नई दिल्लीः केंद्र सरकार ने दोषी सांसदों और विधायकों पर आजीवन चुनावी प्रतिबंध लगाने की मांग वाली याचिका का विरोध किया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि दंड की समय-सीमा तय करना असंवैधानिक नहीं है, क्योंकि इससे संतुलित दंड नीति सुनिश्चित होती है, जिसमें सजा का डर बना रहे लेकिन सख्ती भी ज्यादा न हो।

सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के प्रावधान "अनुपातिकता और तर्कसंगतता" के सिद्धांतों पर आधारित हैं। इसमें दोषी जनप्रतिनिधियों को उनकी सजा पूरी करने के बाद छह साल तक अयोग्य माना गया है। केंद्र ने दलील दी कि संसद के पास यह तय करने का विशेषाधिकार है कि अयोग्यता या सजा की अवधि कितनी होनी चाहिए।

हलफनामे में क्या लिखा गया?

हलफनामे में कहा गया है कि संसद विशेष कानून बनाने वाले प्राधिकारी के रूप में दोषी जनप्रतिनिधियों के लिए अयोग्यता या दंड की अवधि तय करने का विवेक रखती है।

सरकार का यह हलफनामा वकील अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका के जवाब में दाखिल किया गया, जिसमें दोषी जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 10 फरवरी को केंद्र से पूछा था कि अयोग्यता की अवधि केवल छह साल तक सीमित क्यों रखी गई है, क्योंकि "कानून तोड़ने वाला कानून बनाने के लिए कैसे योग्य हो सकता है?

अश्विनी उपाध्याय द्वारा यह याचिका साल 2016 में दायर की गई थी। इस याचिका में अधिनियम की धारा 8 और 9 की वैधता को चुनौती दी गई थी और दोषी सांसदों/विधायकों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी।

इसके जवाब में हलफनामे में कहा गया कि " याचिकाकर्ता जिस राहत की मांग कर रहा है वह प्रावधान को फिर से लिखने के समान है क्योंकि यह प्रभावी रूप से लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा -8 की सभी उप-धाराओं में 'छह साल' के बजाय 'जीवन भर' करने की मांग करता है।" यह एक प्रकार से कानून के पुनर्लेखन जैसा है। 

बीती 10 फरवरी को न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की बेंच ने एक आदेश दिया था जिसमें कहा गया था कि अयोग्यता की अवधि को छह साल तक सीमित करने के पीछे के तर्क पर सवाल उठाया गया था। इसमें कहा गया था कि कानून तोड़ने वाले को कानून बनाने की अनुमति देने में " हितों का टकराव " मौजूद है।

सुप्रीम कोर्ट की सीमाएं और संसद का अधिकार

हलफनामे में यह भी कहा गया कि अदालतें संसद को कोई विशेष कानून बनाने या उसमें संशोधन करने का निर्देश नहीं दे सकतीं। सरकार ने मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2021) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि न्यायपालिका कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है, लेकिन वह संसद को किसी खास तरीके से कानून बनाने का आदेश नहीं दे सकती।

सरकार ने यह भी दलील दी कि दंड का प्रभाव एक निश्चित समय के लिए होना चाहिए। "सजा पूरी करने के बाद व्यक्ति को समाज में पुनः सम्मिलित होने और अन्य अधिकारों का लाभ उठाने का अवसर मिलना चाहिए। समय-सीमित दंड प्रणाली से अनुशासन बना रहता है, लेकिन यह अत्यधिक कठोर भी नहीं होती।"

क्या हैं जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा-8 और 9? 

धारा-8 
मौजूदा कानून के अनुसार, अभी जिन चुने हुए प्रतिनिधियों के खिलाफ दोष सिद्धि हो जाती है। उन्हें कानून की धारा-8, सजा पूरी करने के बाद अगले छह साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराती है। यह सूचीबद्ध अपराधों की एक श्रृंखला और दो या अधिक वर्षों की सजा वाली किसी भी दोषसिद्धि पर लागू होती है।

धारा-9
अधिनियम की धारा - 9 भ्रष्टाचार या राज्य के प्रति विश्वासघात के लिए सरकारी सेवा से बर्खास्त किए गए व्यक्तियों को बर्खास्तगी की तारीख से पांच साल तक चुनाव लड़ने से रोकती है। 

केंद्र के हलफनामे में इस बात पर जोर दिया गया कि न्यायपालिका के पास असंवैधानिक कानून को रद्द करने की शक्ति है लेकिन अदालतें संसद को किसी विशेष तरीके से कानून बनाने या संशोधित करने का निर्देश नहीं दे सकती हैं।

केंद्र ने संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 का भी उल्लेख किया, जो विधायकों और सांसदों की अयोग्यता से जुड़े हैं। सरकार ने स्पष्ट किया कि ये प्रावधान संसद को कानून बनाने का अधिकार देते हैं, न कि कोई निश्चित दंड अवधि तय करते हैं।

मामले की सुनवाई आगामी चार मार्च को होनी है। ऐसी उम्मीद है कि इसमें अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी मामले में मदद कर सकते हैं। पिछली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करने का निर्देश दिया था और टिप्पणी की थी कि 'राजनीति का अपराधीकरण एक प्रमुख मुद्दा है।'