श्रीनगरः जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई 1931 के 'शहीदों' को लेकर राजनीतिक टकराव एक बार फिर सुर्खियों में है। तमाम पाबंदियों और नजरबंदी के बावजूद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सोमवार को 'शहीदों' की मजार तक पहुंचकर न सिर्फ श्रद्धांजलि दी, बल्कि प्रशासन द्वारा रोके जाने के खिलाफ प्रतीकात्मक विरोध भी दर्ज कराया। बैरिकेड लांघते हुए उन्होंने फातिहा पढ़ी। यह घटनाक्रम तब हुआ जब प्रशासन द्वारा इस दिन सभी आयोजनों की अनुमति निरस्त कर दी गई थी और नेताओं को नजरबंद कर रखा गया था।
उमर अब्दुल्ला रविवार को ही पश्चिम बंगाल से लौटे थे और उन्हें उनके गुपकार आवास पर नजरबंद कर दिया गया था। सोमवार को वह बिना पूर्व सूचना के अपने काफिले के साथ पुराने शहर स्थित नक्शबंद दरगाह पहुंचे, लेकिन वहां बैरिकेड और पुलिस बल की तैनाती मिली। हालांकि उमर अब्दुल्ला रुके नहीं। उन्होंने बैरिकेड फांदकर अंदर प्रवेश किया और 13 जुलाई 1931 को डोगरा शासन की गोलीबारी में मारे गए 22 लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने कब्रों पर फूल चढ़ाए और फातिहा पढ़ी।
उमर अब्दुल्ला ने इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर साझा करते हुए लिखा, मुझसे जो धक्का-मुक्की की गई, वह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शर्मनाक है। लेकिन मैं आसान परिस्थितियों का आदमी नहीं हूं। मैं कोई गैरकानूनी या अवैध काम नहीं कर रहा था। उल्टे, ये ‘कानून के रखवाले’ खुद बताएं कि किस कानून के तहत वे हमें फातिहा पढ़ने से रोकने की कोशिश कर रहे थे।”
उमर ने एक अन्य पोस्ट में लिखा, "मैंने 13 जुलाई 1931 के शहीदों की कब्रों पर फातिहा पढ़ी और श्रद्धांजलि अर्पित की। अनिर्वाचित सरकार ने मेरा रास्ता रोकने की कोशिश की, जिससे मुझे नवहट्टा चौक से पैदल चलकर आना पड़ा। नक्शबंद साहब की दरगाह का गेट बंद कर दिया गया, जिसके चलते मुझे दीवार फांदनी पड़ी। पुलिस ने मुझे शारीरिक रूप से रोकने की कोशिश की, लेकिन मैं आज किसी भी कीमत पर रुकने वाला नहीं था।
This is the physical grappling I was subjected to but I am made of sterner stuff & was not to be stopped. I was doing nothing unlawful or illegal. In fact these “protectors of the law” need to explain under what law they were trying to stop us from offering Fatiha pic.twitter.com/8Fj1BKNixQ
— Omar Abdullah (@OmarAbdullah) July 14, 2025
हम किसी के गुलाम नहींः उमर अब्दुल्ला
पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने आरोप लगाया कि "हम पर रोक उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के 'स्पष्ट निर्देशों' पर लगाई गई। लेकिन हम किसी के गुलाम नहीं हैं, केवल जनता के।"
उमर ने यह भी बताया कि रविवार को जब उन्होंने मजार जाने की सूचना नियंत्रण कक्ष को दी, तो कुछ ही मिनटों में उनके घर के बाहर कंटीले तार बिछा दिए गए। उन्होंने कहा, "सोमवार को मैंने किसी को नहीं बताया और फिर भी पुलिस ने हमें रोकने की कोशिश की। लेकिन हम रुके नहीं।"
उनके साथ उपमुख्यमंत्री सुरिंदर चौधरी, सलाहकार नासिर असलम वानी, शिक्षा मंत्री सकीना इत्तू और अन्य एनसी नेता भी मौजूद थे। खास बात यह रही कि जब सकीना इत्तू को मजार तक जाने की अनुमति नहीं दी गई, तो वह एक स्कूटर के पीछे बैठकर वहां पहुंचीं।
उमर ने एलजी प्रशासन पर निशाना साधते हुए कहा, "जो कहते हैं कि उनकी जिम्मेदारी केवल सुरक्षा और कानून व्यवस्था है, उन्हीं के निर्देशों पर हमें श्रद्धांजलि देने से रोका गया। उन्हें लगता है कि 13 जुलाई के शहीदों की कब्रें सिर्फ इसी दिन होती हैं। लेकिन हम जब चाहें उन्हें याद करेंगे।"
ममता बनर्जी ने घटना की निंदा की
ममता बनर्जी ने प्रतिक्रिया दी,शहीदों के कब्रिस्तान पर जाना गलत कैसे हो सकता है? यह केवल दुर्भाग्यपूर्ण नहीं, बल्कि नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है। एक निर्वाचित मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के साथ आज सुबह जो कुछ हुआ, वह निंदनीय है। यह स्तब्ध कर देने वाला और शर्मनाक है।"
What is wrong in visiting the graveyard of martyrs? This is not only unfortunate, it also snatches the democratic right of a citizen. What happened this morning to an elected Chief Minister @OmarAbdullah is unacceptable. Shocking. Shameful.
— Mamata Banerjee (@MamataOfficial) July 14, 2025
'शहीद दिवस' को लेकर विवाद क्यों?
'शहीद दिवस', जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक संवेदनशील और महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। यह दिन हर साल 13 जुलाई को मनाया जाता है, विशेषकर कश्मीरी मुसलमानों द्वारा, ताकि 1931 में श्रीनगर सेंट्रल जेल के बाहर गोलीबारी में मारे गए 22 कश्मीरियों को श्रद्धांजलि दी जा सके। यह घटना उस समय हुई जब डोगरा महाराजा हरि सिंह के शासन में एक राजनीतिक कार्यकर्ता अब्दुल कादिर के समर्थन में जुटी भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया गया।
उस समय जम्मू-कश्मीर रियासत पर महाराजा हरि सिंह का डोगरा शासन था। राज्य में मुस्लिम बहुसंख्यक थे, लेकिन उन पर शासन की नीतियाँ दमनकारी मानी जाती थीं। धार्मिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी और नागरिक अधिकारों पर प्रतिबंध जैसी शिकायतें आम थीं। इन्हीं पाबंदियों के खिलाफ अब्दुल कादिर नामक युवक ने एक जोरदार भाषण दिया, जिसके बाद उसे राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
13 जुलाई 1931 को अब्दुल कादिर के मुकदमे की सुनवाई श्रीनगर सेंट्रल जेल में होनी थी। इस दौरान हजारों की संख्या में कश्मीरी लोग जेल के बाहर एकत्र हुए। जब भीड़ ने भीतर घुसने का प्रयास किया, तो डोगरा प्रशासन ने गोली चलवा दी, जिसमें कम से कम 22 लोगों की मौत हो गई। तब से इन मृतकों को ‘कश्मीर के शहीद’ के रूप में याद किया जाता है और 13 जुलाई को ‘शहीद दिवस’ के तौर पर मनाने की परंपरा शुरू हुई।
नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) और अन्य कश्मीरी दल इस दिन को ‘शहीद दिवस’ के रूप में मनाते रहे हैं, और हर साल श्रीनगर के नक्शबंद साहब कब्रिस्तान में उन शहीदों की कब्रों पर जाकर फातिहा पढ़ते रहे हैं।
हालांकि 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटे जाने के बाद केंद्र सरकार ने 13 जुलाई को राजकीय अवकाश की सूची से हटा दिया। इसके साथ ही 5 दिसंबर, यानी शेख अब्दुल्ला का जन्मदिन, भी छुट्टी की सूची से हटा दिया गया। इस फैसले के खिलाफ नेशनल कॉन्फ्रेंस समेत कई कश्मीरी पार्टियों ने विरोध दर्ज कराया।