नई दिल्लीः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए सरकार अपने मौजूदा कार्यकाल के दौरान ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ यानी ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की नीति को लागू करने की योजना बना रही है। एक वरिष्ठ सरकारी सूत्र ने बताया कि सरकार को भरोसा है कि उसे अपने सहयोगी दलों का पूर्ण समर्थन मिलेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में बहुमत के साथ बीजेपी को सत्ता में लाने के बाद से ही “एक राष्ट्र, एक चुनाव” की वकालत की है—जिसमें लोकसभा, सभी राज्य विधानसभाओं, शहरी और ग्रामीण निकायों (नगरपालिकाओं और पंचायतों) के चुनाव एक साथ कराए जाएंगे।
हाल ही में स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में भी प्रधानमंत्री मोदी ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा कि बार-बार चुनाव होने से देश की प्रगति में बाधा आ रही है। इस साल मार्च में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय समिति ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश की थी, जिसके बाद अगले 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय चुनावों को भी समायोजित करने की बात कही गई थी।
इसके लिए संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होगी। हालांकि, पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए राज्यों की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी, बशर्ते संसद इसे मंजूरी दे दे। दूसरे चरण में नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों को लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथ इस तरह समायोजित किया जाएगा कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय चुनाव संपन्न हो सकें। इस प्रक्रिया के लिए आधे से अधिक राज्यों की मंजूरी आवश्यक होगी।
एक राष्ट्र एक चुनाव के विचार को लागू करना क्या वाकई सरकार के लिए आसान है?
लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या वाकई सरकार इस विचार को अमली जामा पहना पाएगी। क्योंकि लोकसभा में बीजेपी के पास बहुतम नहीं है। उसके पास सिर्फ 240 सीट ही है और हाल में वक्फ संसोधन विधेयक, लैटरल एंट्री और ब्रॉडकास्ट बिल वाले पर सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े क्योंकि सहयोगी दल भी साथ नहीं दिए थे।
बीजेपी जिसने लोकसभा में 240 सीटें जीतीं, अपने सहयोगियों- तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी), जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) पर अपनी बहुमत के लिए निर्भर है। इन सहयोगियों की “एक राष्ट्र, एक चुनाव” योजना को लेकर समर्थन पर सवाल उठाए जा रहे हैं, लेकिन बीजेपी नेताओं का कहना है कि सभी सहयोगी इस सुधार प्रक्रिया के समर्थन में हैं और गणितीय समीकरण इस प्रक्रिया में रुकावट नहीं बनेगा।
अगस्त में केंद्र सरकार को 45 प्रमुख सरकारी पदों पर लेटरल एंट्री के लिए विज्ञापन को वापस लेना पड़ा, जब इसके सहयोगी दल जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने इस पर चिंता जताई। इससे पहले, कुछ सहयोगियों जैसे जद (यू), लोजपा और टीडीपी द्वारा वक्फ (संशोधन) विधेयक में प्रस्तावित बड़े बदलावों को लेकर संदेह व्यक्त करने के बाद, सरकार ने इसे संसद की संयुक्त समिति के पास भेज दिया।
पिछले दो कार्यकालों में मोदी सरकार ने जिस तरह से विधेयकों को अचानक पेश कर और विपक्ष के विरोध के बावजूद संसद से जल्द पारित करवाया, उसके मुकाबले यह एक अलग परिदृश्य है। लेकिन अब 2024 के आम चुनाव के बाद एनडीए के प्रमुख सदस्यों की भूमिका बढ़ गई है और वे अधिक प्रभावशाली हो गए हैं। विपक्ष के पास भी संसद में 10 साल बाद नेता की भूमिका है और बीजेपी के प्रमुख सहयोगियों ने विपक्ष की चिंताओं से कई बार सहमति जताई है।
मसलन वक्फ (संशोधन) विधेयक को लेकर बीजेपी के सहयोगियों शिवसेना (शिंदे) और जदयू ने इसका समर्थन किया, लेकिन टीडीपी और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने व्यापक परामर्श की मांग की। इसके अलावा, मुसलमान सांसदों, कार्यकर्ताओं और कानूनी विशेषज्ञों ने भी इस विधेयक की आलोचना की, जिसके चलते संसद में विधेयक को लेकर तीखी बहस हुई। अंततः सरकार ने इसे राज्यसभा से वापस ले लिया और यह विधेयक संसद की 31 सदस्यीय संयुक्त समिति को भेज दिया गया।
इसी तरह, 12 अगस्त को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने प्रसारण सेवाओं (विनियमन) विधेयक, 2024 के मसौदे को मीडिया संगठनों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों द्वारा आलोचना के बाद वापस ले लिया। शिकायत थी कि यह विधेयक सेंसरशिप को बढ़ावा देगा और स्वतंत्रता पर खतरा पैदा करेगा।
एक राष्ट्र एक चुनाव के पक्ष में सरकार की क्या दलील है?
‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ भाजपा के लोकसभा चुनाव घोषणापत्र में प्रमुख वादों में से एक रहा है। 15 अगस्त को भी लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी ने वन नेशन वन इलेक्शन के मुद्दे पर सभी राजनीतिक दलों को एक साथ आने का अनुरोध किया था। वहीं लोकसभा चुनाव से पहले एक इंटरव्यू में पीएम मोदी ने इस विचार पर जोर देते हुए कहा था कि ‘सरकारों के पूरे पांच साल के कार्यकाल के दौरान चुनाव ही नहीं होते रहने चाहिए। चुनाव सिर्फ तीन या चार महीने के लिए होने चाहिए। पूरे पांच साल राजनीति नहीं होनी चाहिए। इससे चुनावों का प्रबंधन करने वाले खर्च में कटौती होगी।’
भाजपा नेता अर्जुन राम मेघवाल ने भी सरकार के तर्क को रेखांकित किया करते हुए संसद को बताया था कि एक साथ चुनाव होने से खर्चों में कटौती होगी। क्योंकि इससे हर साल कई बार चुनाव अधिकारियों और सुरक्षा बलों की तैनाती कम हो जाती है और सरकारी खजाने और राजनीतिक दलों द्वारा अपने अभियानों पर किए जाने वाले खर्च में कमी आती है।
उन्होंने यह भी बताया था कि अतुल्यकालिक चुनावों का मतलब है कि आचार संहिता अक्सर लागू रहती है जो कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को प्रभावित करती है, चाहे वह केंद्र द्वारा हो या राज्य द्वारा। वहीं सरकार को यह भी उम्मीद है कि एक बार के चुनाव से मतदाता मतदान में सुधार होगा, जो वर्तमान में राज्य दर राज्य और यहां तक कि आम चुनाव के लिए भी काफी अलग होता है।
वन नेशन-वन इलेक्शन के विरोध के पीछे की क्या है दलील?
कई राजनीतिक दल इस विचार के खिलाफ हैं, क्योंकि वे इसे संघीय ढांचे के खिलाफ मानते हैं। उनका तर्क है कि यह केंद्र सरकार को अधिक ताकत देगा और राज्य सरकारों की स्वायत्तता को कम करेगा। इसके अलावा, क्षेत्रीय पार्टियों का मानना है कि एक साथ चुनाव होने पर राष्ट्रीय मुद्दे अधिक ध्यान में रहेंगे, जिससे उनके स्थानीय मुद्दे और अभियान कमजोर हो सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस विचार का विरोध करने वालों की दलील है कि ये अलोकतांत्रिक, संघीय ढांचे के विपरीत और क्षेत्रीय दलों को अलग-अलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा।
एक साथ चार बार हो चुके हैं लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव
गौरतलब है कि देश में चार बार एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हो चुके हैं। 1952, 1957, 1962 और 1967 में। एक देश-एक चुनाव की सिफारिश 1990 में विधि आयोग ने की थी।
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति की रिपोर्ट में क्या कहा गया?
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को मार्च में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। समिति ने कई विशेषज्ञों, राजनीतिक दलों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद अपनी सिफारिशें तैयार की हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 191 दिनों में तैयार की गई इस विस्तृत रिपोर्ट में 18,626 पन्नों पर विस्तार से जानकारी दी गई है। 47 राजनीतिक दलों ने समिति के साथ अपने विचार साझा किए, जिनमें से 32 दलों ने ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का समर्थन किया।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि साथ-साथ चुनाव कराने से संसाधनों की बचत होगी, समाज में सामंजस्य बना रहेगा और आर्थिक विकास को गति मिलेगी। हालांकि, इस प्रस्ताव के आलोचक इसे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन और अलोकतांत्रिक मानते हैं। उनका तर्क है कि यह संघीय ढांचे के खिलाफ है, जिससे क्षेत्रीय दल कमजोर होंगे और राष्ट्रीय दलों का प्रभुत्व बढ़ेगा। कुछ का मानना है कि यह राष्ट्रपति शासन की स्थिति को जन्म दे सकता है।
इस समिति में गृह मंत्री अमित शाह, वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे और चीफ विजिलेंस कमिश्नर संजय कोठारी जैसे प्रमुख सदस्य शामिल थे।
यह पैनल सितंबर में गठित किया गया था और तब से इसने 7 देशों की चुनावी प्रक्रिया पर रिसर्च किया। साथ ही 39 राजनीतिक दलों, अर्थशास्त्रियों और भारत निर्वाचन आयोग से परामर्श लिया। समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस विचार का समर्थन किया है, लेकिन कहा कि इसके लिए एक कानूनी रूप से टिकाऊ तंत्र की आवश्यकता होगी, जो मौजूदा चुनाव चक्रों को समायोजित कर सके।
रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के तहत चुनावों का एक साथ आयोजन एक कानूनी और संवैधानिक ढांचा तैयार करके किया जा सकता है, जिससे चुनाव प्रक्रिया अधिक सुव्यवस्थित हो सकेगी।
समिति की मुख्य सिफारिशें-
समिति ने रिपोर्ट में कहा है कि चुनाव दो चरणों में कराए जाएं। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव पहले चरण में कराए जाएंए। इसके 100 दिनों के भीतर नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव दूसरे चरण में हों।
इस प्रक्रिया के लिए एक एकल मतदाता सूची और एक मतदाता फोटो पहचान पत्र की व्यवस्था की जाए। संविधान में आवश्यक संशोधन किए जाएंगे और चुनाव आयोग की सलाह से इसे तैयार किया जाए।
समिति की सिफारिशों के अनुसार, यदि कोई त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति उत्पन्न होती है, तो नए सदन के गठन के लिए फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं। इस स्थिति में नए लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल पहले की शेष अवधि तक होगा और बाद में सदन को भंग माना जाएगा। इस प्रकार के चुनावों को ‘मध्यावधि चुनाव’ कहा जाएगा, जबकि पांच साल के कार्यकाल के समाप्ति के बाद होने वाले चुनाव ‘आम चुनाव’ होंगे।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के सामने चुनौतियाँ
सरकार की गतिविधियों को कम से कम बाधित करते हुए चुनाव चक्रों को मिलाना (और सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त करना) एक बड़ी चुनौती है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि अगर चुनावों के बीच में सदन भंग हो जाता है, राष्ट्रपति शासन लागू होता है, या विधानसभा या संसद में बहुमत न हो, तो इससे कैसे निपटा जाएगा।
क्षेत्रीय दलों ने यह भी चिंता व्यक्त की है कि उनके पास सीमित संसाधन हैं, जिससे वे स्थानीय मुद्दों पर उतनी प्रभावी ढंग से ध्यान केंद्रित नहीं कर पाएंगे जितना वे लोकसभा चुनावों में बड़े दलों की तुलना में कर सकते हैं, जिनके पास बेहतर वित्तीय समर्थन होता है। एक और चिंता ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों) की बार-बार खरीद के खर्च की है। चुनाव आयोग के अनुसार, हर 15 साल में लगभग ₹10,000 करोड़ की लागत आएगी।
जनता की राय क्या है?
पीटीआई के अनुसार, जनवरी में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पैनल को जनता से लगभग 21,000 सुझाव प्राप्त हुए थे, जिनमें से 81 प्रतिशत से अधिक लोगों ने इस विचार का समर्थन किया था।