राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने उत्तराखंड में 13 ग्लेशियल झीलों की पहचान की है। (प्रतिकात्मक तस्वीर- IANS)
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देहरादूनः उत्तराखंड, जो अपनी हिमालयी सुंदरता के लिए जाना जाता है, ग्लेशियर झीलों के कारण प्राकृतिक आपदाओं के गंभीर खतरे का सामना कर रहा है। 2013 में केदारनाथ और 2021 में चमोली में आई तबाही ने राज्य को ग्लेशियर झीलों से जुड़े जोखिमों के प्रति सजग कर दिया है। इन्हीं खतरों से निपटने के लिए अब उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूएसडीएमए) ने एक विस्तृत कार्ययोजना पर काम शुरू किया है, जो इन झीलों की निगरानी और आपदा प्रबंधन में तकनीकी सशक्तिकरण पर केंद्रित है।
ग्लेशियर झीलों का व्यापक अध्ययन
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग ने सैटेलाइट के जरिए पता लगाया है कि उत्तराखंड के ऊपरी हिमालय क्षेत्र में कई ऐसी खतरनाक झीलें बन गई हैं जो कभी भी बड़ी तबाही ला सकती हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने उत्तराखंड में 13 ग्लेशियर झीलों की पहचान की है जो GLOF यानी ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial Lake Outburst Flood) का कारण बन सकती हैं।
इनमें से पांच झीलें श्रेणी 'ए' में आती हैं, जिन्हें सबसे अधिक जोखिम वाली झीलों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ये झीलें समुद्र तल से 4,351 मीटर से 4,868 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं। चमोली जिले की वसुधारा झील का सर्वेक्षण पिछले साल किया गया, जबकि पिथौरागढ़ जिले की चार अन्य श्रेणी 'ए' झीलों का सर्वेक्षण 2025 में किया जाएगा।
क्या है GLOF और इसके खतरे
ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) तब होता है जब ग्लेशियल झीलें अचानक टूट जाती हैं, जिससे भारी मात्रा में पानी, मलबा, पत्थर और बर्फ निचले इलाकों में बहने लगता है। यह विनाशकारी बाढ़ जनहानि, बुनियादी ढांचे को नुकसान और पर्यावरणीय तबाही का कारण बन सकती है। 2013 में केदारनाथ और 2021 में चमोली आपदाओं ने GLOF के खतरों को उजागर किया। केदारनाथ में हजारों लोगों की जान गई, जबकि चमोली में 70 से अधिक लोग मारे गए थे और राज्य को बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान हुआ था।
2024 की शुरुआत में भागीरथी, मंदाकिनी और अलकनंदा नदियों के पास स्थित ग्लेशियर झीलों की निगरानी कर रहे आईआईआरएस ने जानकारी दी थी कि केदारताल, भिलंगना और गोरीगंगा ग्लेशियर क्षेत्र लगातार विस्तृत हो रहे हैं। इन क्षेत्रों को भविष्य में आपदा जोखिम के लिहाज से अत्यधिक संवेदनशील माना जा सकता है।
जोखिम को कम करने के लिए कई स्तरों पर प्रयास
ग्लेशियर झीलों के जोखिम को कम करने के लिए कई स्तरों पर प्रयास किए जा रहे हैं। सेटेलाइट और ग्राउंड-आधारित सर्वेक्षण के माध्यम से झीलों की लंबाई, गहराई और पानी के दबाव का अध्ययन किया जा रहा है। जोखिम को कम करने के लिए 'पंचर तकनीक' के तहत झीलों में डिस्चार्ज क्लिप पाइप्स डाले जाएंगे, जिससे नियंत्रित तरीके से पानी का रिसाव होगा। जल स्तर सेंसर, स्वचालित मौसम स्टेशन और थर्मल इमेजिंग उपकरणों के माध्यम से झीलों की वास्तविक समय में निगरानी की जा रही है। इसके साथ ही जोखिम क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सतर्क करना और बस्तियों को स्थानांतरित करना भी योजना का हिस्सा है।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, यूएसडीएमए के सचिव विनोद कुमार सुमन ने बताया कि ग्लेशियर झीलों की निगरानी के लिए जल-स्तर सेंसर, स्वचालित मौसम स्टेशन, और थर्मल इमेजिंग उपकरण जैसी अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाएगा। इन उपकरणों के जरिए झीलों के जल स्तर और पर्यावरणीय परिवर्तनों पर नजर रखी जाएगी।
चरणबद्ध तरीके से होगा झीलों का सर्वेक्षण
यूएसडीएमए अधिकारी मनीष भगत ने बताया कि सर्वेक्षण के पहले चरण में झील की भौगोलिक संरचना जैसे लंबाई, चौड़ाई और गहराई का अध्ययन किया जाता है। इसके बाद तकनीकी उपकरणों की सहायता से वास्तविक समय में निगरानी और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित की जाती है।
संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी ओबैदुल्ला अंसारी ने बताया कि ग्लेशियर झीलों को उनकी संवेदनशीलता के आधार पर तीन श्रेणियों—ए, बी और सी—में विभाजित किया गया है। इनमें श्रेणी 'ए' सबसे अधिक संवेदनशील है। एनडीएमए इस परियोजना के लिए 150 करोड़ रुपये का बजट आवंटित कर चुका है, जिसमें उत्तराखंड को 30 करोड़ रुपये दिए गए हैं।