चेन्नईः दक्षिणी राज्यों में इन दिनों भाषाई विवाद बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। शिक्षा के अधिकार के तहत योजनाओं के केंद्रीय धन को रोकने और केंद्र सरकार द्वारा इन निधियों को राज्यों द्वारा एनईपी के कार्यान्वयन से जोड़ने पर तमिलनाडु के विरोध ने भाषा युद्ध को एक बार फिर से शुरु कर दिया है।
भले ही अभी यह भाजपा और डीएमके के बीच देखा जा रहा है लेकिन इस बात को लेकर भी चिंता व्यक्त की जा रही है कि इसकी वजह से अन्य राजनीतिक दलों को इस पर फैसला लेने के लिए मजबूरी की स्थिति न बने। अगर ऐसा होता है तो राजनीतिक रूप से अस्थिरता बढ़ सकती है।
जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन पीएम मोदी को शिक्षा के अधिकार योजना के तहत दी जाने वाली राशि की मांग की। यह राशि 2,512 करोड़ रुपये की थी। स्टालिन की मांग पर केंद्र ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) न लागू करने का आरोप लगाया।
हिंदी थोपने पर नहीं होंगे सहमतः स्टालिन
इस पर स्टालिन ने पलटवार करते हुए कहा कि वह हिंदी थोपने पर सहमत नहीं होंगे। स्टालिन ने यह भी कहा कि कुछ करोड़ रुपयों के लिए वह ऐसा नहीं करेंगे। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने स्टालिन के इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि एनईपी 2020 भाषाई स्वतंत्रता के सिद्धांत को कायम रखती है और यह सुनिश्चित करती है कि छात्र अपनी पसंद की भाषा सीख सकते हैं।
इस मुद्दे में उत्तर-दक्षिण राज्यों का आयाम स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है। दक्षिणी राज्यों में तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और अन्य राज्य भी अपनी मातृभाषा को लेकर गर्व करते हैं। दक्षिणी राज्य उत्तर पर आरोप लगाते रहे हैं कि आजादी के बाद सत्ता में आने के बाद वे उत्तर भारत के सुझावों को ग्रहण कर रहे हैं।
सीएम स्टालिन ने स्पष्ट किया है कि वह राज्य में दो भाषाओं की नीति अपनाएंगे। इनमें तमिल और अंग्रेजी है। तमिलनाडु में द्रविड़ लोकाचार और 1930 से 1960 के दशक के हिंदी विरोधी आंदोलनों के समय से चले आ रहे हिंदी के प्रति इसके ऐतिसाहिक प्रतिरोध शामिल हैं।
पंजाब और तेलंगाना में स्थानीय भाषा अनिवार्य
राजनीतिक रुप से भाषा को हथियार बनाने का आकर्षण भी देखा गया है। चूंकि तमिलनाडु ने इस मुद्दे को उठाया है इसी बीच उत्तरी राज्य पंजाब और दक्षिणी राज्य तेलंगाना ने घोषणा की है कि राज्यों में अब पंजाबी और तेलुगी स्कूलों में अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाई जाएगी।
इस विवाद की राजनीतिक बढ़त ने नायकों को सावधान कर दिया है। एक ओर भाजपा भले ही हिंदी को लेकर उत्साहित रही हो लेकिन उसे इस बात का अहसास है कि हिंदी को मजबूती देकर वह उत्तर भारत की पार्टी तो बन सकती है लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों की जनता के बीच खुद को मजबूत नहीं कर सकती है।
भाजपा दक्षिणी राज्यों में कर्नाटक में मुख्य विपक्षी दल है। इसके साथ ही तेलंगाना में भी भाजपा मजबूत बनकर उभर रही है। इसी तरह तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में सहयोगियों के बल पर अपनी पकड़ बनाने में जुटी है।
भाजपा ने डीएमके पर साधा निशाना
भाजपा ने डीएमके के रुख को लेकर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। तमिलनाडु भाजपा प्रमुख के. अन्नामलाई ने डीएमके पर आरोप लगाया कि वह राजनीतिक लाभ के लिए एनईपी की गलत व्याख्या कर रही है। इसके साथ ही भाजपा ने इस बात पर भी जोर दिया है कि डीएमके हिंदी थोपने का निराधार आरोप लगा रही है क्योंकि पहली बार तीन भाषाओं को पढ़ाने का कार्यक्रम कांग्रेस के शासनकाल के दौरान लाया गया था।
हालांकि, कांग्रेस इस विवाद से खुद को बचाए हुए है। हालांकि कांग्रेस पदाधिकारी निजी तौर पर यह तर्क देते हैं कि डीएमके के आरोपों में दम है। उनका मानना है कि केंद्रीय योजनाओं के संक्षिप्त शब्द और अब आईपीसी, सीआरपीसी कानूनों के नाम भी हिंदी में रखे गए हैं। वे इसे दक्षिणी लोगों की भावनाओं के प्रति असंवेदनशील बताते हैं और चेतावनी देते हैं कि इससे "सांस्कृतिक साम्राज्यवाद" की आंशका पैदा होने का खतरा है।
हालांकि कांग्रेस को पता है कि उत्तर भारतीय राज्यों के बलबूते वह सत्ता में वापसी कर सकती है। ऐसे में वह हिंदी विरोधी नहीं कहलाना चाहेगी। यही कारण है कि कांग्रेस ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।