इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर यादव Photograph: (Social Media)
इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस शेखर कुमार यादव के खिलाफ पिछले साल विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के एक कार्यक्रम में दिए गए बयानों के चलते 54 राज्यसभा सांसदों द्वारा दायर महाभियोग प्रस्ताव अभी भी लंबित है। दरअसल, अब तक 50 सांसदों ने इस नोटिस पर हस्ताक्षर करने की पुष्टि की है, जो महाभियोग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए न्यूनतम आवश्यक संख्या है।
महाभियोग का यह नोटिस पिछले साल 13 दिसंबर को विपक्षी दलों के 54 सांसदों ने राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को सौंपा था। हालांकि, राज्यसभा सचिवालय की ओर से मार्च और मई में भेजे गए ईमेल और फोन कॉल्स के जरिए हस्ताक्षर सत्यापन की प्रक्रिया शुरू की गई थी, जिसमें अब तक 44 सांसदों ने अपने हस्ताक्षर की पुष्टि कर दी है। बाकी बचे 10 सांसदों में से छह ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि उन्होंने भी नोटिस पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। इस लिहाज से अभी तक कम से कम 50 सांसदों ने महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने की बात कबूली है।
क्या बोला सचिवालय?
राज्यसभा सचिवालय ने इस पूरे नोटिस में 9 सांसदों के हस्ताक्षरों में रिकॉर्ड से मेल न खाने की बात कही थी, और एक सांसद सरफराज अहमद के हस्ताक्षर दो जगह होने की वजह से हस्ताक्षरों की दोबारा पुष्टि करने का निर्णय लिया गया। सचिवालय ने सांसदों को मार्च 7, 13 और मई 1 को ईमेल भेजे थे, जिसमें कहा गया था कि वे सभापति से मिलें और समाचार रिपोर्ट, कानूनी दस्तावेज, यूट्यूब लिंक आदि जो उन्होंने नोटिस के साथ संलग्न किए हैं, उनकी प्रमाणित प्रतियां साथ लाएं।
जस्टिस शेखर यादव का विवादास्पद बयान
8 दिसंबर 2024 को प्रयागराज में वीएचपी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में "यूनिफॉर्म सिविल कोड की संवैधानिक आवश्यकता" पर बोलते हुए जस्टिस यादव ने विवादास्पद टिप्पणियां की थीं। उन्होंने कहा, "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यह हिंदुस्तान है... और देश बहुसंख्यक लोगों की इच्छा के अनुसार चलेगा।" इसके अलावा, उन्होंने कथित तौर पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ 'कठमुल्ला' जैसे आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड का समर्थन करते हुए मुस्लिम समुदाय की आलोचना की और कहा कि "अगर हमारी परंपराओं में सती, जौहर, कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराइयों को खत्म किया गया है, तो तीन शादी की प्रथा भी खत्म होनी चाहिए।" इन बयानों को विपक्षी दलों और नागरिक समाज ने "घृणा भाषण" और संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन बताया।