9 अगस्त, 1925। भारत के इतिहास में एक ऐसा दिन जिसने आजादी के संघर्ष को एक नई दिशा दी। उस दिन, उत्तर प्रदेश के काकोरी के पास एक रेलवे स्टेशन पर एक ऐसी घटना घटी जिसने ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया। इस साहसिक घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है।
उस दिन, 10 क्रांतिकारी सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में काकोरी स्टेशन पर सवार हुए और यात्रा शुरू होने के कुछ ही मिनटों में चेन खींच दी। ट्रेन काकोरी से लगभग 2 किलोमीटर दूर बजनगर नामक एक गांव में रुक गई। क्रांतिकारियों ने अपनी योजना के अनुसार काम किया और रेल के माध्यम से ले जाए जा रहे ब्रिटिश खजाने के पैसे लूट लिए।
काकोरी कांड या काकोरी ट्रेन डकैती षड्यंत्र के नाम से मशहूर इस साहसी कृत्य ने ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया और स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी। इस साल इस घटना के 100 साल पूरे हो गए। इस अवसर पर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शताब्दी समारोह का शुभारंभ किया।
काकोरी कांड, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) द्वारा किया गया पहला प्रमुख एक्शन था, जो 1924 में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान और सचिंद्र नाथ बक्षी जैसे लोगों द्वारा स्थापित एक क्रांतिकारी संगठन था।
क्या हुआ था काकोरी में?
कहानी वहीं से शुरू होती है जहां से असहयोग आंदोलन के समापन का ऐलान हुआ था। 1922 में चौरी चौरा कांड में 22 पुलिसकर्मियों की हत्या से दुखी होकर गांधी जी ने अपने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। कांग्रेस पार्टी का एक धड़ा इस आंदोलन की वापसी नहीं चाहता था। क्रांतिकारी दो हिस्सों में बंट गए गरम दल और नरम दल।
गरम दल का मानना था कि आजादी अहिंसा से नहीं बल्कि बंदूक से ली जाएगी, जिसके लिए उन्हें हथियार खरीद के लिए पैसे की जरूरत पड़ेगी और यहीं रच दी गई काकोरी ट्रेन लूट कांड की पटकथा। साल 1925 और तारीख थी 9 अगस्त।
सहारनपुर से चलने वाली 8 डाउन पैसेंजर में रोशन सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्लाह खां , राजेंद्र लाहिड़ी, दुर्गा भगवती चंद्र वोहरा, सचींद्र बक्शी, चंद्रशेखर आजाद, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल, सचिंद्र नाथ सान्याल और मन्मथ नाथ गुप्ता को मिलाकर कुल 10 क्रांतिकारी सवार हुए।
योजना के अनुसार अशफाकुल्लाह खां, राजेंद्र लाहिड़ी और सचींद्र बक्शी सेकंड क्लास में और बाकी सब थर्ड क्लास में बिठाए गए। इन तीन क्रांतिकारियों के सेकंड क्लास में यात्रा करने की वजह ट्रेन को रोकना था। ट्रेन की जंजीर खींच कर तय समय पर, तय जगह पर रोकने की योजना थी। पंजाबी पत्रिका किरती में भगत सिंह ने बताया था कि उन्हें पता था कि थर्ड क्लास की जंजीर भी थर्ड क्लास सी ही होती है इसलिए सेकेंड क्लास में बैठे क्रांतिकारियों को जिम्मेदारी सौंपी गई।
ट्रेन जैसे ही हरदोई की सीमा को पार करते हुए काकोरी पहुंची तय योजना के मुताबिक चेन खींच दी गई। गार्ड के डिब्बें में रखे सरकारी खजाने को लूट लिया गया। अंग्रेजी पुलिसकर्मियों और क्रांतिकारियों के बीच गोलीबारी शुरू हुई। इस दौरान क्रांतिकारियों के लाख मना करने के बावजूद एक शख्स डिब्बे से निकला और मन्मथ नाथ गुप्ता की गोली का शिकार हो गया।
गोलीबारी के बीच पास ही मौजूद आम के बाग में 200 किलो खजाने से भरे बक्से को ले जाया गया। यहीं अशफाक़ुल्लाह खां ने इसे कुल्हाड़ी से काटा। सब कुछ एक चादर में बांध आजादी के मतवाले वहां से फरार हो गए। इस खजाने में कुल 4601 रुपए थे।
क्रांतिकारियों तक कैसे पहुंचे अंग्रेज पुलिस?
इस लूट के बाद मौके पर पहुंची अंग्रेज पुलिस को एक चादर बरामद हुई जिस पर लखनऊ के उस धर्मशाला की मोहर लगी थी, जिसमें ये क्रांतिकारी अक्सर रुकते था।
सीआईडी अधिकारी हार्टन ने काकोरी कांड की जांच की जिम्मेदारी संभालते हुए इस कांड की सच्चाई को उजागर किया। पुलिस ने तेज-तर्रार कार्रवाई करते हुए सितंबर का महीना आते-आते बड़ी संख्या में क्रांतिकारी और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया। इन गिरफ्तारियों में रोशन सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी जैसे नाम प्रमुख थे।
जिन आरोपियों को जस्टिस आर्किबाल्ड हैमिल्टन की स्पेशल सेशंस कोर्ट में मुकदमे के लिए खड़ा किया गया था, उनमें से 19 लोगों को दोषी ठहराया गया। बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और अशफाकुल्ला खान को मौत की सजा सुनाई गई, जबकि अन्य को अलग-अलग जेल की सजा हुई, जिनमें से पांच को कुख्यात काला पानी (पोर्ट ब्लेयर की सेल्युलर जेल) में निर्वासन भी शामिल था।
17 दिसंबर, 1927 को लाहिड़ी को गोंडा जेल में फांसी दी गई। दो दिन बाद, 19 दिसंबर, 1927 को अशफाकुल्ला, रोशन और बिस्मिल को भी मौत की सजा दी गई – अशफाकुल्ला को फैजाबाद जेल में, रोशन को नैनी (इलाहाबाद) जेल में और बिस्मिल को गोरखपुर जेल में। इस केस में 29 लोगों को सजा हुई बाकी सबको छोड़ दिया गया।
काकोरी कांड के वकील जो बाद में सीएम तक बने
काकोरी कांड का देश पर आजादी के बाद भी काफी असर रहा। यूपी के पहले और तीसरे मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत और चंद्रभानु गुप्ता इस मामले में बचाव पक्ष के वकील थे, जबकि कांग्रेस के सदस्य जगन्नाथ मुल्ला, जिन्हें 1921 में आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत में मंत्री नियुक्त किया गया था, ने अभियोजन पक्ष का प्रतिनिधित्व किया।
जगन्नाथ मुल्ला, जिन्होंने कांग्रेस छोड़कर लिबरल पार्टी ज्वाइन की थी, का 1938 में निधन हो गया। उनके बेटे आनंद नारायण मुल्ला, जो काकोरी केस में उनकी लीगल टीम का भी हिस्सा थे, को अगस्त 1954 में इलाहाबाद हाई कोर्ट का जज बनाया गया। उन्होंने राजनीतिक करियर भी बनाया – वह 1967 में लखनऊ से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में लोकसभा के लिए चुने गए और 1972 में कांग्रेस के नामांकन पर राज्यसभा के लिए चुने गए।