कौन थे सर चेट्टूर शंकरन नायर जिनके ऊपर बनी है अक्षय कुमार की फिल्म- केसरी चैप्टर 2

सर चेट्टूर शंकरन नायर पेश से वकील थे और बाद में जज भी बने। वे 1897 में कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष भी बने। उनका जन्म 1857 में केरल के पलक्कड़ जिले के मनकारा गांव में एक संपन्न परिवार में हुआ था।

Shankaran Nair

Photograph: ( Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: अक्षय कुमार की फिल्म केसरी चैप्टर 2: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ जलियांवाला बाग शुक्रवार (18 अप्रैल) को सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। यह फिल्म 1919 के क्रूर जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद की घटनाओं को दर्शाती है। फिल्म में मुख्य रूप से जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद सर चेट्टूर शंकरन नायर ने जिस तरह ब्रिटिश साम्राज्य को कोर्ट में घसीटा और कानूनी लड़ाई लड़ी, उसकी कहानी को दर्शाया गया है।

भारतीय न्यायविद और राष्ट्रवादी नायर को हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी याद किया था। इसी हफ्ते सोमवार (14 अप्रैल) को उन्होंने केरल में जन्मे वकील नायर के ब्रिटिश अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने में योगदान को याद किया। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के हर व्यक्ति को शंकरन नायर और उनके योगदान के बारे में जानना चाहिए। 

उन्होंने कहा, 'हमें उन्हें याद रखना चाहिए, वे एक प्रेरणा हैं और हमारी देशभक्ति की भावना के प्रतीक हैं।' केसरी चैप्टर 2 फिल्म ने नायर को फिर से चर्चा में ला दिया है। आइए एक नजर डालते हैं कि वे कौन थे और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अदालती लड़ाई की कहानी क्या है?

कौन थे सर चेट्टूर शंकरन नायर

सर चेट्टूर शंकरन नायर पेश से वकील थे और बाद में जज भी बने। वे राजनेता भी थे। उनका जन्म 1857 में केरल के पलक्कड़ जिले के मनकारा गांव में एक संपन्न परिवार में हुआ था। मद्रास लॉ कॉलेज से कानून की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने 1880 में मद्रास उच्च न्यायालय में अपनी प्रैक्टिस शुरू की। चार साल बाद नायर को मद्रास सरकार द्वारा मालाबार जिले की जांच के लिए गठित समिति में नियुक्त किया गया।

नायर अपनी बातों और विश्वास पर अडिग रहने वाले शख्स थे। इस वजह से उनकी छवि एक जिद्दी किस्म के शख्स की भी बन गई थी। यही वजह है कि कई अंग्रेज और नायर के अपने सहयोगी भी खास पसंद नहीं करते थे।

नायर के परपोते रघु पलात और उनकी पत्नी पुष्पा पलात द्वारा लिखित 2019 की पुस्तक, 'द केस दैट शुक द एम्पायर: वन मैन्स फाइट फॉर द ट्रुथ अबाउट द जलियांवाला बाग नरसंहार,' में उल्लेख किया गया है कि तब भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एडविन मोंटेग ने एक बार नायर को एक 'असंभव व्यक्ति' बताया था, जो 'अपनी पूरी आवाज में चिल्लाता है और जब कोई बहस होती है तो कुछ भी सुनने से इनकार कर देता है, और बिल्कुल समझौता नहीं करता है।'

नायर 1897 में कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष भी बने। नायर ने मद्रास उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के तौर पर भी सेवा दी। 1912 में, साम्राज्य (ब्रिटिश) के प्रति उनकी सेवाओं के लिए उन्हें ब्रिटिश क्राउन द्वारा नाइट की उपाधि दी गई। तीन साल बाद नायर वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य बन गए जो ब्रिटिश भारत में सर्वोच्च पदों में से एक था। उन्हें शिक्षा विभाग का प्रभारी बनाया गया।

बताया जाता है कि उन्होंने 1919 में भारतीय संवैधानिक सुधारों पर एक असहमति पत्र लिखा, जिसमें भारत में ब्रिटिश शासन की निंदा की गई और सुधारों का सुझाव दिया गया। इनमें से कई को स्वीकार किया गया। इसी साल उन्होंने पंजाब के अमृतसर में हुए भयानक जलियांवाला बाग नरसंहार पर विरोध दर्ज कराने के लिए वायसराय की परिषद से इस्तीफा दे दिया।  

जलियांवाला बाग वो घटना थी, जिसने पूरे देश को हिला दिया था। ब्रिटिश ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर के आदेश पर अंग्रेज सैनिकों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा में एकत्रित 12 हजार से अधिक निहत्थे भारतीयों पर अधाधुंध गोलीबारी की। इस घटना में हजारों लोगों की मौत हो गई थी। मरने वालों में महिलाएं और छोटे बच्चे तक शामिल थे।

कोर्ट में अंग्रेज अधिकारी से जब भिड़े शंकरन नायर

कई इतिहासकार मानते हैं कि नायर का महात्मा गांधी के साथ जाति व्यवस्था सहित कई मुद्दों पर मतभेद था। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 1922 में उन्होंने 'गांधी एंड एनार्की' नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता के लिए गांधी के अहिंसा, सविनय अवज्ञा और असहयोग के तरीकों का विरोध व्यक्त किया।

नायर ने 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डवायर की भी आलोचना की। उनका इशारा था पंजाब में जो अत्याचार हुआ वो पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे जनरल माइकल ओ डवायर की जानकारी में हुआ।

ओ डवायर, जो तब तक इंग्लैंड लौट चुके थे, ने नायर पर मानहानि का मुकदमा दायर किया। इस मामले की लंदन में किंग्स बेंच के सामने साढ़े पांच सप्ताह तक सुनवाई हुई, जो उस समय का सबसे लंबा चलने वाला सिविल केस बन गया था।

अंग्रेजों का पक्षपाती रवैया और नायर का स्वाभिमान

मानहानि के इस मुकदमें में सभी अंग्रेज जज थे। जस्टिस हेनरी मैककार्डी ज्यूरी की अध्यक्षता कर रहे थे। वे और दूसरे अन्य ज्यूरी सदस्यों ने साफ तौर पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया और ओ डवायर के प्रति अपने समर्थन को छिपाने की कोशिश नहीं की। ज्यूरी ने 11-1 के बहुमत से फैसला ओ डवायर के पक्ष में दिया। एकमात्र मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धांतकार हेरोल्ड लास्की ज्यूरी में असहमति जताने वाले सदस्य थे।

कोर्ट ने नायर को ओ डवायर को 500 पाउंड और मुकदमे का खर्च देने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि अगर नायर माफी मांगते हैं तो उन पर लगाया जा रहा जुर्माना भी माफ कर दिया जाएगा।

नायर ने माफी से इनकार कर दिया और इसके बजाय जुर्माना भरने का विकल्प चुना। नायर के इस मामले ने और माफी मांगने से इनकार ने आजादी की लड़ाई में एक नई जान फूंक दी।

नायर का 1934 में 77 वर्ष की आयु में निधन हो गया। मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनके कुछ फैसले एक समाज सुधारक के रूप में उनकी साख की पुष्टि करते हैं। इन फैसलों में अंतर्जातीय और अंतर-धार्मिक विवाहों को बरकरार रखना शामिल है।

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