भारत में हर छोटे-बड़े चुनाव के लिए उम्मीदवार का चुनाव चिन्ह बेहद अहम हो जाता है। एक तरह से ये न केवल पार्टियों की पहचान बनता है बल्कि मतदाता के लिए भी चिन्ह से अपने उम्मीदवार की पहचान आसान हो जाती है। भारत में किसी पार्टी के टूटने पर चुनाव चिन्ह के लिए लड़ाईयां भी खूब सुर्खियां बनती हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का चुनाव चिन्ह आज ‘हाथ का पंजा’ है लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था। ऐसे ही भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह ‘कमल’ है। हालांकि जनसंघ के जमाने में यह चुनाव चिन्ह नहीं था। ऐसे में यह जानना बड़ा दिलचस्प है कि भारत में राजनीतिक पार्टियों के चुनाव चिन्ह के इतिहास की कहानी क्या है? किस पार्टी को क्या चुनाव चिन्ह मिले, इसका फैसला कौन और कैसे करता है?
भारत में चुनाव चिन्हों की शुरुआत
कहानी उस समय से शुरू होती है, जब आजाद भारत में पहले आम चुनाव की तैयारी हो रही थी। 1951-52 के इस पहले लोकसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान निर्वाचन आयोग (ईसीआई) को लगा कि एक ऐसे देश में जहां निरक्षरता की दर बेहद कम है और 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते, वहां, चिन्ह अहम भूमिका निभा सकता है।
ऐसे में यह निर्णय लिया गया कि पार्टियों या उम्मीदवारों के चुनाव चिन्ह तय किए जाने चाहिए। ये चिन्ह ऐसे होने चाहिए जो आसानी से पहचाने जाएं। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि ये चिन्ह किसी की धार्मिक भावना को ठेस नहीं पहुंचाए और न ही इसका गलत इस्तेमाल हो। उदाहरण के तौर पर गाय, मंदिर, राष्ट्रीय ध्वज आदि को चुनाव चिन्ह नहीं रखना चाहिए।
चुनाव चिन्ह पर फैसला कौन करता है?
भारत में निर्वाचन आयोग ही चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के अनुसार पार्टियों को कोई सिंबल आवंटित करता है। चिन्ह या तो आरक्षित या अनारक्षित हो सकते हैं। आरक्षित या रिजर्वड चिन्ह वे हैं जो किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित है। बाकी चिन्ह अनारक्षित हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न उम्मीदवारों को अलग-अलग चिन्ह दिए जाते हैं।
किसी भी राष्ट्रीय पार्टी को किसी भी चुनाव में अपने उम्मीदवार के लिए उस पार्टी के आरक्षित चिन्ह का ही उपयोग करना होता है। ऐसे ही किसी भी क्षेत्रीय दल को राज्य के किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव के दौरान केवल उसे आवंटित चिन्ह का ही उपयोग करना होता है। पार्टिया अपने चुनाव अभियानों में इन चिन्हों का उपयोग कर सकती हैं और साथ ही ये मतपत्र पर भी बने होते हैं, जिससे वोट देने के समय आसानी से अपने पसंदीदा उम्मीदवार की पहचान कर सके और उसके आगे ठप्पा लगा सके। चूकी भारत में अब लगभग सभी चुनाव ईवीएम से होने लगे हैं तो ईवीएम में यही व्यवस्था होती है।
आयोग के पास कई अनारक्षित चुनाव चिन्ह तैयार हैं। जब किसी पार्टी में टूट की परिस्थिति होती है तो आयोग को यह तय करने का अधिकार है कि किस समूह को पार्टी का चिन्ह मिलेगा और किस ग्रुप को उपलब्ध चिन्हों में से एक को चुनना होगा।
पहले चुनाव में कैसे बनाए गए थे चुनाव चिन्ह
आयोग में कार्यरत रहे ड्राफ्ट्समैन एम.एस सेठी द्वारा ज्यादातर चिन्ह तैयार किए गए हैं। वह 1950 में आयोग में शामिल हुए और 1992 में सेवानिवृत्त हुए। जब भारत में स्वतंत्रता के बाद पहले चुनाव की योजना बना रही थी, तो सेठी अधिकारियों के साथ बैठते थे और दैनिक उपयोग की वस्तुओं की पेंसिल से तस्वीरें बनाते थे।
इन पर चर्चा होती थी और चिन्ह के रूप में सुरक्षित रख लिया जाता था। ये ऐसी चीजे थीं जिन्हें मतदाता आसानी से याद रख सकते थे और पहचान सकते थे। सेठी की सेवानिवृत्ति के लगभग एक दशक बाद आयोग ने उनके 100 रेखाचित्रों का एक संग्रह रख लिया है, जिसे आज ‘फ्री-सिंबल्स’ के रूप में जाना जाता है। यह सूची प्रत्येक आम चुनाव के समय पूरे देश में प्रसारित की जाती है और जिन लोगों को स्थायी चिन्ह नहीं दिया गया है उन्हें इसमें से एक चिन्ह आवंटित कर दिया जाता है।
कांग्रेस और भाजपा के चुनाव चिन्ह की कहानी…
साल 1952 से 1969 तक अविभाजित कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ‘दो बैल और एक हल’ था। बाद में पार्टी बंट गई। इसमें एक धड़े (इंदिरा-जगजीवन राम) को ‘बछड़ा और गाय’ और दूसरे धड़े को ‘चरखा चलाती महिला’ चिन्ह दिया गया। हालांकि, तब गाय को चुनाव चिन्ह के तौर पर देने पर विवाद भी हुआ। वैसे, चुनाव आयोग ने सभी आपत्तियों को तब खारिज कर दिया था। आगे चलकर इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस (आर) में फिर विभाजन हुआ। तब इंदिरा गांधी का समूह गाय और बछड़े को चुनाव चिन्ह के तौर पर चाहता था लेकिन इस बार चुनाव चिन्ह ने इसे खारिज कर दिया और ‘हाथ का पंजा’ बतौर चिन्ह दिया गया जो आज कांग्रेस की पहचान है।
ऐसे ही आज की बीजेपी का पूर्व रूप ‘भारतीय जनसंघ’ का चुनाव चिन्ह ‘मिट्टी का दीपक’ था। 1977 में पार्टी का विलय जनता पार्टी में हुआ। आगे जाकर जनता पार्टी में कई विभाजन हुए। इसमें एक ग्रुप जिसके कई लोग पहले भारतीय जनसंघ से जुड़े थे, वे अलग हुए। 1980 में अटल बिहार विजपेयी की अगुवाई में इस गुट को भारतीय जनता पार्टी नाम मिला और कमल का फूल बतौर चुनाव चिन्ह आवंटित हुआ।
चुनाव चिन्ह के तौर पर नहीं मिलते जानवरों और शरीर के अंग
आयोग आम तौर पर किसी जानवर या शरीर के अंग को प्रतीक चिन्ह के रूप में अब नहीं देता है। कांग्रेस का ‘हाथ का पंजा’ और बहुजन समाज पार्टी का ‘हाथी’ ये दो अपवाद जरूर हैं। दरअसल, पहले के सालों में कुछ जानवरों की तस्वीर चुनाव चिन्ह के रूप में आवंटित की गई थी। ऐसे में इन जीवित जानवरों का इस्तेमाल भी उम्मीदवार प्रचार में करते। इसके बाद पशु प्रेमियों से कई तरह की शिकायत मिलने के बाद चुनाव आयोग पशुओं को बतौर चुनाव चिन्ह के रूप में आवंटित करने से बचने लगा।
ऐसे ही एक और दिलचस्प किस्सा है। आम आदमी पार्टी (आप) का झाड़ू चुनाव चिह्न पहले उत्तर प्रदेश नैतिक पार्टी को दिया गया था। नैतिक पार्टी ने 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में नौ सीटों पर चुनाव भी लड़ा था, लेकिन सभी पर उसे हार मिली। पार्टी उसी चुनाव चिन्ह पर 2014 का आम चुनाव भी लड़ने की इच्छुक थी और उसने आयोग को इस बारे में जानकारी भी दी। हालांकि, आप के ज्यादा मजबूत मतदाता आधार को देखते हुए आयोग ने उसके दावे को खारिज कर दिया और आप को झाड़ू चुनाव चिह्न आवंटित कर दिया गया।