होगा। 2019 के चुनाव में जब मायावती और अखिलेश साथ आए तो अच्छा-खासा मुस्लिम वोट भी बसपा के खाते में गया था। यही वजह रही थी कि बसपा ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 10 पर जीत हासिल की थी। वहीं, सपा ने 37 पर चुनाव लड़ा और पांच पर जीत हासिल की थी।
राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार जहां दलितों का एक बड़ा वर्ग अभी भी बसपा के साथ है। वहीं कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर बसपा द्वारा भाजपा का समर्थन करने को लेकर मुस्लिम उनसे दूर हो गए हैं। हालांकि 2022 के यूपी चुनावों के बाद मायावती ने जून 2022 में आजमगढ़ संसदीय उपचुनाव में शाह आलम को मैदान में उतारकर और 2022 में इमरान मसूद को पार्टी में शामिल कर संभवत: मुस्लिों को रिझाने की कोशिश जरूर की। ये और बात है कि मसूद एक साल बाद ही बसपा से निष्कासित कर दिए गए और अब सहारनपुर से सपा के उम्मीदवार हैं।
वहीं, मई 2023 में निकाय चुनावों में बसपा ने मेयर चुनाव के 17 सीटों में से 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। हालांकि, पार्टी एक भी सीट जीतने में नाकाम रही।