नई दिल्ली:  पूर्व विधि आयोग अध्यक्ष और वर्तमान में लोकपाल के सदस्य न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) ऋतुराज अवस्थी ने मंगलवार को संसद की संयुक्त समिति के समक्ष कहा कि 'वन नेशन, वन इलेक्शन' (ONOE)  का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि बिल संघीयता (फेडरलिज्म) के संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध नहीं है और यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ भी नहीं जाता।

'एक देश-एक चुनाव' से जुड़े विधेयकों की समीक्षा के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की तीसरी बैठक मंगलवार को संसद भवन परिसर में हुई। इसमें कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की गई और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष ऋतुराज अवस्थी सहित चार कानूनी विशेषज्ञों ने अपनी राय रखी। 

'नागरिकों के मताधिकार के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता'

न्यायमूर्ति अवस्थी कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। उन्होंने समिति के सदस्यों को बताया कि यह बिल लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की कानूनी रूपरेखा तैयार करता है और इससे पात्र नागरिकों के मताधिकार के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता।

विशेषज्ञ के रूप में पैनल के समक्ष कहा कि संविधान (129वां संशोधन) विधेयक में पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए सभी आवश्यक प्रावधान मौजूद हैं।

पूर्व विधि आयोग अध्यक्ष के कार्यकाल में ही आयोग ने समानांतर चुनावों (Simultaneous Elections) पर एक प्रारूप रिपोर्ट तैयार की थी। उन्होंने समिति को बताया कि यह विधेयक संविधान की संवैधानिकता का उल्लंघन नहीं करता और न ही संघीयता तथा संसदीय प्रणाली की मूल संरचना के खिलाफ जाता है।

सूत्रों के अनुसार, समिति के सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर में ऋतुराज अवस्थी ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान में प्रस्तावित संशोधन से नागरिकों के मतदान के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

वहीं, बैठक में पूर्व सीजेआई यूयू ललित ने कहा कि समानांतर चुनावों से संसाधनों और समय की बचत होगी, लेकिन इसके संवैधानिक और राजनीतिक प्रभावों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद समिति के सचिव नितेन चंद्रा ने कहा कि यह विधेयक असंवैधानिक नहीं हो सकता क्योंकि संविधान में कहीं यह नहीं लिखा है कि चुनाव की समय-सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती।

प्रियंका गांधी समेत इन सांसदों ने उठाए सवाल 

बैठक में कई सांसदों ने महत्वपूर्ण सवाल उठाए। कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी ने सवाल किया कि क्या भारत में पर्याप्त ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) उपलब्ध हैं ताकि एक साथ चुनाव कराए जा सकें? उन्होंने ईवीएम की देखरेख और रखरखाव को लेकर भी चिंता जताई।

लोजपा (रामविलास) सांसद सांभवी चौधरी ने पूछा कि यदि चुनाव की समय-सीमा तय हो जाती है, तो सरकारों की जवाबदेही पर क्या असर पड़ेगा?

कई सांसदों ने मध्यावधि चुनाव (Mid-term Elections) के मामले में संभावित जटिलताओं पर सवाल उठाए। उन्होंने पूछा कि यदि किसी राज्य में सरकार गिर जाती है और बहुमत नहीं बनता, तो ऐसी स्थिति में क्या होगा?

इस पर कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने जवाब दिया कि इस विषय पर विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है और उचित समाधान निकाला जाएगा।

विधि मंत्रालय ने क्या कहा?

इसी बीच, केंद्रीय विधि मंत्रालय के विधायी विभाग ने संसद की संयुक्त समिति को लिखित रूप से बताया कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना अलोकतांत्रिक नहीं है और न ही यह संघीय ढांचे को कमजोर करता है।

विधायी विभाग ने यह भी बताया कि भारत में पहले भी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाते थे, लेकिन विभिन्न कारणों से यह प्रक्रिया बाधित हो गई।

मंत्रालय ने समिति को बताया कि भारत में 1951 से 1967 तक लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। हालांकि, 1968-69 में कुछ राज्यों में सरकारों के समय से पहले भंग होने और राष्ट्रपति शासन लागू होने के कारण यह परंपरा टूट गई।

इसके बाद, 1970 में चौथी लोकसभा भंग कर दी गई और 1971 में चुनाव हुए। फिर आपातकाल (Emergency) के दौरान पांचवीं लोकसभा का कार्यकाल 1977 तक बढ़ा दिया गया।

मंत्रालय ने बताया कि आठवीं, दसवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं लोकसभा ने अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया, जबकि छठी, सातवीं, नौवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा को समय से पहले भंग कर दिया गया।