बहू को टीवी देखने से रोकना, ताना देना उत्पीड़न हो सकता है, क्रूरता नहीं: बॉम्बे हाईकोर्ट

कोर्ट ने पूर्व के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि इस मामले में दर्ज आरोप क्रूरता के दायरे में नहीं आते।

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Bombay High Court says Stopping daughter-in-law from watching TV taunting her can be harassment not cruelty

मुंबई: बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में एक व्यक्ति और उसके परिवार को बरी कर दिया, जिन पर मृत पत्नी के साथ क्रूरता करने का आरोप था। यह मामला साल 2004 का है, जब निचली अदालत ने उन्हें मृत पत्नी के प्रति क्रूरता के आरोप में दोषी ठहराया था। हालांकि, हाई कोर्ट ने निचली अदालत के इस फैसले को खारिज करते हुए कहा कि हर प्रकार का उत्पीड़न क्रूरता नहीं माना जा सकता।

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट मुताबिक कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल पत्नी के प्रति दुर्व्यवहार, उसके बनाए गए भोजन की गुणवत्ता पर टिप्पणी करना, उसे अकेले मंदिर जाने या टीवी देखने से मना करना जैसे व्यवहार भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत क्रूरता के दायरे में नहीं आते, इन्हें उत्पीड़न कहा जा सकता है।

हाई कोर्ट ने निचली अदालत के निर्णय को "अनुचित" बताते हुए कहा कि आत्महत्या और कथित क्रूरता के बीच संबंध स्थापित करने के लिए ठोस और स्पष्ट सबूत पेश नहीं किए जा सके।

'आरोप घरेलू मामलों से जुड़े, ये क्रूरता नहीं'

इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी खबर में लिखा है कि न्यायमूर्ति अभय एस वाघवासे ने 17 अक्टूबर को अपने फैसले में बताया कि इस मामले में लगाए गए आरोप गंभीर नहीं हैं और यह आरोप किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक क्रूरता के स्तर तक नहीं पहुंचते।

अधिकतर आरोप घरेलू मामलों से जुड़े हैं, जैसे कि महिला को पड़ोसियों से न मिलने देना, देर रात नहाने के बाद पानी लाने के लिए कहना, कालीन पर सुलाना, और टाइफाइड होने के बावजूद उससे घरेलू काम करवाना।

मृत महिला की चाची ने यह भी दावा किया था कि उसकी भतीजी को रात के 1:30 बजे नहाने के बाद पानी लाने के लिए मजबूर किया गया था, पर हाई कोर्ट ने कहा कि गांव के हालात को देखते हुए यह “असामान्य” नहीं था, क्योंकि पूरे गांव में पानी की आपूर्ति देर रात होती थी।

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निचली अदालत के फैसले पर हाईकोर्ट ने उठाए सवाल

अंग्रेजी अखबार के मुताबिक, न्यायमूर्ति वाघवासे ने निचली अदालत के उस निर्णय पर भी सवाल उठाए, जिसमें जज ने नवविवाहित दुल्हन के साथ व्यवहार के बारे में अपने विचार थोपे।

हाईकोर्ट ने कहा कि निचली अदालत का यह मानना कि महिला को यह सब सहन करना पड़ा था, असंगत था, क्योंकि उस समय गांव में पानी की व्यवस्था अलग थी। साथ ही कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत आरोपित अपराध की श्रेणी में आने के लिए आरोपों की गंभीरता और उनके प्रमाण जरूरी होते हैं।

कोर्ट ने पूर्व के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि इस मामले में दर्ज आरोप क्रूरता के दायरे में नहीं आते।

कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि क्रूरता एक ऐसा शब्द है, जो अलग-अलग व्यक्ति और हालात के लिए अलग-अलग होता है। धारा 498ए और 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत दर्ज किए गए मामले में यह जरूरी था कि मृतक महिला की आत्महत्या से पहले कोई स्पष्ट मांग या दुर्व्यवहार की स्थिति सामने आती, जिससे उसे आत्महत्या से जोड़ने का आधार बनता।

कोर्ट ने पाया कि मृतक और उसके परिवार के बीच बातचीत का कोई ऐसा रिकॉर्ड नहीं था जो यह संकेत दे कि उसे आत्महत्या के लिए उकसाया गया था। आत्महत्या का असल कारण स्पष्ट नहीं है, और कोर्ट के मुताबिक इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला कि आरोपी ने महिला के साथ इस हद तक क्रूरता की थी कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी।

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