नई दिल्ली: भारत अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है। 1947 की उस सुबह जहां ब्रिटिश शासन से आजादी के बाद एक तरफ जश्न का माहौल था वहीं दूसरी ओर भारत ने बंटवारे का दर्द भी झेला। इस बंटवारे के बाद भारत और पाकिस्तान दो देश बने थे।
बंटवारे के बाद दो देश तो बन गए थे लेकिन दोनों देशों के बीच सैन्य, मौद्रिक और सांस्कृतिक संसाधनों सहित संपत्तियों का विभाजन करना सबसे कठिन काम बन गया था। हर चीज का सही से विभाजन हो और किसी किस्म का कोई मतभेद न रहे हैं, इसलिए इसके लिए जरूरी कदम भी उठाए गए थे। ऐसे में आजादी से पहले ही इस विभाजन के लिए 16 जून 1947 को एक समिति का गठन किया गया था जिसका नाम पंजाब विभाजन समिति रखा गया था।
समिति के नाम बदलकर विभाजन परिषद किया गया
इस समिति में कांग्रेस के तरफ से सरदार वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे प्रमुख नेता शामिल हुए थे। जबकि लियाकत अली खान और अब्दुर रब निश्तार ने अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का प्रतिनिधित्व किया था जिसमें मुहम्मद अली जिन्ना भी बाद में शामिल हुए थे। इन नेताओं के शामिल होने के बाद समिति का नाम बदलकर विभाजन परिषद कर दिया गया था। इस विभाजन को पूरा करने के लिए विभाजन परिषद के पास केवल 70 दिन थे और यह एक बहुत बड़ी चुनौती वाला काम था।
कैसे हुआ था सेना का विभाजन
ब्रिटिश भारत के विभाजान के बाद दो नए देश बनने पर सबसे बड़ी समस्या सेना के विभाजन के दौरान सामने आई। विभाजन परिषद ने यह फैसला लिया कि सेना का दो तिहाई बल भारत में रहेगा और बाकी बचे एक-तिहाई बल पाकिस्तान चले जाएंगे।
इस फैसले के आधार पर दो लाख 60 हजार जवान जिसमें अधिकतर हिंदू और सिख थे, भारत में ही रह गए थे। बाकी बचे लगभग एक लाख 40 हजार जवान जिसमें अधिकतर संख्या मुस्लिम जवानों की थी, वे पाकिस्तान चले गए थे। हालांकि इस तरह के विभाजन में काफी समस्या भी हुई थी।
गोरखाओं की ब्रिगेड भारत और ब्रिटेन के बीच विभाजित हुई थी। विभाजन और उसकी निगराने के लिए जनरल सर रॉबर्ट लॉकहार्ट और जनरल सर फ्रैंक मेस्सर्वी जैसे ब्रिटिश अधिकारी भारत में रूक गए थे। दो देश बनने के बाद जनरल सर रॉबर्ट लॉकहार्ट भारत के पहले सेनाध्यक्ष बने थे और जनरल सर फ्रैंक मेस्सर्वी पाकिस्तान के पहले सेनाध्यक्ष के रूप में अपनी कमान संभाली थी।
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ऐसे हुआ था वित्त का विभाजन
सेना की तरह वित्त का भी विभाजन काफी जटिल काम था। विभाजन समझौते के अनुसार, पाकिस्तान को ब्रिटिश भारत की संपत्ति और देनदारियों का 17.5 प्रतिशत मिला था।
इसके साथ परिषद ने यह भी फैसला लिया था कि दोनों देशों को एक ही बैंक सेवा देगी और यह एक साल से भी अधिक समय के लिए होगा लेकिन देनों देशों के बीच बिगड़ते रिश्ते को देखते हुए इस व्यवस्था के समय को कम कर दिया गया था।
बटवारे के बाद भी चलते थे एक ही नोट और सिक्के
सितंबर 1948 तक पाकिस्तान में नए सिक्के और नोट पेश किए जाने से पहले दोनों देशों में पहले से मौजूद सिक्के और मुद्रा का उपयोग करने पर सहमती बनी थी।
हालांकि बंटवारे के पांच साल बाद भी कलकत्ता में पाकिस्तानी सिक्के का चलन था और भारतीय रिजर्व बैंक के “पाकिस्तान सरकार” लिखे हुए नोटों का इस्तेमाल पाकिस्तान में होता था।
दो देश बनने के बाद पाकिस्तान को मिला था इतना पैसा
पाकिस्तान को 15 अगस्त 1947 को किए गए वादों के तहत उसे 20 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया था। कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण को लेकर शुरू हुए विवाद के कारण पाकिस्तान का 75 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भुगतान अटक गया था। भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल इस अतिरिक्त भुगतान के पक्ष में नहीं थे।
भारत पाक करते हैं एक दूसरे पर बकाया का दावा
ऐसे में सरदार वल्लभभाई पटेल की आपत्तियों के बावजूद, पाकिस्तान को भुगतान सुनिश्चित करने के लिए महात्मा गांधी के भूख हड़ताल किया था जिसके बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मजबूर होकर पाकिस्तान को भुगतान करना पड़ा था। दिलचस्प बात यह है कि दोनों देश अभी भी एक दूसरे पर पैसों के बकाया होने का दावा करते हैं।
भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2022-2023 से पता चलता है कि पाकिस्तान पर विभाजन पूर्व कर्ज के रूप में 300 करोड़ रुपए का बकाया है। दूसरी ओर पाकिस्तान के स्टेट बैंक ने साल 2014 में कहा था कि भारत पर उसका 560 करोड़ रुपए बकाया है।
फर्नीचर और स्टेशनरी का कैसे हुए था बंटवारा
वित्तीय और सैन्य संपत्तियों के अलावा अन्य चल संपत्तियां जैसे कार्यालय के फर्नीचर, स्टेशनरी और लाइटबल्ब का भी विभाजन हुआ था। यह विभाजन 80 और 20 के अनुपात पर हुआ था। इसके तहत भारत को 80 फीसदी और पाकिस्तान को 20 फीसदी चल संपत्तियों का हिस्सा मिला था।
यही नहीं भारत के वायसराय द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले बग्गी का भी बंटवारा हुआ था। इस बग्गी पर सोने की परत चढ़ी हुई थी। बग्गी पर दोनों देशों ने दावा किया था और इसका फैसला सिक्का उछाल कर हुआ था। यह बग्गी भारत के हिस्से में आई थी।
कैसे हुए था जानवरों का बंटवारा
बंटवारे में जानवारों का भी विभाजन हुआ था। ब्रिटिश शासन वाले बंगाल के वन विभाग से संबंधित जॉयमोनी नामक एक हाथी को लेकर भी विवाद हुआ था और यह किस देश के हिस्से में जाएगा, उस समय इसकी भी खूब चर्चा हुई थी।
इस हाथी की कीमत एक स्टेशन वैगेन के सामान थी। विभाजन के बाद जब दो देश बने थे तब यह हाथी भारत में मौजूद था और समझौते के मुताबिक यह पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के हिस्से में गया था।
ऐसे में जिसके पास यह हाथी गया था उसे दूसरे देश को इसका भुगतान करना था। हाथी का कौन भुगतान करेगा, इसे लेकर भी काफी विवाद हुआ था। मालदा के कलेक्टर ने तर्क दिया कि पूर्वी बंगाल सरकार को हाथी के लिए भुगतान करना चाहिए।
इसके जवाब में दूसरे पक्ष यानी पूर्वी बंगाल ने तर्क दिया था कि चूंकि मालदा ने हाथी का इस्तेमाल किया था, इसलिए उन्हें भी इसका खर्च उठाना चाहिए। हाथी को लेकर अंत में यह फैसला हुआ है कि यह भारत में ही रहेगा।