कुछ दिन पहले 24 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने जस्टिस संजीव खन्ना को भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के रूप में नियुक्त करने की सिफारिश को स्वीकर कर लिया। इससे करीब एक हफ्ते पहले निवर्तमान सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने इस संबंध में सिफारिश भेजी थी। जस्टिस खन्ना अभी शीर्ष अदालत में सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं और 10 नवंबर, 2024 से 13 मार्च, 2025 को उनकी सेवानिवृत्ति तक छह महीने की अवधि के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश रहेंगे।
इंदिरा गांधी का अन्याय
नए सीजेआई जस्टिस एचआर खन्ना के भतीजे हैं, जिन्हें इंदिरा गांधी सरकार ने नजरअंदाज करते हुए शीर्ष पद नहीं दिया था। इंदिरा गांधी की सरकार ने तब ऐसा इसलिए किया क्योंकि जस्टिस खन्ना ने तत्कालीन सीजेआई एएन रे की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच में बैठकर एक केस पर सरकार के खिलाफ फैसला दिया था। उस मामले में पांच जजों की बेंच में एक जस्टिस खन्ना ही थे जिन्होंने असहमति जताई थी। ये आपातकाल का दौर था।
इससे पहले जस्टिस रे को भी सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों- जयशंकर मणिलाल शेलत, एएन ग्रोवर और के.एस. हेगड़े को नजरअंदाज कर शीर्ष पद पर नियुक्त किया गया था। इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमले के रूप में देखा गया था।
इससे क्या नहीं कहा जा सकता कि जस्टिस रे ने इंदिरा गांधी द्वारा उन पर किये गये एहसान का बदला नहीं चुकाया। न्यायमूर्ति मोहम्मद हिदायतुल्ला (जो पहले सीजेआई थे) ने टिप्पणी की थी कि ‘यह (सीजेआई के रूप में जस्टिस रे की नियुक्ति) ‘आगे देखने वाले जज’ नहीं बल्कि चीफ जस्टिस के पद के लिए ‘आगे देखने वाले जज’ बनाने का एक प्रयास था।’
जस्टिस खन्ना को चुकानी पड़ी कीमत
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने संविधान में निहित मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया था। हालांकि, कई उच्च न्यायालय इन अधिकारों को न खत्म किया जा सकने वाला बताते हुए याचिकाकर्ताओं को राहत देते रहे। हालांकि, इंदिरा गांधी की सरकार ने एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले के नाम से जाने जाने वाले केस में फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया।
इस मामले में फैसला भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए एन रे, जस्टिस एम एच बेग, वाई वी चंद्रचूड़, पी एन भगवती और एच आर खन्ना की पांच जजों की पीठ ने दिया। चार जजों ने एक पक्ष में निर्णय दिया लेकिन जस्टिस एच आर खन्ना ने बहुमत की इस राय से असहमति जताई। आगे चलकर इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के सामने खड़े होने की उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
जस्टिस एच आर खन्ना तब के चीफ जस्टिस ए एन रे की जगह लेने के लिए सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे, लेकिन उस एक मामले में सरकार के खिलाफ फैसले ने उनके भाग्य पर मुहर लगा दी। सरकार ने उन्हें नजरअंदाज कर जस्टिस एम एच बेग को अगला सीजेआई नियुक्त करने का फैसला किया। इस पर जस्टिस खन्ना ने जस्टिस बेग के अधीन काम नहीं करने का फैसला किया और सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में पलटा फैसला
यह भी दिलचस्प है कि उस फैसले पर सहमति जताने वाले सुप्रीम कोर्ट के सभी अन्य तीन जज बाद में मुख्य न्यायाधीश बने। जिसने असहमति वाला फैसला दिया और उसी का फैसला आज कायम है। जस्टिस एच आर खन्ना के फैसले को ही सही माना गया और 2017 में ऐतिहासिक पुट्टुस्वामी बनाम भारत संघ के मामले में सहमत न्यायाधीशों के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था।
एडीएम जबलपुर का वह केस जिसे बंदी प्रत्यक्षीकरण मामला (Habeas Corpus Case) भी कहा जाता है, उसके फैसले को 41 साल बाद 9 जजों की संवैधानिक पीठ ने खारिज कर दिया था। बेंच ने फैसला सुनाया- ‘अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट, जबलपुर के मामले में बहुमत वाले सभी चार जजों द्वारा दिए गए फैसले गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण हैं। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानव अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं। ये अधिकार, जैसा कि केशवानंद भारती केस में माना गया है, मौलिक अधिकार हैं। इन अधिकारों का गठन प्राकृतिक कानून के तहत हैं। न तो जीवन और न ही स्वतंत्रता, राज्य द्वारा प्रदत्त इनाम हैं और न ही संविधान इन अधिकारों का निर्माण करता है।’
फैसले में आगे कहा गया, ‘जीवन का अधिकार संविधान के आने से पहले भी अस्तित्व में रहा है। अधिकार को मान्यता देने में, संविधान अधिकारों का एकमात्र भंडार नहीं बन जाता है। ऐसा सुझाव देना बेतुका होगा कि अधिकारों के कानून के बगैर एक लोकतांत्रिक संविधान व्यक्तियों के जीने के अधिकार को राज्यों के भरोसे छोड़ देगा। जीवन का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपरिहार्य है। यह संविधान से पहले भी अस्तित्व में था और संविधान के अनुच्छेद के तहत भी लागू रहा।’
कोर्ट ने माना, ‘जस्टिस खन्ना इस मामले में स्पष्ट रूप से सही थे कि संविधान के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की मान्यता उस हमेशा से रहे अधिकार के अस्तित्व को नहीं छिनती है। इसके अलावा न ही ऐसी कोई मूर्खतापूर्ण धारणा होनी चाहिए कि संविधान को अपनाते हुए भारत के लोगों ने मानव व्यक्तित्व के सबसे अनमोल पहलू यानी जीवन, अधिकार और स्वतंत्रता को राज्य को सौंप दिया, और उसकी दया पर ये अधिकार निर्भर होंगे।’
जस्टिस पीएन भगवती की कहानी
अहम ये भी है कि आपातकाल के दौरान जस्टिस पीएन भगवती ने इंदिरा गांधी की खुलकर प्रशंसा की थी। जब जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इंदिरा गांधी की आलोचना की। यही नहीं, 1980 में जब इंदिरा गांधी सरकार बनाने के लिए दोबारा चुनी गईं तो जस्टिस भगवती ने फिर पलटी मारी और इंदिरा का समर्थन किया।
सत्तारूढ़ सरकार के पक्ष में और इंदिरा गांधी के प्रति अपने रुख में बार-बार बदलाव के लिए भगवती की आलोचना भी हुई। कई लोग इसे उनके करियर की संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए उठाया गया कदम भी माना। वैसे जस्टिस भगवती के इस फ्लिप फ्लॉप के बाद वे अपने लक्ष्य तक भी पहुंचे और भारत के मुख्य न्यायाधीश बने। बहुत बाद में साल 2011 में भगवती ने माना कि एडीएम जबलपुर केस का उनका फैसला अदूरदर्शी था और इसके लिए उन्होंने माफी भी मांगी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि उन्होंने दोनों तरफ अपनी बात रखी। जरूरत के समय वे इंदिरा गांधी के सामने झुकते नजर आए और बाद में अपना नाम बचाने के लिए सार्वजनिक रूप से माफी भी मांग ली।