वो 7 अगस्त, 1947 का दिन था। मोहम्मद अली जिन्ना सुबह अपने 10 औरंगजेब रोड (अब एपीजे अब्दुल कलाम रोड) के शानदार बंगले के बगीचे में चुपचाप टहल रहे थे। आज उनकी जिंदगी का बड़ा ही अहम दिन था। वे उस शहर को हमेशा के लिए छोड़ रहे थे जिसमें रहते हुए उन्होंने पाकिस्तान के लिए आंदोलन की रहनुमाई की थी। वे दिन में डेढ़ बजे के आसपास सफदरजंग एयरपोर्ट पहुंचे। उन्होंने विमान के अंदर जाने से पहले दिल्ली के नीले आसमान को कुछ पलों के लिए देखा। शायद जिन्ना सोच रहे होंगे कि अब वे इस शहर में फिर कभी नहीं आएंगे। वे अपनी छोटी बहन फातिमा जिन्ना, एडीसी सैयद एहसान और बाकी करीबी स्टाफ के साथ वायसराय लार्ड माउंटबेटन के विमान से कराची के लिए रवाना हो रहे थे। दरअसल जिन्ना के सपनों का मुल्क दुनिया के नक्शे में 14 अगस्त, 1947 को आने जा रहा था।
तपती दोपहर में शेरवानी
पिछले कुछ सालों से दिल्ली में जिन्ना का वक्त उनके अपने शहर बंबई से ज्यादा बीता था। इसलिए वे कुछ हद तक दिल्ली वाले हो चुके थे। उस दिन उन्होंने शेरवानी सूट पहना हुआ था तपती हुई गर्मी और उमस के बावजूद। हालांकि वे आमतौर पर सूट-बूट में ही रहना पसंद करते थे। उन्हें एयरपोर्ट पर विदाई देने के लिए कुछ ही लोग पहुंचे थे।
24 मार्च,1940 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के लाहौर की तारीखी बादशाही मस्जिद के मिन्टो पार्क (अब इकबाल पार्क) में चल रहे तारीखी सत्र में भारत के मुसलमानों के लिए अलग देश का प्रस्ताव पारित हुआ था। उसे पाकिस्तान रेज़लूशन या लाहौर रेज़लूशन के रूप में जाना जाता है। उसके बाद जिन्ना का दिल्ली आना-जाना और रहना बढ़ गया था। आखिर उन्हें दिल्ली में ब्रिटिश सरकार के नुमाइंदों, अपनी मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं-नेताओं और कांग्रेस के नेताओं से गहन चर्चाएं करनी होती थीं।
तब कहां ठहरते थे जिन्ना?
जिन्ना 1940 से पहले से दिल्ली आ रहे थे। तब वे इधर के जनपथ स्थित इम्पीरियल होटल में ही ठहरते थे। चूंकि उनका लाइफ-स्टाइल राजसी था, इसलिए उनके लिए इम्पीरियल होटल सूट करता था। जिन्ना ने 1939 में दिल्ली में अपना आशियाना बनाने का फैसला कर लिया था। क्योंकि अब होटलों में रहने से बात नहीं बनने वाली थी। इसलिए उनके लिए एक अदद बंगले की तलाश शुरू हुई।
इस काम को अंजाम देने वालों में मुस्लिम लीग में उनके नंबर दो साहिबजादा लियाकत अली खान भी थे। वे आगे चलकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। सिविल लाइंस में फ्लैग स्टाफ रोड और औरंगजेब रोड में बंगले देखे गए। अंत में 10 औरंगजेब रोड (अब एपीजे अब्दुल कलाम रोड) का बंगला खरीदा गया।
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करीब डेढ़ एकड़ में ये बंगला बना है। जिन्ना के 10 औरंगजेब रोड बंगले का डिजाइन एफ.बी. ब्लमूफिल्ड ने बनाया था। वे एडवर्ड लुटियंस की टीम में थे। उन्होंने ही कनॉट प्लेस में मैसोनिक लॉज को भी डिजाइन किया था। जिन्ना के घर में 5 बैड रूम, विशाल ड्राइंग रूम, मीटिंग रूम,बार वगैरह है। अब ये तो सबको मालूम है कि जिन्ना ड्रिंक करने से परहेज नहीं करते थे। इसमें विशाल बगीचा भी है। जहां पर तरह तरह के फूलों से सारा माहौल खुशगवार रहता है।
सियासत से आगे का जहां
जिन्ना के लिए सियासत और पाकिस्तान से आगे भी जहां था। उनके पास सिर्फ मुस्लिम लीग के ही नेता नहीं आते थे। दिल्ली में उनके गैर-राजनीतिक मित्रों में सरदार सोबा सिंह और सेठ रामकृष्ण डालमिया भी थे। डालमिया की पुत्री और ‘दि सीक्रेट डायरी आफ कस्तूरबा’ की लेखिका नीलिमा डालमिया ने बताया, “जिन्ना और मेरे पिता के करीबी रिश्ते थे। जिन्ना का मेरे पिता के अकबर रोड वाले बंगले में आना-जाना भी नियमित रूप से रहता था।”
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कहते हैं कि दिल्ली को हमेशा के लिए छोड़ने से एक दिन पहले उन्होंने डालमिया जी के साथ सिकंदरा रोड में ही भोज किया था। इधर भी डालमिया जी का बंगला था। भोज में उनकी डेंटिस्ट बहन फातिमा जिन्ना, राम कृष्ण डालमिया की पत्नी श्रीमती दिनेश नंदनी डालमिया वगैरह लोग मौजूद थे।
पाकिस्तान जाने से पहले जिन्ना ने अपना बंगला करीब ढ़ाई लाख रुपये में राम कृष्ण डालमिया को बेचा था। हालोंकि दोनों में मैत्रीपूर्ण संबंध थे फिर भी जिन्ना ढाई लाख रुपये से कम पर अपने बंगले को बेचने के लिए तैयार नहीं थे। यह जानकारी इस लेखक को श्रीमती दिनेश नंदिनी डालमिया ने 1995 में अपने सिकंदरा रोड के बंगले में दी थी।
दिनेश नंदिनी डालमिया हिन्दी की सशक्त कथाकार थीं। उनके बंगले में लेखकों की महफिलें लगातार हुआ करती थीं। बहरहाल, जिन्ना अपने मुंबई के मालाबार हिल के बंगले को बेच नहीं सके। डालमिया ने जिन्ना का बंगला खरीदने के बाद उसे गंगाजल से धुलवाया था।
उन्होंने जिन्ना के दिल्ली छोड़ते ही बंगले के ऊपर लगे मुस्लिम लीग के झंडे को उतारने के आदेश दिए थे। उसके स्थान पर गौ-रक्षा आंदोलन का झंडा लगवाया गया। यानी मुसलमानों के एकछत्र नेता के कट्टर हिन्दूवादी शख्स से गहरी छनती थी। यह सारा प्रसंग लैरी कोलिन्स और डोमिनिक लैपिएर ने अपनी किताब फ्रीडम एट मिडनाइट में लिखा है।
कब तक रहा डालमिया के पास बंगला?
जिन्ना के बंगले को डालमिया ने 1964 तक अपने पास रखा और फिर नीदरलैंड सरकार को बेच दिया था। इसका इस्तेमाल तब से नीदरलैंड के नई दिल्ली में राजदूत के आवास के रूप में हो रहा है। ये भी बात समझ से परे है कि पाकिस्तान जिन्ना के मुंबई स्थित बंगले की भारत से रेंट पर ही देने की मांग करता रहा है, पर उसने अपने संस्थापक के दिल्ली वाले बंगले को लेकर कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
कौन-कौन रहता था वहां?
जिन्ना के बंगले में उनकी बहन फातिमा जिन्ना भी रहती थीं। जिन्ना के जीवन में तीन महिलाएं ही आईं। एक उनकी पत्नी रतनबाई, पुत्री दीना और बहन फातिमा। जिन्ना के सिर्फ अपनी बहन से ही ठीक संबंध रहे। बाकी दोनों से तो हमेशा पंगा ही रहा। ये बात दीगर है कि रतनबाई के 1929 में निधन के बाद उन्होंने फिर से विवाह नहीं किया। हालांकि उनका एक बार बाल विवाह हुआ था।
जिन्ना, दि डॉन और दरियागंज
जिन्ना के बंगले के एक तरह से केयरटेकर उनके स्पीच राइटर और मुस्लिम लीग के मुखपत्र दि डॉन के संपादक अल्ताफ हुसैन ही थे। उस दौर में दि डॉन दिल्ली के दरियागंज के छत्ता लाल मियां इलाके से प्रकाशित होता था। अब उस स्थान पर एक कोपरेटिव बैंक है। अल्ताफ हुसैन मूल रूप से बांग्लाभाषी थे। वे खुलना ( अब बांग्लादेश) के रहने वाले थे। वे जिन्ना का मीडिया मैनेज भी करते थे।
जाहिर है, तब आज की तरह मीडिया पीआर एजेंसीज नहीं थीं। जिन्ना ने दिल्ली में लगभग शिफ्ट होने के बाद एक बड़ा काम यहां से दि डॉन का प्रकाशन शुरू करके किया। ये 1941 से चालू हो गया था। उन्होंने इसके सबसे पहले संपादक के पद पर वरिष्ठ पत्रकार पोथेन जोसेफ को नियुक्त किया। पर जोसेफ मुस्लिम लीग के विचारों के अनुसार अखबार नहीं चला पाए तो जिन्ना ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से पढ़े अल्ताफ हुसैन को डॉन का संपादक बनाया। वे कांग्रेस और कांग्रेसी नेताओं पर जहर उगलने में जिन्ना की उम्मीदों के अनुसार ही निकले।
पाकिस्तान की स्थापना दिवस से एक दिन पहले ही दि डॉन कराची से प्रकाशित होना चालू हो गया था। उसके अधिकतर स्टाफ के सदस्य पाकिस्तान शिफ्ट हो गए थे। दिल्ली में इसका प्रकाशन 11 अगस्त तक जारी रहा था। हालांकि अल्ताफ हुसैन सुजान सिंह पार्क के एक प्लैट में रहते थे। दिल्ली में जब दंगे भड़के तो उनके फ्लैट और दि डॉन के दफ्तर पर भी हमला किया गया था।
‘गांधी’ के जीवनीकार से क्यों नहीं मिले जिन्ना?
महात्मा गांधी की सैकड़ों जीवनियां लिखी जा चुकी है। आगे भी लिखी जाती रहेंगी। पर महान अमेरिकी लेखक लुईस फिशर द्वारा लिखी गांधी जी की जीवनी ‘दि लाइफ ऑफ महात्मा’ को गांधी जी की अब तक की सबसे बेहतर जीवनी माना जाता है। उसमें तथ्यों को पूरी ईमानदारी के साथ पेश किया गया है। उसी के आधार पर गांधी फिल्म बनी थी।
लुईस फिशर 25 जून,1946 को दिल्ली आते हैं गांधी जी की जीवनी के लिए रिसर्च करने के लिए। वे यहां गांधी जी से मिलते थे। वे दिल्ली में आचार्य कृपलानी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, बापू की निजी डॉ. सुशीला नैयर वगैरह से भी मिल रहे थे।
फिशर यहां लोगों से मिलने के लिए टैक्सियों पर ही आते- जाते । उन्हें एक दिन मोहम्मद अली जिन्ना से भी उनके 10, औरंगजेब रोड वाले आवास में मिलना था। जिन्ना ने उन्हें सुबह साढ़े दस बजे मिलने का समय दिया। वे अपने इंपीरियल होटल से जिन्ना से मिलने टैक्सी पर निकले। पर अभी टैक्सी कुछ ही देर चली थी कि उसमें गड़बड़ चालू हो गई।
टैक्सी के सिख ड्राइवर के लाख चाहने के बाद भी बात नहीं बनी। इस बीच जिन्ना से मिलने का वक्त भी हो रहा था। वे किसी तरह टांगे पर बैठकर ही जिन्ना के घर 35 मिनट देर से पहुंचे। फिशर उनसे भी गांधीजी और मुस्लिम लीग की भारत को बांटने की मांग वगैरह पर गुफ्तुगू करने के लिए ही गए होंगे। पर फिशर के देर से पहुंचने से जिन्ना कुछ उखड़ गए। जिन्ना ने उन्हें कुछ देर के बाद ही कह दिया-“ मुझे कहीं निकलना है।” यह किस्सा फिशर ने अपनी किताब में लिखा है।
जिन्ना और फुटबॉल
जिन्ना को दिल्ली ने मान-सम्मान भी कम नहीं दिया। इधर 1941 से लेकर 1946 तक उनके नाम से एक बड़ा फुटबाल चैंपियनशिप आयोजित होती रही। जिन्ना फुटबाल चैंपियनशिप मुगल्स ग्राउंड में होती थी। फिरोजशाह कोटला से सटे मैदान को ही मुगल ग्राउंड कहते थे। दिल्ली फुटबाल संघ के महासचिव के.एल.भाटिया बताते हैं कि जिन्ना के नाम पर होने वाली चैंपियनशिप में इधर के क्लब शिरकत करते थे।
इसे आयोजित करने में लियाकत अली खान का खास रोल रहता था। वे ही विजेता टीमों को पुरस्कार दिलवाते थे। इस बीच, पुराने दिल्ली वालों ने कभी ये नहीं बताया कि जिन्ना इधर कभी किसी सूफी फकीर के उर्स में हाजिरी देने गए हों। वे कोई भी बहुत सोशल किस्म के शख्स तो नहीं थे।
कहते हैं, रामलीला मैदान में मुस्लिम लीग की एक रैली में कुछ लोग नारे लगाने लगे, “मौलाना जिन्ना जिंदाबाद।”इस नारे से नाराज जिन्ना ने उन्हें तब ही कसा. कहा- “मैं आपका सियासी नेता हूं न कि मजहबी।”
किसने नहीं बोलने दिया था जिन्ना को
मीर मुश्ताक अहमद दिल्ली के महबूब नेता थे। वे गरीब-गुरबा के हकों के लिए जीवन भर लड़े। वे दिल्ली के 1972-77 के दौरान मुख्य कार्यकारी पार्षद (मुख्यमंत्री के समकक्ष) रहे। अगर तब दिल्ली विधानसभा होती तो वे यहां के पहले मुस्लिम मुख्यमंत्री होते। बेहद ओजस्वी वक्ता मीर मुश्ताक ने कभी अपने सिद्दांतों के साथ समझौता नहीं किया। मीर मुश्ताक अहमद ने दिल्ली में कई बार मोहम्मद अली जिन्ना को तब बोलने नहीं दिया था जब वे अपनी तकरीरों में सांप्रदायिकता का रंग घोलना चालू कर देते थे।
जिन्ना 1943 में दरियागंज में एक सभा को संबोधित करने आए थे। वहां पर मीर मुश्ताक अहमद और उनके तमाम साथी भी थे। जिन्ना ने जैसे ही देश के बंटवारे की बातें करनी शुरू की तो मीर मुश्ताक अहमद और उनके साथियों ने जिन्ना मुर्दाबाद के नारे लगाने चालू कर दिए। उन्हें सांप्रदायिकता किसी भी स्तर पर नामंजूर थी। वे लंबे समय तक जनता कोपरेटिव बैंक के सदर रहे। मीर मुश्ताक अहमद दिल्ली की 1952 में बनी पहली विधान सभा में कूचा चेलान सीट से निर्वाचित हुए थे।