20-सेकंड के वीडियो के आधार पर राय बनाना समाज के लिए खतरनाक: डी. वाई. चंद्रचूड़

डी. वाई. चंद्रचूड़ ने न्यायपालिका के कामकाज को लेकर कहा कि संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि लोकतंत्र में नीति निर्माण का काम सरकार का होता है, जबकि अदालतों का काम कानूनों की व्याख्या करना और उनका पालन करवाना है।

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Forming opinions based on 20-second videos is threat to society says D.Y. Chandrachud

20-सेकंड के वीडियो के आधार पर राय बनाना समाज के लिए खतरनाक : डी. वाई.चंद्रचूड़ (फाइल फोटो- IANS)

नई दिल्ली: पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने रविवार को सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और न्यायपालिका के लिए इसके खतरों पर चिंता जताई। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि विशेष हित समूह और दबाव समूह सोशल मीडिया का इस्तेमाल अदालतों के फैसलों और न्यायाधीशों के दिमाग को प्रभावित करने के लिए कर रहे हैं। चंद्रचूड़ का मानना है कि यह न्यायपालिका के स्वतंत्र कार्यों के लिए गंभीर खतरा बन सकता है।

एनडीटीवी इंडिया के कॉन्क्लेव 'संविधान@75' में बोलते हुए चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि आजकल लोग यूट्यूब या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर देखे गए 20-सेकंड के वीडियो के आधार पर राय बनाना चाहते हैं, जो एक बड़ा खतरा है।

चंद्रचूड़ के अनुसार, यह सोशल मीडिया पर बिना पूरी जानकारी और गहरे विश्लेषण के राय बनाने की प्रवृत्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता को चुनौती देती है।

सीजेआई ने कहा- अदालती फैसलों को कुछ लोग कर रहे हैं प्रभावित

चंद्रचूड़ ने कहा, "यह एक गंभीर खतरा है क्योंकि अदालतों में निर्णय लेने की प्रक्रिया कहीं अधिक गंभीर और सूक्ष्म होती है। लेकिन अब कोई भी व्यक्ति सोशल मीडिया पर जो देखता है, उसी के आधार पर अपनी राय बना लेता है। इसके लिए धैर्य की कमी है, और यह भारतीय न्यायपालिका के लिए एक गंभीर समस्या बन चुकी है।"

पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने यह भी स्पष्ट किया कि विशेष हित समूह अदालतों के फैसलों को प्रभावित करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं और न्यायाधीशों को इससे सावधान रहना चाहिए। उनका कहना था कि न्यायाधीशों को अपनी कार्यप्रणाली और निर्णयों को इन दबाव समूहों से बचाकर रखना चाहिए।

सीजेआई ने न्यायपालिका के कामकाज को लेकर कहा कि संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि लोकतंत्र में नीति निर्माण का काम सरकार का होता है, जबकि अदालतों का काम कानूनों की व्याख्या करना और उनका पालन करवाना है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो अदालतों का कर्तव्य है कि वे हस्तक्षेप करें।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "जब मौलिक अधिकारों की बात आती है, तो संविधान के तहत न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे हस्तक्षेप करें। नीति निर्माण विधायिका का काम है, लेकिन इसकी वैधता तय करना न्यायालयों का काम और जिम्मेदारी है।"

कॉलेजियम प्रणाली को लेकर चंद्रचूड़ ने बताया कि इसे लेकर लोगों में काफी गलतफहमी है, जबकि यह प्रक्रिया बेहद सूक्ष्म और बहुस्तरीय है। उन्होंने कहा, "यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायपालिका की नियुक्ति में विशेष भूमिका है, लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति में सबसे पहले उनकी वरिष्ठता पर विचार किया जाता है।"

इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा कि कॉलेजियम प्रणाली के तहत न्यायाधीशों का चयन एक संवैधानिक प्रक्रिया है जो पूरी तरह से पारदर्शी और न्यायसंगत है।

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न्यायाधीशों के राजनीति में प्रवेश पर क्या बोले डी. वाई. चंद्रचूड़

न्यायाधीशों के राजनीति में प्रवेश पर पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए चंद्रचूड़ ने कहा कि संविधान या कानून में इस पर कोई रोक नहीं है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि समाज सेवानिवृत्ति के बाद भी न्यायाधीशों को उनके पुराने पद के दृष्टिकोण से देखता है, और सेवानिवृत्त होने के बाद उनके लिए समाज में वही मान्यताएं लागू होती हैं जो किसी अन्य नागरिक के लिए होती हैं।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा, "मुख्य रूप से यह हर न्यायाधीश को तय करना है कि सेवानिवृत्ति के बाद उनका निर्णय उनके पुराने काम को प्रभावित करता है या नहीं।"

चंद्रचूड़ ने 10 नवंबर को मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त होने से पहले अपने दो साल के कार्यकाल में न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संविधान की महत्ता, और न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को मजबूत किया। उनके कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण निर्णय हुए, जो भारतीय न्याय व्यवस्था को और मजबूत बनाने में सहायक रहे।

डी. वाई. चंद्रचूड़ ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्व को समझाते हुए यह बताया कि लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। उनका यह संदेश भविष्य में न्यायपालिका और सोशल मीडिया के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में अहम साबित हो सकता है।

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