नई दिल्ली: पहलगाम में पर्यटकों पर हुए आतंकी हमले (Pahalgam Terror Attack) की घटना के बाद भारत ने बड़ा कदम उठाते हुए सिंधु जल संधि (IWT) को तत्काल प्रभाव से रोकने का फैसला किया है। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में मंगलवार को हुई घटना में 26 लोगों की हत्या आतंकवादियों ने कर दी थी। इसी घटना के एक दिन बाद बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सीसीएस) की बैठक हुई, इसमें पाकिस्तान के खिलाफ कई कदम उठाने संबंधि फैसले लिए गए।
इन्हीं फैसलों में से एक सिंधु जल संधि को निलंबित करने का भी था। बैठक में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हिस्सा लिया।
बुधवार रात बैठक के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत के फैसलों की घोषणा करते हुए विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने कहा, '1960 की सिंधु जल संधि तत्काल प्रभाव से स्थगित रहेगी, जब तक कि पाकिस्तान विश्वसनीय रूप से सीमा पार आतंकवाद के लिए अपने समर्थन को नहीं रोकता।'
क्या है सिंधु जल संधि?
सिंधु और उसकी सहायक नदियों के पानी के बंटवारे को सुनिश्चित करने के लिए करीब 9 साल की बातचीत के बाद 19 सितंबर, 1960 को भारत और पाकिस्तान ने सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस संधि में विश्व बैंक की भी अहम रूप से भूमिका रही थी। इस समझौते पर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने कराची में हस्ताक्षर किए थे।
इस संधि में 12 अनुच्छेद और 8 अनुलग्नक (A से H तक) शामिल हैं। 1960 में हुए सिंधु जल संधि के तहत सूबे में पूर्वी नदी कही जाने वाली सतलज, ब्यास और रावी को पूरी तरह से भारत के उपयोग के लिए दी गई थीं। भारत इसके पानी का इस्तेमाल बिना किसी प्रतिबंध या रूकावट के अपने हिसाब से कर सकता है।
वहीं, पश्चिमी नदियां चिनाब, झेलम और सिंधु को पाकिस्तान को दी गई। हालांकि, भारत के पास पाकिस्तान को मिली पश्चिमी नदियों पर भी रन ऑफ रिवर (RoR) हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स लगाने का अधिकार है क्योंकि ये नदियां भारत से ही होकर पाकिस्तान की ओर बहती है। रन ऑफ रिवर का मतलब है कि भारत हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स के लिए पानी को अत्यधिक मात्रा में नहीं रोक सकता।
हालांकि, इस संधि में भारत को सिंधु नदी सिस्टम का 30 प्रतिशत पानी ही मिलता है जबकि पाकिस्तान को 70 प्रतिशत तक पानी मिलता है। इसकी अहम वजह ये है कि भारत को जिन पूर्वी नदियों का कंट्रोल मिला, उसका प्रवाह कम रहता है।
यह संधि अब तक दोनों देशों के बीच किसी भी हालात में जारी रही है, और यह संभवतः पहली बार है कि दोनों में से किसी ने इसे निलंबित करने का प्रस्ताव रखा है। असल में 2016 में हुए उरी हमले के बाद भी इसे रद्द करने की मांग भारत में उठी थी। उस हमले में भारत के 18 जवान मारे गए थे।
पिछले दो वर्षों में सिंधु जल संधि कई बार चर्चा में आता रहा है। भारत ने जनवरी 2023 में इस्लामाबाद को एक नोटिस जारी कर सिंधु जल संधि में 'संशोधन' की मांग की थी। इसके बाद सितंबर में एक और औपचारिक नोटिस जारी कर इसकी 'समीक्षा और संशोधन' की मांग भारत की ओर से रखी गई। भारत की इन मांगों के पीछे की अहम वजह यही रही है कि संधि की आड़ लेकर पाकिस्तान कई बार भारत द्वारा इस क्षेत्र में लगाई जाने वाली हाइड्रोपावर परियोजनाओं पर अड़ंगा लगाता रहता है। इसकी वजह से समय की बर्बादी होती रही और परियोजनाओं में भी देरी हुई है। हालांकि, सभी तरह के तनाव के माहौल के बीच ये संधि अब तक चलती रही थी।
अगर भारत संधि से निकल जाए तो पाकिस्तान क्या करेगा?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार दरअसल सिंधु जल संधि से एकतरफा किसी पक्ष के इससे बाहर निकलने का विकल्प नहीं है। इसका मतलब है कि न तो भारत और न ही पाकिस्तान इसे कानूनी रूप से एकतरफा निरस्त कर सकते हैं। संधि की कोई समाप्ति तिथि भी नहीं है, और किसी भी संशोधन के लिए दोनों पक्षों की सहमति की आवश्यकता भी होती है।
हालाँकि इस संधि में विवाद को सुलझाने के कुछ तरीके दिए गए हैं। इसी संधि के तहत विवादों के निपटारे के लिए तीन अलग-अलग चरण तय किये गये हैं। पहले चरण में भारत और पाकिस्तान के अधिकारी आपसी सहमति से विवाद के निपटारे के लिए बात करते हैं। यहां मामला नहीं सुलझने पर न्यूट्रल एक्सपर्ट के पास जाने का विकल्प है। न्यूट्रल एक्सपर्ट को विश्व बैंक नियुक्त करता है। अगर मामला नहीं सुलझा तब आखिरी चरण में मध्यस्थता न्यायालय या कोर्ट ऑफ अर्बिटरेशन (सीओए) की भूमिका आती है।
हालांकि, 2016 में पाकिस्तान के डॉन अखबार को दिए गए एक इंटरव्यू में पाकिस्तान के पूर्व कानून मंत्री अहमर बिलाल सूफी ने कहा था कि अगर भारत संधि का पालन नहीं करना चाहता है तो मध्यस्थता से कोई खास मदद नहीं मिल सकती है।
सूफी के अनुसार, 'अगर भारत संधि को रद्द कर देता है, तो इसका शाब्दिक अर्थ है कि उसने इसे त्याग दिया है। ऐसे में विवाद के निपटारे के लिए सुझाया गया समाधान तंत्र पाकिस्तान के लिए किसी काम का नहीं होगा और न ही इससे कोई मदद मिलेगी।
भारत के संधि को निलंबित करने के फैसले का क्या असर होगा?
सिंधु जल संधि को निलंबित करने के निर्णय से भारत को सिंधु नदी प्रणाली के पानी का उपयोग करने के तरीके के बारे में अधिक विकल्प मिल जाएंगे। उदाहरण के लिए भारत तत्काल पाकिस्तान के साथ जल प्रवाह डेटा साझा करना बंद कर सकता है। सिंधु और उसकी सहायक नदियों के पानी के उपयोग के लिए भारत पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। साथ ही, भारत अब पश्चिमी नदियों, सिंधु, झेलम और चिनाब के पानी को बड़ी मात्रा में रोक सकता है।
इसके अलावा भारत अब जम्मू और कश्मीर में वर्तमान में निर्माणाधीन दो जलविद्युत परियोजनाओं - झेलम की एक सहायक नदी किशनगंगा पर किशनगंगा एचईपी और चिनाब पर रैटल एचईपी - पर पाकिस्तानी अधिकारियों के दौरे को भी रोक सकता है। इन दोनों परियोजनाओं पर हाल में पाकिस्तान ने सवाल उठाए थे।
वैसे जानकार मानते हैं निलंबन का कम से कम कुछ वर्षों तक पाकिस्तान में पानी के प्रवाह पर तत्काल प्रभाव नहीं पड़ेगा। भारत के पास वर्तमान में पाकिस्तान में पानी के प्रवाह को रोकने या इसे अपने उपयोग के लिए मोड़ने के लिए बुनियादी ढांचा मौजूद नहीं है।
हालांकि, आने वाले दिनों में भारत अगर पाकिस्तान की ओर से जाने वाले पानी की मात्रा कम करने में कामयाब रहा तो इस्लामाद बड़ी मुसीबत में फंस सकता है। दरअसल, पाकिस्तान पानी की आवश्यकताओं के लिए सिंधु नदी प्रणाली पर बहुत अधिक निर्भर है। संधि के निलंबन से जल प्रवाह बाधित हो सकता है, जिससे पानी की व्यापक कमी हो सकती है।
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ एक तरह से कृषि है। गेहूं, चावल और कपास जैसी प्रमुख फसलों को काफी सिंचाई की आवश्यकता होती है। पानी की कमी से फसलें खराब हो सकती हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा और आजीविका को खतरा हो सकता है।
खेती पाकिस्तान के जीडीपी में लगभग 20% से ज्यादा का योगदान देती है और इसके कुल कार्यबल में से लगभग 40% को रोजगार देती है। इस क्षेत्र में दिक्कत आने से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा, जिससे संभावित रूप से बेरोजगारी और गरीबी बढ़ेगी।
इसके अलावा पाकिस्तान के कई बांध, जिनमें तारबेला और मंगला बांध शामिल हैं, वे जलविद्युत उत्पादन के लिए सिंधु नदी के पानी के प्रवाह पर निर्भर हैं। जल प्रवाह में कमी पाकिस्तान के मौजूदा ऊर्जा संकट को बढ़ा सकती है, जिससे बिजली की कमी हो सकती है। इससे भी पाकिस्तान की आर्थिक गतिविधि में बाधा आ सकती है।