भगत सिंह ने जब फांसी से पहले पिता की ओर से ब्रिटिश शासन को लिखी 'दया याचिका' पर जताया था कड़ा ऐतराज

भगत सिंह अपने सिद्धांतों के कितन पक्के थे, इसका एक उदाहरण तब मिलता है जब उनके पिता ने ब्रिटिश शासन को अपने बेटे को निर्दोष बताते हुए चिट्ठी लिखी और माफी की मांग की। भगत सिंह ने इसका विरोध करते हुए बेहद कड़े शब्दों में अपने पिता को चिट्ठी लिखकर इसका जवाब दिया था।

एडिट
भगत सिंह ने जब फांसी से पहले पिता की ओर से ब्रिटिश शासन को लिखी 'दया याचिका' पर जताया था कड़ा ऐतराज

शहीदे आजम भगत सिंह की 117वीं जयंती

नई दिल्ली: शहीदे आजम भगत सिंह की 117वीं जयंती देश मना रहा है। ब्रिटिश हुकूमत की आंखों में आंखें डाल कर अपनी बात कहने वाले भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को हुआ। महज छोटी से उम्र में भगत सिंह ने दुनिया को अलविदा कहा और भारत के इतिहास में अमर हो गए। आजादी के लिए लड़ते हुए 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत ने लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी से लटका दिया था। भगत सिंह और उनके साथियों को अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या के लिए फांसी दी गई थी।

भगत सिंह के खिलाफ जब गुलाम भारत के कोर्ट में सुनवाई चल रही थी, उस समय का एक मशहूर किस्सा है। दरअसल, भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने स्पेशल ट्रिब्यूनल को पत्र लिखकर गुहार लगाई कि उनका बेटा निर्दोष है और ट्रिब्यूनल उन्हें माफी दे दे। हालांकि, भगत सिंह अपने पिता की इस याचिका से सहमति नहीं रखते थे। उन्होंने पिता को एक चिट्ठी लिखी और कड़े शब्दों में उनके माफीनामे वाली याचिका का विरोध किया। क्या है पूरी कहानी...आइए जानते हैं।

भगत सिंह की गिरफ्तारी और ट्रायल

भगत सिंह को शुरू में सेंट्रल असेंबली में बमबारी करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने यह बम किसी को नुकसान पहुंचाने या मारने के लिए नहीं फेंका था। बम फेंकने के बाद वे वहां डटे रहे और पर्चे भी फेंके जिसमें लिखा था, 'बहरों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज की जरूरत होती है।'

साफ था भगत सिंह का यह कटाक्ष ब्रिटिश शासन पर था। वैसे भी उस समय की संसद बस 'दिखावे' के लिए थी। असल फैसले ब्रिटेन से ही लिए जाते थे। बहरहाल, भगत सिंह और दत्त दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। यह 1929 का साल था। दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

हालांकि बाद में भगत सिंह को लाहौर षडयंत्र मामले के सिलसिले में फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। दरअसल, लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और शिवराम ने ब्रिटिश पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट को मारने की योजना बनाई थी। इस योजना को 17 दिसंबर 1928 को अंजाम दिया गया। हालांकि गलत पहचान की वजह से स्कॉट की जगह क्रांतिकारियों ने लाहौर में जूनियर ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन पी सॉन्डर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी।

इस घटना के बाद वायसराय इरविन ने लाहौर षडयंत्र मामले की सुनवाई में तेजी लाने के लिए एक विशेष ट्रिब्यूनल की स्थापना की। हालांकि, इस मामले में कोर्ट में निष्पक्ष सुनवाई नहीं होने के भी आरोप हैं। भगत सिंह और उनके साथियों के पक्ष को जिरह का पूरा मौका नहीं मिला। बहरहाल, 7 अक्टूबर 1930 को ट्रिब्यूनल ने 300 पन्नों का फैसला सुनाते हुए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई। ब्रिटिश हुकूमत ने इन तीनों को कोर्ट की ओर से निर्धारित किए गए समय से एक रात पहले ही फांसी दे दी।

पिता के माफीनामे का भगत सिंह ने किया था विरोध

इस मुकदमे के अंतिम चरण के दौरान भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को पत्र लिखकर अपने बेटे को निर्दोष बताया था। उन्होंने कहा कि उनके बेटे का सॉन्डर्स की हत्या से कोई लेना-देना नहीं था। अहम बात ये भी है कि किशन सिंह खुद भारत की आजादी के संघर्ष में शामिल थे लेकिन संभवत: उनके बेटे की फांसी की आशंका ने उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया। भगत सिंह को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने खुद पिता के नाम चिट्ठी लिखी और इसका विरोध किया।

पिता के नाम चिट्ठी में भगत सिंह ने लिखा, 'मुझे यह जानकर हैरानी कि आपने मेरे बचाव के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल के सदस्यों को एक याचिका दायर की है...इसने मेरे दिमाग का पूरा संतुलन बिगाड़ दिया है।' भगत सिंह अपने इस पत्र में बेहद कहते हैं कि उनके पिता होने के बावजूद वह ऐसा कदम उठाने के हकदार नहीं हैं क्योंकि भगत सिंह ने हमेशा 'मंजूरी या अस्वीकृति (पिता की) की परवाह किए बिना स्वतंत्र रूप से काम किया है।'

भगत सिंह ने अपने पिता के लिए इसे 'सबसे खराब कमजोरी' बताया और लिखा, 'मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरी पीठ में छुरा घोंपा गया है।'

भगत सिंह कहते हैं, 'मैं बहुत दुखी हूं। मुझे भय है कि आप पर दोषारोपण करते हुए मैं सभ्यता की सीमा ना लांघ जाऊं, और मेरे शब्द ज्यादा सख्त ना हो जाएं। लेकिन मैं यहां स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूंगा। यदि कोई और ऐसा करता, तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता। लेकिन आप के संदर्भ में मैं इतना ही कहूंगा कि यह एक निचले स्तर की कमजोरी है। इस वक्त हम सब का इम्तिहान हो रहा था और आप इस इम्तिहान में नाकाम रहे हैं।'

उन्होंने लिखा, 'मेरी हमेशा से यह राय रही है कि सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को कानून अदालतों में कानूनी लड़ाई के बारे में कभी परेशान नहीं होना चाहिए और उन्हें मिलने वाली कड़ी से कड़ी सजा को साहसपूर्वक सहन करना चाहिए...मेरी जिंदगी इतनी कीमती नहीं है...यह मेरे सिद्धांतों की कीमत पर खरीदने लायक बिल्कुल भी नहीं है।'

यह भी पढ़ें- काकोरी कांड के 100 साल: भारत की आजादी के संघर्ष का एक अमर अध्याय

यह भी पढ़ें
Here are a few more articles:
Read the Next Article