कृष्णा जी पर लिखने से पहले मैं बार-बार सोच रही कि क्या उनपर लिखना इतना जरूरी है मेरे लिए? फिर भीतर से कहीं आवाज आती है –हां बहुत जरुरी है… इसे लिखे बिना निस्तार नहीं।
कृष्णा जी को दैहिक स्तर पर खो देना कुछ ऐसा ही है मेरे लिए जैसे अपनी माँ को खो देना। कृष्णा जी हमारे लेखकीय परिवार की वह बुजुर्गतम कड़ी थी, जिनसे हर पीढ़ी के लेखकों ने संवेदना-साहस और लेखक व लेखन को सम्मान देना और उसके हक़ के लिए लड़ना सीखा है। लेखन को औसत या हेय कर्म कभी न समझने की सीख ली है। खासकर स्त्री-लेखकों के सन्दर्भ में यह बात ज्यादा सच है।
जिस तरह परिवार के बड़े-बुजुर्गों से नाराज हुआ जा सकता है, ऐतराज किये जा सकते हैं, मतभिन्नता हो सकती है; पर उनके लिए प्रेम और इज्जत दिल में आमूल होती है: उसी तरह का प्रेम और सम्मान कृष्णा जी के लिए मेरे भीतर है।
एक स्त्री और रचनाकार होने के नाते मैंने भी उनसे बहुत कुछ सीखा है। भले ही अधिक उनकी किताबों से गुजरते हुए, तो कुछ थोड़ा उनके सानिध्य के उन गिने-चुने लम्हों से भी।
उनसे पहली बार मिलना ‘हिन्दुस्तान’ अखबार के लिए उनके इंटरव्यू के सन्दर्भ में हुआ। इससे पहले मिलना कई बार तय होकर भी रह–रह जा रहा था। पहली बार गलती मुझसे ही हुयी थी। दिन-समय तय करने के बावजूद मुझे ठीक उसी दिन उन्हें मना करने की सूझी। उस सुबह मुझे ख़याल आया- ‘आज तो दीपावली है। शाम को तो मुझे दीये भी जलाने हैं और पकवान भी बनाने।’ हालाँकि यह बहुत जरुरी जैसा कुछ नहीं था। दिल्ली में थी, सांझा फ़्लैट था यह कुछ मित्रों का। यह सब न भी करती तो शायद चल ही जाता। पर कुछ स्वभाववश उत्सवधर्मी होने और कुछ तुरत-फुरत घर छोड़ कर आये होने के कारण मुझसे यह संभव न हुआ। मैंने पब्लिक बूथ से कृष्णा जी को फोन करके न आने की बात कहकर माफ़ी मांग ली। उनसे कहा कि -‘मुझसे आज आना सम्भव नहीं हो सकेगा, मुझे यह ख्याल नहीं था कि आज दीपावली है।’कृष्णा जी ने तब बहुत शांत और संयत शब्दों में कहा था –’कोई बात नहीं, जब आपको सुभीता हो फोन करके आना तय कर लेंगी… ‘
थोड़ा रूककर फिर उन्होंने कहा था- ‘वैसे मैं दीपावली नहीं मनाती.. ‘
मैं तब भी उनके कहे का तात्पर्य नहीं समझ सकी थी…
उसके बाद मैं जब भी फोन करती वे किसी तरह से बातचीत के लिए इनकार कर जाती। मामला क्या है यह समझते-समझते मुझे समझ आया था। इस बीच कृष्णा जी के लेखकीय स्वाभिमान के किस्से मैं कितनों की जुबानी सुन चुकी थी। कृष्णा जी और अमृता प्रीतम के बीच दोनों के उपन्यासों में ‘जिंदगीनामा’ शब्द पर उनके लेखकीय स्वामित्व की लम्बी चलने वाली कानूनी लड़ाई, कृष्णा जी का इस कारण अपने पहले घर को बेच देने की नौबत आने और बाद में कानूनी लड़ाई को हार जाने के किस्से भी …
कई बार के अनुरोध और बहुतेरी आनाकानी के बाद एक बार फिर वो बमुश्किल तैयार हुयी। मेरा दुर्भाग्य कहिये या फिर संयोग, दिल्ली में नयी होने और उसके रास्तों से ठीक तरह से परिचित न होने के कारण घर तलाशते-ढूंढते पहुंचने में मुझे फिर से 3-4 मिनट की देरी हो गयी।
लेकिन पहुंची तो मैं इत्मीनान में थी-‘अभी बहुत देर नहीं हुयी कोई।’
लेकिन डोरबेल बजाने पर दरवाजा खोलने वाले शख्स ने मुझे यह कहकर चलता कर दिया था- ‘वे मेरा इन्तजार करके अभी–अभी कहीं निकली हैं।’ हतप्रभ थी मैं, बस तीन-चार मिनट के इंतजार में? कौन सा इतना जरूरी काम आ गया था इतनी ही देर में? अगर मैं वक्त पर पहुंचती और अभी बातचीत चलती होती तो वो…?
मैं अपना सा मुंह लेकर लौट आई थी चुपचाप…
यह अलग बात है कि हिम्मत अभी तक नहीं टूटी थी मेरी…
उनसे जब मिलना हुआ तो सोचा था, सबसे पहले मैं अपने उस दिन के व्यवहार के लिए माफ़ी मांगूगी पर उनके स्नेह और आत्मीयता पगे व्यवहार और कुछ मेरे संकोच ने भी मुझे उस दिन इसका एक भी मौक़ा नहीं दिया। खूब अच्छी बातचीत और ढेर सारा कुछ स्नेह से खिलाने के बाद उन्होंने अपनी किताब ‘ऐ लड़की’ मुझे उपहारस्वरूप दी थी और मैं इतनी बौड़म कि यह तक संकोचवश नहीं कह सकी थी उनसे कि -‘प्लीज आप इस किताब पर अपने ऑटोग्राफ दें या कुछ लिख दे मेरे लिए।’
कुछ गिनी-चुनी सार्वजनिक मुलाकातों की बात छोड़ दें तो पहले(2000) और दूसरे मुकम्मल मुलाक़ात(2016फरवरी) के बीच डेढ़ दशक का लंबा अंतराल बिखरा हुआ था। मैंने यह तय कर रखा था कि मैं तय वक्त और दिन का बिलकुल खयाल रखूंगी। इस बार मैं समय से पहले पहुंचूंगी…
पर अपनी इसी दूसरी दिल्ली-पारी में ‘सत्याग्रह’ के लिए उनके जन्मदिन से कुछ सप्ताह पहले उनसे बातचीत करने जब मैं पहुंची थी तो बावजूद इन सारे एहतियातों के वह मुलाक़ात बिलकुल आधी–अधूरी सी ही रही…
वहां पहुंचकर मैंने जब पहली नजर देखा ईर्दगिर्द तो बरसो से मेरी स्मृतियों में अटका वह कमरा अब वह नहीं था…लगभग वही सोफे और कालीन, लेकिन सबका रंग उदास और बदरंग हो चुका था। कुछ-कुछ कृष्णा जी के उम्र और बीमारियों से जर्जर हो रहे शरीर की ही तरह।
पहले बार के चमकते, सहेजे हुए उस घर में अब सीलन और धूल भी जैसे उसके स्थायी सदस्य हो चुके थे। शिवनाथ जी नहीं थे इस बार पिछली बार की तरह मुझे चाय-पानी पूछने और किसी अंग्रेजी अखबार में कृष्णा जी की ’सूरजमुखी अँधेरे के‘ पर आई टिप्पणी पढ़कर सुनाने के लिए …हाँ सामने की दीवार पर उनकी एक आदमकद तस्वीर जरूर थी।
कृष्णा जी की परिचारिका विमलेश ने मुझे बहुत शर्मिन्दा स्वर में कहा था- ‘कह तो रही थी कि आज आप आनेवाली हैं। नाश्ता भी बना कर रखने को कहा था पर रात में उनकी तबीयत बहुत नासाज रही, सुबह डॉक्टर ने शायद नींद की भी दवा दी थी। सो रही अभी। आप चाहे तो थोड़ा इंतजार कर लें…
एक घंटे… दो घंटे …मैं इन्तजार ही करती रही थी। विमलेश जाकर बार-बार झाँक आ रही थी पर वे बेसुध सोयी हुयी थी। हारकर मैंने वापस लौट आना तय किया।
मैंने विमलेश से कहा था- ‘मैं जा रही हूँ पर एक बार उन्हें देखकर जाना चाहूंगी।’
विमलेश ने कहा आप अपने सवाल चाहें तो छोड़कर जा सकती हैं। मैंने कहा-‘ मैं इस बार लिखित रूप में कुछ नहीं लाई।’
बहुत हौले क़दमों से विमलेश मुझे वहां तक लेकर गयी थी। रात भर उनके जागे रहने की बात फिर से दुहराते हुए।
मुझे लगा था ऐसे ही लौट आती अगर उन्हें बगैर देखे हुए तो कोई गलती करूं की न करूं पर कुछ तो छूट गया होता मुझसे…
जो मैंने देखा वह दृश्य अविस्मरणीय था, कृष्णा जी अपने आप में ही सिमटी हुयी एक नन्हें से सोफे पर गुड़ी-मुड़ी पड़ी थी। उनके चारों तरफ लिपटे रहने वाले आवरण नींद में भी उनके इर्द-गिर्द कसे थे। मुंह थोड़ा सा खुला हुया। हल्के-हल्के खर्राटे आसपास गूँज रहे थे … हाँ यह चेहरा बरसो पूर्व देखे कृष्णा सोबती के चेहरे से जरुर अलग और क्षीण था लेकिन नींद में वो किसी छोटे बच्चे की तरह निष्पाप और अबोध लगी। जागे में उनके चारों तरफ जो एक आभिजात्य और तेज पैबस्त रहता था, उसका लेशमात्र भी नहीं …बस कोई नन्हा बच्चा जैसे एक गहरी नींद में डूबा कोई सलोना सपना देख रहा हो…
उनको इस तरह देखने के बाद मैं चुपचाप लौट आई थी। जो उद्विग्नता मेरे मन में उनसे न मिलने के कारण और दफ्तर जाने को लेट होने के कारण थी, वह उन्हें देखकर जैसे एकदम मिट गयी थी…
बाद में उन्होंने मुझे फोन करके अपने सो जाने और तबीयत खराब होने के लिये माफ़ी चाही थी। इस बातचीत में ‘सत्याग्रह’ को लेकर जो उनके तमाम सवाल थे, इससे क्षण भर को यह भी लगा- कहीं नाम बहुत अपरिचित और अंजान होने, बेव पोर्टल के महत्व को उस तरह नहीं समझ पाने के कारण, उन्होंने जानबूझकर तो यह बातचीत नहीं टाल दी?’
मैंने खुद को समझाया -: नहीं ऐसा नहीं हुआ होगा…’
उस दिन उस टेलीफोनिक बातचीत के समाप्त होने पर उन्होंने कहाँ था – ‘तुम फिर से आना, मेरी तबीयत ठीक होने पर… सिर्फ मुझसे मिलने के लिए। तुम मुझसे मिलने बिना किसी प्रयोजन भी आ सकती हो। कहकर हंस दी थी वो, वही निश्छल हंसी।
लेकिन यह ’फिर’ फिर कभी संभव नहीं हो सका था ….