बोलते बंगले: जवाहरलाल नेहरू का दिल्ली में उस पहले घर से तीन मूर्ति भवन तक का सफर

आजादी के आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू का जब भी दिल्ली में आना-जाना होता, तो वे यहां पर अपने मित्रों के घर में ही ठहरते। अंतरिम सरकार के गठन के बाद उन्हें दिल्ली के 17 यार्क रोड ( अब मोती लाल नेहरु मार्ग) में बंगला अलॉट हुआ था।

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बोलते बंगले: जवाहरलाल नेहरू का दिल्ली में उस पहले घर से तीन मूर्ति भवन तक का सफर

बोलते बंगले: जवाहरलाल नेहरू का दिल्ली में उस पहले घर से तीन मूर्ति भवन तक का सफर। फोटोः सोशल मीडिया

पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरपरस्ती में देश में 2 सितंबर,1946 को अंतरिम सरकार का गठन हुआ था। तब नेहरू जी को राजधानी के 17 यार्क रोड ( अब मोती लाल नेहरु मार्ग) में बंगला अलॉट हुआ था। यह कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी के 10 जनपथ वाले बंगले के करीब ही है। इससे पहले आजादी के आंदोलन के दौरान नेहरू जी का जब भी दिल्ली में आना-जाना होता, तो वे यहां पर अपने मित्रों के घर में ही ठहरते। उनका अपना निजी आवास तो प्रयाग में ही था।

14-15 अगस्त, 1947 की वो रात

नेहरू जी इसी यार्क रोड के अपने बंगले से 14-15 अगस्त, 1947 की रात को काउंसिल हाउस (अब संसद भवन) में हुए गरिमामय कार्यक्रम में भाग लेने के लिए गए थे। दरअसल उस दिन नेहरू जी ने स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी।

इस अवसर पर उन्होंने अपना यादगार भाषण दिया था, जिसे ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ के नाम से याद किया जाता है। यह भाषण बीसवीं शताब्दी के महानतम भाषणों में से एक है। देश आजाद हुआ तो नेहरू जी यहां से ही लाल किला गए थे देश को पहली बार 16 अगस्त 1947 को संबोधित करने और तिरंगा फहराने के लिए।

साधुओं के साथ नेहरू

‘फ्रीडम एट मिड नाइट’ में लैरी कोलिंस तथा डोमिनिको लॉपियर लिखते हैं- “देश के स्वंतत्र होने की खुशी को दिल्ली के चप्पे-चप्पे में महसूस किया जा सकता था। सड़कों पर साधू और सन्यासी भी प्रकट हो गए थे। नई दिल्ली में जगह-जगह पर शहनाई वादक शहनाई बजाने लगे थे। 14 अगस्त, 1947 को नेहरू जी के घर में कुछ साधू पहुंच गए। वे नेहरू जी से मिले। उन्होंने उन पर पवित्र गंगा जल छिड़का, माथे पर भभूत लगाई और हाथ में मौली बांधी। धार्मिक आडंबरों से दूर रहने वाले वाले नेहरू जी ने यह सब कुछ प्रेम से करवाया।”

सबके लिए खुला था 17 यार्क रोड

पंडित नेहरू के 17 यार्क रोड के बंगले के बाहर किसी तरह का कोई पुलिस वाला खड़ा नहीं होता था। कोई भी शख्स उनके बंगले के गेस्ट रूम तक जा सकता था। आज के दौर में तो इसकी कल्पना करना भी असंभव है। अंतरिम सरकार का मुखिया बनने के बाद उनके यार्क रोड के बंगले में भी कभी-कभी कैबिनेट की बैठकें होने लगीं।

हां, दिल्ली में 1947 में जब सांप्रदायिक दंगे भड़के तो उनके निजी सचिव एम.मथाई ने बंगले के बाहर कुछ पुलिसकर्मी खड़े करवा दिए थे। उन्होंने अपना एक तंबू बंगले के भीतर बना लिया। उसी दिन जब नेहरू जी शाम को घर लौटे तो उस तंबू को देखकर मथाई से सारी बात पूछी।

मथाई के जवाब से असंतुष्ट नेहरू जी ने उन्हें निर्देश दिए कि उनके घर से पुलिसवालों को चलता कर दिया जाए। उसके बाद मथाई ने उन पुलिसकर्मियों को बंगले की पिछली तरफ तैनात करवा दिया।

लेडी माउंटबैटन के साथ नेहरू

वरिष्ठ पत्रकार और नेहरू जी के सचिव रहे सोमनाथ धर ने अपनी किताब ‘MY DAYS WITH NEHRU ’ में लिखा है, "एक बार मैंने देखा था कि नेहरू जी 17 यार्क रोड बंगले के विशाल बगीचे के एक कोने में एक बड़े से पेड़ के नीच लेडी माउंटबैटन के साथ गप कर रहे थे।"

यह बात देश की आजादी से पहल की ही होगी। कहा जाता है कि लेडी माउंटबैटन 17 यार्क रोड के बंगले में नियमित रूप से आती थीं। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अपनी आत्मकथा One Life is not Eenough में लिखा है कि नेहरू जी एडविना के निधन के बाद संसद में एक शोक प्रस्ताव पढ़ा था। एडविना का 21 फरवरी, 1960 को निधन हो गया था।

किन कश्मीरियों के साथ नेहरू जी

नेहरू जी से 17 यार्क रोड के बंगले में राजधानी में दशकों पहले से बसे हुए कश्मीरी भी मुलाकात करने के लिए आते थे। उर्दू के लेखक और दिल्ली की पुरानी कश्मीरी बिरादरी के अहम मेंबर गुलजार देहलवी बताते थे कि एक बार कश्मीरी बिरादरी ने नेहरू जी को भोज के लिए आमंत्रित किया। वो उस भोज में शामिल भी हुए।

उस भोज का आयोजन दिल्ली के प्रमुख कश्मीरी काशी नाथ बमजई की पहल पर हुआ था। बमजई पत्रकार थे। इसमें कश्मीरी हिन्दू और मुसलमान शामिल हुए थे। उस भोज में सीताराम बाजार में गली कशमीरियान में रहने वाले दर्जनों कश्मीरी परिवार शामिल हुए थे। यह आयोजन भी नेहरू जी के घर में ही हुआ था। देहलवी साहब का कुछ साल पहल निधन हो गया था।

राजधानी में 19वीं सदी के मध्य में कश्मीर से काफी तादाद में कश्मीरी पंडितों के परिवार आकर बस गए थे। तब उत्तर प्रदेश के दो शहरों क्रमश: प्रयाग और आगरा में भी बहुत से कश्मीरी पंडितों के परिवार बसे थे। इनके कुल नाम हक्सर ,कुंजरू, कौल, टिक्कू वगैरह थे। कमला जी का भी परिवार उसी दौर में इधर दिल्ली में बसा था। यहां पर आए तो इधर ही होकर बस गए। कश्मीरी जुबान तक कहीं पीछे छूट गई। उसकी जगह हिन्दुस्तानी ने ले ली।

नेहरू जी की ससुराल

नेहरू जी से जुड़ा पुरानी दिल्ली का एक घर गुमनामी में ही रहा। कायदे से देखा जाए तो इसकी भी कम अहमियत नहीं है नेहरू-गांधी परिवार के लिए। नेहरू जी इधर ही कमला जी से शादी करने बैंड, बाजा, बारात के साथ 8 फरवरी 1916 को आए थे। ये घर सीताराम बाजार में है।

पंडित नेहर इधर शादी के बाद कभी नहीं आए, पर इंदिरा गांधी तो अपनी मां के घर से अपने को भावनात्मक स्तर पर जुड़ा हुआ महसूस करती थीं। जाहिर है कि दिल्ली-6 का यह घर उनकी मां कमला नेहरू का था। इधर ही उनकी मां पली-बढ़ीं और फिर नेहरू जी की पत्नी बनकर प्रयाग के भव्य-विशाल आनंद भवन में गईं।

कभी नहीं आए राहुल-प्रियंका

अगर श्रीमती इंदिरा गांधी को छोड़ दिया जाए तो माना जा सकता है कि परिवार के अन्य सदस्यों का इसको लेकर रवैया बेरुखी भरा ही रहा। शायद ही इसमें कभी इधर राजीव गांधी या संजय गांधी आए हों। राहुल गांधी, प्रिंयका गांधी और वरुण गांधी की तो बात ही मत कीजिए।

publive-image दिल्ली-6 की हवेली

अब गांधी-नेहरू परिवार से जुड़ा ये घर जर्जर हो चुका है। कमला जी का परिवार दिल्ली की कश्मीरी पंडित बिरादरी में नामचीन था। कमला जी ने जामा मस्जिद के करीब स्थित इंद्रप्रस्थ हिन्दू कन्या स्कूल से शिक्षा ग्रहण की थी। ये स्कूल अब भी चल रहा है। इसे आप दिल्ली का पहला लड़कियों का स्कूल मान सकते हैं।

जब बिक गया इंदिरा गांधी का ननिहाल वाला घर

इंदिरा जी के ननिहाल वालों ने अपने घर को 1960 के दशक में बेच दिया। बस, तब ही से इसके बुरे दिन शुरू हो गए। फिर इसे देखने वाला कोई नहीं रहा। इसका मालिकाना हक किसके पास है, यह भी किसी को नहीं पता।

और अब तो नेहरू जी के ससुराल का रास्ता बताने वाला भी आपको दिल्ली-6 में मुश्किल से ही कोई मिलेगा। हां, कुछ बड़े-बुजुर्गों की ख्वाहिश है कि गांधी-नेहरू परिवार से जुड़े इस घर को स्मारक का दर्जा मिल जाए। इधर एक पुस्तकालय बन जाएं जहां पर आकर लोग पढ.सकें।

दिल्ली-6 के सोशल वर्कर आशीष वर्मा आशु बताते हैं कि इंदिरा जी दिल्ली-6 में होने वाली चुनावी सभाओं में यह भी बताना नहीं भूलती थीं कि उनकी ननिहाल सीताराम बाजार में ही थी। वे साल 1980 में फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी मां के घर आईं थीं। उनके साथ उनके सचिव आर.के. धवन और दिल्ली के उस दौर के शिखर नेता हरिकिशन लाल भगत भी थे।

जाहिर तौर पर उनके अपने घर आने के खबर से वहां पर भारी भीड़ एकत्र हो गई थीं। करीब 30-40 मिनट वो अपनी मां के घर ठहरीं थीं। घर के एक-एक हिस्से को उन्होंने करीब से देखा।

इंदिरा की शादी में दिल्ली के पंडित जी

नेहरू जी के लिये माना जाता है कि वे कतई कर्मकांडी हिन्दू नहीं थे। वे लगभग नास्तिक थे। साथ ही ये भी उतना ही बड़ा सच है कि वे अपनी सनातनी परंपराओं से बंधे हुए थे। वे साधुओं से मिलते थे, कुंभ में स्नान के लिए भी जाते थे और उन्होंने अपनी पुत्री के विवाह में एक प्रकांड विद्वान को दिल्ली से बुलवाया।

उनकी पुत्री इंदिरा का 25 मार्च 1942 को प्रयाग में फिरोज गांधी से विवाह हुआ। विवाह की सारी रस्में पंडित लक्ष्मी धर शास्त्री की देखरेख में वैदिक रीति रिवाज के अनुसार नेहरू परिवार के निजी आवास आनंद भवन में सम्पन्न हुईं। शास्त्री जी को दिल्ली से बुलवाया गया था ताकि वे विवाह से जुड़ी रस्में सम्पन्न करवाएं।

publive-image इंदिरा गांधी की शादी की तस्वीर

Feroze The Forgotten Gandhi में बर्टिल फाल्क (Bertil Falk) ने लिखा है कि फिरोज गांधी तथा इंदिरा जी के विवाह को सम्पन्न करवाने के लिए दिल्ली विश्व विश्वविद्लाय के संस्कृत प्रोफेसर पंडित लक्ष्मीधर शास्त्री दिल्ली से खासतौर पर पहुंचे थे। विवाह समारोह में कांग्रेस के सभी नेता उपस्थित थे।

दरअसल दिल्ली के कश्मीरी समाज तथा दिल्ली विश्व विश्वविद्लाय के लिए पंडित लक्ष्मी धर शास्त्री का नाम किसी पुराण पुरुष से कम नहीं रहा है। वे सेंट स्टीफंस कॉलेज के छात्र रहे और फिर यहां ही उन्होंने संस्कृत पढ़ाई भी।

दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को जो डिग्री मिलती है, उस पर ‘निष्ठा धृति: सत्यम्’ भी लिखा होता है। यह दिल्ली विश्वविद्लाय का ध्येय वाक्य है। यह ध्येय वाक्य पंडित लक्ष्मी धर शास्त्री की सलाह पर दिल्ली विश्वविद्लाय ने स्वीकार किया था। वे संस्कृत, कश्मीरी, फारसी, हिन्दी, उर्दू के प्रकांड विद्वान थे। इसके अलावा वे अंग्रेजी, जर्मन आदि भाषाओं को भी जानते थे।

बहरहाल, नेहरू जी तीन मूर्ति भवन सितंबर, 1947 में शिफ्ट हुए थे। फिर पंडित जी 27 मई 1964 तक यहां ही रहे।

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