आपको राजधानी के सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन से कुछ ही दूरी पर सड़क के दाहिनी तरफ बाबासाहब आंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक की बिल्डिंग मिलेगी। कोई बहुत पुरानी बिल्डिंग नहीं है। पहले यहां एक पुराना सा बंगला हुआ करता था। इधर बाबा आंबेडकर ने अपनी जिंदगी के अंतिम पांच बरस गुजारे थे। इधर ही उनका 5 और 6 दिसंबर 1956 की रात को किसी समय निधन हुआ था। यहां उनकी पत्नी डॉ. सविता, सेवक सुदामा और दो-तीन लोग अधिकतर समय रहा करते थे।
कैबिनेट छोड़ी, छोड़ा घर
बाबासाहब ने नेहरू कैबिनेट से 31 अक्तूबर,1951 को इस्तीफा दे दिया था और अगले ही दिन वे शामनाथ मार्ग के बंगले में शिफ्ट हो गए थे। कह सकते हैं कि मंत्री पद छोड़ने के बाद वे एक दिन भी सरकारी बंगले में नहीं रहे। हिन्दू कोड बिल पर नेहरू सरकार की नीयत से नाराज होकर बाबा साहेब ने कैबिनेट पद छोड़ा था। उनके चाहने वालों ने उन्हें पूसा रोड और करोल बाग में कई घर दिखाए।
इन दोनों जगहों में उनके बहुत सारे चाहने वाले रहा करते थे। इसी बीच सिरोही के राजा ने उन्हें 26 अलीपुर रोड (अब शामनाथ मार्ग) पर स्थित अपना बंगला उन्हें रहने के लिए दे दिया। बाबा साहेब इसी शर्त पर यहां शिफ्ट हुए थे कि वे (सिरोही के राजा को) सांकेतिक रेंट देंगे।
दिल्ली के उनके साथियों ने ट्रकों में भर-भरकर उनकी किताबें और उनका सामान नए घर में पहुंचाया। वहां बाबासाहब की तमाम किताबें आसानी से नए घर में समा गई।
सबके लिए था वक्त
आप जैसे ही 26 अलीपुर रोड के अंदर पहुंचते हैं, तो आपको कहीं ना कहीं लगता है कि बाबासाहब यहां पर ही कहीं होंगे। वे कभी भी कहीं से आपके सामने खड़े हो जाएंगे। बेशक, जिस जगह पर बाबासाहब जैसी शिखर हस्ती ने अपने जीवन के कुछ बरस बिताए वह जगह अपने आप में खास तो है। यहां नई इमारत बनने से पहले शामनाथ मार्ग के इस बंगले में बहुत से कमरे थे।
बंगले के आगे एक सुंदर सा बगीचा भी था। कहते हैं कि उनके घर के दरवाजे सबके लिए हमेशा खुले रहते थे। कोई भी उनसे कभी मिलने के लिए आ सकता था। वे सबको पर्याप्त वक्त देते थे। अपने पास मिलने के लिए आने वालों के साथ तमाम विषयों पर बात करते थे।
बाबासाहब के बाद
बाबासाहब की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सविता आंबेडकर करीब 3 साल तक इसी बंगले में रही। उसके बाद सिरोही के राजा ने बंगले को किसी मदन लाल जैन नाम के स्थानीय व्यापारी को बेच दिया। जैन ने आगे चलकर बंगले को स्टील व्यवसायी जिंदल परिवार को बेच दिया। जिंदल परिवार इसमें रहने लगा। उसने बंगले में कुछ बदलाव भी किए।
सन 2000 के आसपास देशभर के अंबेडकवादी मांग करने लगे कि 26 अलीपुर रोड को बाबासाहब के स्थायी स्मारक के रूप में विकसित किया जाए। मांग ने जोर पकड़ा। तब सरकार भी हरकत में आई। उसने जिंदल परिवार से बंगले को लिया। बदले में जिंदल परिवार को 26 शामनाथ मार्ग जितनी जमीन उसी क्षेत्र में दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2 दिसंबर, 2003 को इस बंगले को बाबासाहब के स्मारक के रूप में देश को समर्पित किया
दरअसल अलीपुर रोड को आप राजधानी का एलिट इलाका मान सकते हैं। इसे अंग्रेजों के दौर में ही विकसित कर दिया गया था। इससे सटे हैं फ्लैग स्टाफ रोड, राजपुर रोड, माल रोड, कमला नगर वगैरह। इसी क्षेत्र में दिल्ली विधान सभा और दिल्ली विश्वविद्लायल भी है। सुबह से शाम तक यह सारा क्षेत्र गुलजार रहता है। जगह-जगह पर बड़े-बड़े बगीचे हैं।
कहां लिखी ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’?
बाबासाहब ने 26, शाम नाथ मार्ग में रहते हुए ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’ नाम से अपनी कालजयी पुस्तक लिखी थी। इस में डॉ. आंबेडकर ने भगवान बुद्ध के विचारों की व्याख्या की है। बाबासाहब द्वारा लिखी यह अंतिम पुस्तक है। संपूर्ण विश्व भर और मुख्यतः बौद्ध जगत में यह पुस्तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसे मूलतः अंग्रेज़ी में ‘द बुद्धा ऐण्ड हिज़ धम्मा’ नाम से लिखा गया। इसका हिन्दी, गुजराती, तेलुगु, तमिल, मराठी, मलयालम, कन्नड़, जापानी सहित और कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान और भिक्खू डॉ. भदन्त आनंद कौसल्यायन जी ने इस ग्रंथ का हिंदी अनुवाद किया है।
26 शामनाथ मार्ग के पड़ोसी
26 शामनाथ मार्ग के करीब ही फिल्म सेंसर बोर्ड की मेंबर डॉ. अरुणा मुकिम भी रहती हैं। वे कहती हैं कि उन्हें बहुत बाद में मालूम चला कि बाबासाहब एक दौर में उनके प़ड़ोस में ही रहते थे। अब तो हमारे घर जो भी बाहर से आता है तो उसे हम 26 अलीपुर रोड जरूर लेकर जाते हैं। 26 अलीपुर रोड के बाबा साहेब के स्मारक के रूप में बनने के बाद इधर उनसे जुड़ी किताबें और दूसरी सामग्री वगैरह रखी गईं हैं।
जिन्होंने दिया था बाबासाहब की मृत्यु का समाचार
बाबा साहेब के साथ उनके दिल्ली प्रवास के दौरान तीन-चार लोग उनकी छाया बनकर रहे। वे उनकी 24 घंटे और सातों दिन सेवा करते। ये सब बाबासाहब के 22 पृथ्वीराज रोड से लेकर 26 शाम नाथ मार्ग वाले घरों में 6 दिसम्बर 1956 को उनकी मृत्यु तक रहे। इन सबकी बाबासाहब के विचारों को लेकर आस्था अटूट थी। उनमें होतीलाल पिपल भी थे। मूलत: अलीगढ़ के रहने वाले पिपल जी सन पचास से ही बाबा साहब से जुड़ गए थे।
वे बाबासाहब के 22 पृथ्वीराज रोड और फिर 26 अलीपुर रोड वाले घर में उनके कागजातों को संभालने से लेकर घर को मैनेज करते थे। उन्हीं की देखरेख में 14 अप्रैल 1956 को बाबा साहेब का जन्म दिन 26 अलीपुर रोड में भव्य पैमाने पर मनाया गया था। 13 अप्रैल से ही बंगले को दुल्हन की तरह सजाया गया था। पूरे दिन समारोह चला।
बाबासाहब के सहयोगी होतीलाल पिपल 6 दिसंबर,1956 को सुबह बाबासाहब के घर पहुंचे तो वे चल बसे थे। वे बाबासाहब के बंगले में सुबह पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्होंने यह समाचार आकाशवाणी को दिया था कि बाबा साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनकी देखरेख में ही बाबा साहब का पार्थिव शरीर सफदरजंग एयरपोर्ट से मुंबई ले जाया गया। यह जानकारी होतीलाल पिपल के पुत्र और वरिष्ठ लेखक डॉ. रविन्द्र कुमार देते हैं।
डॉ रविन्द्र कुमार ने बताया कि बाबा साहब के पार्थिव शरीर को सफदरजंग हवाई अड्डे पहुंचा कर उनके पिता फिर 26 अलीपुर रोड आए तो बाबा साहब का पैट डॉग टौबी भी मृत मिला। होतीलाल पिपल के समाज सेवा के जज्बे को देखते हुए बाबासाहब के करीबी दादासाब बी के गायकवाड और अध्यक्ष भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने उन्हें 15 जनपथ पर रहने की जगह दे दी। वे यहां से रिपब्लिकन पार्टी के कार्यालय सचिव के रूप में काम भी करने लगे।
वो बाबा साहेब के परम सहयोगी
बाबासाहब के विचारों को आमजन के बीच में ले जाने में भगवान दास का भी योगदान अतुल्नीय रहा। वे बाबासाहब से उनके 26 अलीपुर रोड स्थित आवास में मिला करते थे। भगवान दास एक बार बाबासाहब से मिलने दिल्ली आए तो फिर यहां के होकर ही रह गए। उन्होंन बाबासाहब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं।
उनका “दस स्पोक अंबेडकर” शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज है जिनके जरिये बाबासाहब के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे। भगवान दास ने सफाई कर्मचारियों पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। भगवान दास का 83 साल की उम्र में 2010 में निधन हो गया था।
कौन थे बाबासाहब के देवी दयाल?
बाबासाहब की निजी लाइब्रेरी में हजारों किताबें थीं। उन्हें अपनी लाइब्रेयरी बहुत प्रिय थी। उस लाइब्रेरी को देखते थे देवी दयाल। वे बाबा साहेब से 1943 में जुड़े रहे। बाबासाहब जहां कुछ भी बोलते तो देवी दयाल उसे प्रवचन मानकर नोट कर लिया करते थे। कहना कठिन है कि उन्हें ये प्रेरणा कहां से मिली थी। वे बाबासाहब के पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों और बयानों आदि की कतरनों को भी रख लेते थे।
बाबासाहब के सानिध्य का लाभ देवी दयाल को ये हुआ कि वे भी खूब पढ़ने लगे। वे बाबासाहब के बेहद प्रिय सहयोगी बन गए। उन्होंने आगे चलकर ‘डॉ.अंबेडकर की दिनचर्या’ नाम से एक महत्वपूर्ण किताब ही लिखी। देवी दयाल का 1987 में निधन हो गया था। वे साउथ दिल्ली के मुनिरका में रहा करते थे।
एक थे नानक चंद रत्तू
नानक चंद रतू भी बाबासाहब की छाया की तरह रहा करते थे। बाबासाहब 1942 में वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में दिल्ली आ गए थे। उन्हें 22 प़ृथ्वीराज रोड पर सरकारी आवास मिला। बस तब ही लगभग 20 साल के रत्तू उनके साथ जुड़ गए। वे टाइपिंग जानते थे।
रत्तू को बाबासाहब के समाज के कमजोर वर्गों के लिए कार्यों और संघर्षों की जानकारी थी। बाबासाहब ने उत्साही और उर्जा से लबरेज रत्तू को अपने पास रख लिया। उस दौर में बड़े नेताओं और आम जनता के बीच दूरियां नहीं हुआ करती थी। रत्तू पंजाब के होशियारपुर से थे। उसके बाद तो वे बाबासाहब की छाया की तरह रहे। बाबासाहब जो भी मैटर उन्हें डिक्टेट करते वह उसकी एक कॉर्बन कॉपी अवश्य रख लेते। वे नौकरी करने के साथ पढ़ भी रहे थे।
बाबासाहब की 1956 में सेहत बिगड़ने लगी। रत्तू जी उनकी दिन-रात सेवा करते। वे तब दिन-रात उनके साथ रहते। बाबासाहब के निधन के बाद रतू जी सारे देश में जाने लगे बाबासाहब के विचारों को पहुंचाने के लिए। अपनी सन 2002 में मृत्यु से पहले उन्होंने बाबासाहब के जीवन के अंतिम वर्षों पर एक किताब भी लिखी। उनका परिवार पश्चिम विहार में रहता है।