नई दिल्ली: देश की राजधानी दिल्ली के विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। 5 फरवरी को मतदान है और फिर 8 फरवरी को नतीजे भी आ जाएंगे। दिल्ली के इस दंगल में तीन बड़ी पार्टियां मैदान में हैं- सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप), भाजपा और फिर कांग्रेस। मुख्य तौर पर मुकाबला ‘आप’ और भाजपा के बीच ही माना जा रहा है। वहीं, कांग्रेस के लिए संतोषजनक बात यही है कि वो दिल्ली में करीब एक दशक पहले तक मजबूत पैठ रखती थी। इसलिए उम्मीदें वो भी लगाए बैठी है। दिल्ली में एक तरह से त्रिकोणीय मुकाबला है। ऐसे में एक नजर डालते हैं कि दिल्ली के इस चुनाव में किस पार्टी के लिए क्या कुछ दांव पर लगा है। सबसे पहले ‘आप’ की बात करते हैं।
आम आदमी पार्टी के लिए सबसे मुश्किल चुनाव?
जाहिर तौर पर किसी भी पार्टी के लिए उसका पहला चुनाव सबसे मुश्किल माना जाना चाहिए। 2013 में दिल्ली में ‘आप’ ने जब अपना पहला चुनाव लड़ा तो उसके सामने खुद को खड़ा करने की चुनौती थी। पार्टी ने तब 70 में से 28 सीटों पर अप्रत्याशित जीत दर्ज की। ‘आप’ का वोट शेयर 29.49% था और ये एक बड़े बदलाव का संकेत दे रहा था। इसके बाद 2015 में ‘आप’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में 54.34% वोट के साथ 67 सीट झटक लिए। भाजपा को तीन सीट मिली और कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला।
इसके बाद 2020 के चुनाव में ‘आप’ की सीट घटकर 62 हो गई लेकिन वोट शेयर 53.57% के साथ उसकी मजबूती बरकरार रही। 2015 की जीत तो इसलिए भी खास थी क्योंकि तब कुछ महीने पहले ही मोदी लहर में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में बंपर जीत हासिल की थी।
हालांकि, अब 2024 में ‘आप’ के लिए तस्वीर बदली हुई है। उसके सामने पिछले एक दशक में संभवत: सबसे मुश्किल चुनाव है। वैसे भी एक पार्टी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन और बदलाव की बात करते हुए आस्तित्व में आई, अब उसी पर कई गंभीर सवाल हैं। कथित दिल्ली शराब घोटाले में उनकी भूमिका सवालों के घेरे में हैं। मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए वे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और बाद में सीबीआई द्वारा गिरफ्तारी किए गए और करीब छह महीने जेल में रहे। पिछले साल सितंबर में उन्हें जमानत मिल गई थी।
यही नहीं, केजरीवाल के करीबी सहयोगी और दिल्ली के पूर्व डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया भी इसी मामले में 17 महीने से अधिक समय तक जेल में रहे। इसके अलावा एक अन्य पूर्व मंत्री सत्येन्द्र जैन और राज्यसभा सांसद संजय सिंह भी गिरफ्तार हुए और अब जमानत पर बाहर हैं। ‘आप’ पूरे मामले, गिरफ्तारी और सभी केस के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराती रही है। उसका कहना है कि केंद्र के इशारे पर झूठे मामले बनाए जा रहे हैं। हालांकि इसके उलट भाजपा ने और आक्रामक रवैया अपनाते हुए आप के खिलाफ सामने आए भ्रष्टाचार के मामलों को जमकर उठाया है।
खासकर केजरीवाल भाजपा के निशाने पर हैं। सीएम आवास के भव्य तरीके से रेनोवेशन से लेकर शराब घोटाले के मामले में केजरीवाल विपक्ष के निशाने पर हैं। हालाँकि, तमाम आरोपों के बावजूद आप को पूरा भरोसा है कि उसकी लोकलुभावन/कल्याणकारी नीतियां वोट दिलाने में कामयाब होंगे। इसके अलावा केंद्र द्वारा उपराज्यपाल के माध्यम से कई योजनाओं को रोकने के आरोपों का भी ‘आप’ खूब प्रचार-प्रसार करती रही है।
बहरहाल, ‘आप’ के लिहाज से बात करें तो दिल्ली में उसकी जीत केवल सत्ता बचाने भर तक सीमित नहीं है। यहां ये भी देखना होगा कि वो देश में विपक्षी INDIA गुट का अहम हिस्सा भी है। एक तरह से ‘आप’ अभी इंडिया गुट में एकमात्र पार्टी है, जिसकी एक से अधिक राज्य में सरकार है। केजरीवाल के विपक्षी नेताओं के साथ अच्छे समीकरण भी दिखते रहे हैं, जिनमें ममता बनर्जी प्रमुख हैं। ममता बनर्जी का कांग्रेस के साथ अच्छा तालमेल नहीं है और आप को भी इसी कैटेगरी में देखा जा सकता है। ऐसे में दिल्ली में ‘आप’ की लगातार तीसरी जीत से न केवल केजरीवाल की INDIA गुट में स्थिति मजबूत होगी बल्कि कांग्रेस पर भी दबाव बढ़ेगा। कांग्रेस से वैसे भी इंडिया गुट का नेतृत्व लेकर किसी और सौंपने की बात पिछले कुछ महीनों से लगातार चल रही है। ‘आप’ की जीत ऐसे में जाहिर तौर पर कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा देगी।
दिल्ली में भाजपा के लिए क्या दांव पर है?
दिल्ली में 2020 के चुनाव में भाजपा ने 38.51% वोट शेयर हासिल किया था। यह पिछले दो दशकों में वोट शेयर के मामले में उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। हालांकि, इसके बावजूद पार्टी आप के 53.57% वोट शेयर से कहीं पीछे थी। 2015 में दोनों पार्टियों के बीच वोट शेयर में 22 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर था।
यहां ये भी गौर करने वाली बात है कि पंजाब को छोड़कर दिल्ली ही उत्तर भारत का एकमात्र राज्य है जहां भाजपा ने पिछले दो दशकों से सत्ता का स्वाद नहीं चखा है। हालांकि, ये भी सही है कि पिछले तीन दशकों में भाजपा अपना वोट शेयर दिल्ली में बनाए रखने में कामयाब रही है। उसमें कोई बहुत गिरावट कभी नहीं हुई।
साल 1998 से भाजपा दिल्ली में सत्ता से बाहर है। इसके बावजूद भाजपा छह विधानसभा चुनावों में कभी भी 32% के वोट शेयर से नीचे नहीं गिरी है। 2015 में भी जब भाजपा को केवल तीन सीटें मिली थीं, तब भी पार्टी 32.19% वोट शेयर हासिल करने में सफल रही थी।
भाजपा की दिल्ली में सत्ता में वापसी की उम्मीद इसलिए भी बरकरार है क्योंकि 2014 से लेकर अभी तक सभी लोकसभा चुनाव में वो सभी 7 सीटें जीतने में कामयाब हुई है।
भाजपा के लिए दिल्ली में सबसे बड़ा मसला संभवत: मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर रहा है। 1998 में सत्ता गंवाने के बाद भाजपा दिल्ली में लगातार तीन चुनाव (1998, 2003 और 2008) कांग्रेस से हारी। इसके बाद तीन और चुनाव (2013, 2015 और 2020) में उसे आप से हार मिली। कांग्रेस के लिए शीला दीक्षित अहम चेहरा हुआ करती थीं, तो वहीं ‘आप’ के लिए केजरीवाल हैं।
भाजपा ने वैसे 2015 में पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी को सीएम चेहरे के रूप में पेश करके एक बड़ा दांव जरूर खेला था, लेकिन सफलता नहीं मिली। जबकि किरण बेदी भी अन्ना हजारे के आंदोलन का हिस्सा रही थीं।
इस बार भाजपा दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में चुनावी कैंपेन कर रही है। पार्टी को भरोसा है कि उच्च मध्यम वर्ग, व्यापारिक और पंजाबी समुदायों के बीच उसका वोट शेयर बरकरार है और उसे पूर्वांचली मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का भी समर्थन प्राप्त है। उसकी कोशिश निम्न मध्यम वर्ग, दलितों और गरीबी रेखा वाले वोटर्स में सेंध लगाने की है।
पिछले साल लोकसभा चुनाव में भाजपा को झटका लगा था। हालांकि, इसके बाद उसने हरियाणा और महाराष्ट्र में वापसी की। इससे भाजपा को विपक्ष पर एक बार फिर आक्रामक होने का रास्ता मिला। भाजपा अब दिल्ली में भी जीत हासिल कर विपक्ष को करारा झटका देना चाहेगी।
कांग्रेस को दिल्ली चुनाव से क्या उम्मीद?
दिल्ली में कांग्रेस के लिए कहानी दिलचस्प रही है। 1998 में लोकसभा चुनावों में हार के कुछ महीनों बाद पार्टी दिल्ली में सत्ता में आ गई। दिल्ली में तब लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सात में से छह सीटों पर जीत हासिल की थी। करोलबाग सीट से कांग्रेस की एकमात्र जीत हासिल करने वाली उम्मीदवार मीरा कुमार थीं। यहां तक कि बाद में मुख्यमंत्री बनीं शीला दीक्षित भी पूर्वी दिल्ली सीट पर बीजेपी के लाल बिहार तिवारी से हार गई थीं।
हालांकि, फिर नवंबर 1998 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 47.76% वोट शेयर के साथ 70 में से 52 सीटें जीतीं। शील दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं और 15 सालों तक दिल्ली की कमान संभालती रहीं। यह सिलसिला 2013 में थम गया जब कांग्रेस केवल आठ सीटों पर सिमट गई और शीला दीक्षित को भी केजरीवाल से हार का सामना करना पड़ा।
2015 में कांग्रेस को और बड़ा झटका लगा। पार्टी खाता भी नहीं खोल सकी और उसका वोट शेयर गिरकर 10% तक पहुंच गया। यह 2008 में 40.31% और 2013 में 24.55% था। पिछले विधानसभा चुनावों में तो कांग्रेस की हालत और खराब हो गई। पार्टी को केवल 4.26% वोट हासिल हुए और 66 में से 63 उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई। अब स्थिति ये है कि दिल्ली में आज की तारीख में कांग्रेस के लिए कोई बड़ा चेहरा नहीं है।
सूत्र बताते हैं कि दिल्ली में कांग्रेस का संगठन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। ‘आप’ के आने के बाद वोट बैंक भी नहीं बचा है। खुद कई पार्टी नेता स्वीकार करते हैं कि मुसलमान वोट भी ‘आप’ की ओर जाना पसंद करेंगे क्योंकि उस समुदाय का मानना है कि दिल्ली में केवल केजरीवाल के नेतृत्व वाली पार्टी ही भाजपा से मुकाबला करने की स्थिति में है।
इसके अलावा कांग्रेस के सामने भारी असमंजस भी है कि वो दिल्ली में किसके खिलाफ लड़ रही है। ‘आप’ सभी 70 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है और उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन से इनकार किया था। कांग्रेस सूत्रों के अनुसार आलाकमान चुनाव में केजरीवाल को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाने के खिलाफ है। हरियाणा और महाराष्ट्र के हार से उबरने की कोशिश में जुटी कांग्रेस दिल्ली में कोई कमाल कर सके, इसकी संभावना लगभग नहीं के बराबर है।