जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' जब मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी की बात करते हैं तो मैं सोचती हूँ कि सभ्यता के विकास की यात्रा पहिये के घूमने के अलावा सीढ़ियों से चढ़ने-उतरने के साथ भी शुरू हुई होगी। धरती का सीना चीर जब कुआँ खोदकर पानी निकाला गया होगा, तो किसी की कल्पना ने इस कुएँ के गिर्द सीढ़ियों का एक लंबा गलियारा बनाकर पानी को एक परिधि देने की सोची होगी। मोहनजोदड़ो के तालाब से लेकर दिल्ली की बावड़ियों में उतरते-चढ़ते इंसान ने पानी को पालतू बनाना सीखा होगा। और फिर धीरे-धीरे सजावटी और भव्य बावड़ियों का चलन शुरू हुआ हो।
उत्तर में जिसे 'बावड़ी' कहते हैं, वह उत्तर पश्चिम में 'झालरा' कहलाती है और गुजरात में 'वाव'। मज़े की बात यह है कि बारिश के पानी का संचय करने की नीयत से बनाए गए झालरे सिर्फ़ पीने और खेती के पानी के स्रोत न होकर मुसाफिरों, औरतों और आदमियों के जमावड़े के सामाजिक केंद्र बन गए। पहले जिन चौकोर कुआँनुमा झालरों के गिर्द सिर्फ सीढ़ियों की कतारें होती थीं, वहाँ धीरे-धीरे महराबें, तोरण, मूर्तियों और नक्काशी से सजावट की जाने लगी। बावड़ी के इर्द-गिर्द कमरे भी बनाए जाने लगे ताकि तपती धूप में मुसाफ़िर इस नखलिस्तान-नुमा बावड़ी में आराम कर सकें। कुंड में आकर बच्चे-बड़े नहाने लगे। तीज त्योहार में औरतें इन जल-मंदिरों को पूजने लगीं। इस बहुआयामी वास्तुशिल्प के नमूने ने पानी के आपूर्ति के साथ समाजिकता को मज़बूत करने का काम भी किया।
सबसे अद्भुत तथ्य यह है कि बावड़ियों, वाव या झालरों का निर्माण करवाने में शाही महिलाओं का योगदान सबसे अधिक रहा। इतिहास जिन पटरानियों, राजकुमारियों और देवियों के बारे में मौन रहा, उन्होंने अपना नाम इन बावलियों को बनवाकर अमर कर दिया। शिलालेखों में उकेरे हुए (वाघेला रानी) रुदादेवी और (चालुक्य रानी) उदयमति के नाम इनके द्वारा बनवाये गए अदालज के वाव और पाटन की रानी के वाव की गवाही देते हैं। मारवाड की एक कर्पुरा देवी ने अपने बेटे ताराचंद की याद में तारा वाव बनवा दिया।
हाड़ा रियासत में बूँदी की रानी द्वारा बनवाई गई बावड़ी आज भी आलौकिक सुंदरता और रहस्यमयी आभा लिए हुए है। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा की बेटी ने भी चित्तौड़ के पास एक बावड़ी का निर्माण करवाया। झाली की बावड़ी, त्रिमुखी बावड़ी, सुंदर बावड़ी जैसे कई अनूठे झालरे बनवाकर इन राजसी महिलाओं ने अपने सामाजिक राजधर्म को निभाया और इतिहास में अपना अमिट निशान छोड़ा।
आभानेरी की चाँद बावड़ी से लेकर तूरजी के झालरे तक और अग्रसेन की बावड़ी से लेकर गंधक की बावड़ी तक, सीढ़ियों से घिरे हुए ये जलकुंड न सिर्फ पानी के सोते हैं, बल्कि इतिहास के उतार चढ़ाव के भी साक्षी रहे हैं। लेकिन विडंबना देखिए कि आज हम सभ्यता के उस पड़ाव पर पहुँच गए हैं जब जीवन के इन सोतों को सभ्य समाज ने कचराघर बना दिया है और इन बावड़ियों के पानी का स्तर हमारी आँखों के पानी की तरह कमता जा रहा है। हम कहते हैं कि सरस्वती धरती में समा गई, उसके पदचिन्ह ढूँढो लेकिन हमारी आँखों के सामने ओझल होते बावड़ियों के अस्तित्व से हम जानबूझकर अंजान बने हुए हैं। क्या हम अपनी बावड़ियों को मोहनजोदड़ो के तालाब की तरह विलुप्त होने के बाद ही खोजेंगे और सँजोएंगे?