Thursday, October 30, 2025
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दृश्यम: लोक आस्थाओं का कांतारा

भारतीय कन्नड़ भाषा की एक्शन थ्रिलर फिल्म ‘कांतारा चैप्टर 1’ 2022 की ब्लॉकबस्टर ‘कांतारा’ की पूर्वकथा अर्थात प्रीक्वल है। ‘कांतारा’ एक कन्नड़ शब्द है, जिसका अर्थ होता है रहस्यमय जंगल । यह फिल्म देवता, आस्था और लोककथाओं की रहस्यमय कहानी पर आधारित है। ऋषभ शेट्टी ने न सिर्फ इस फिल्निम का निर्देशन किया है, बल्कि मुख्य भूमिका भी उन्होंने खुद निभाई है। होम्बले फिल्म्स के तहत विजय किरागांदुर द्वारा निर्मित इस फिल्म की परफॉर्मेंस और सिनेमेटोग्राफी की खूब तारीफ की जा रही। यहां इस फिल्म पर टिप्पणी कर रहे हैं शादाब खान-

भारत शुरू से अनंत कथा -कहानियों का देश रहा है प्राचीन काल से यहाँ रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनी-सुनाई जाती रही हैं। इनके अलावा पंचतंत्र की कहानियाँ और विक्रम-बेताल की कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय रही हैं। इन कहानियों के अतिरिक्त यहाँ के किसी क्षेत्र विशेष के समाज में लोक कथाओं का भी काफी बोल -बोला रहा है। लोक कथाओं का संदर्भ तो स्थानीय होता है, परन्तु इनकी अपील राष्ट्रीय भी हो सकती है। ये मूलतः जनश्रुतियों और दंत-कथाओं पर आधारित होती हैं। अपनी क्षेत्रीय सीमा में प्रचलित सांस्कृतिक मान्यताओं को जिस प्रकार से लोक कथाएं प्रतिबिम्बत कर सकती हैं, वैसा शायद किसी महकाव्य से भी मुमकिन नहीं है। और अगर इन लोक कथाओं को कहने का माध्यम सिनेमा जैसा सशक्त माध्यम हो तो इसकी अपील सिर्फ क्षेत्रीय न होकर राष्ट्रीय और यहाँ तक कि वैश्विक भी हो सकती है।

कुछ ऐसा ही कारनामा कर दिखाया है ऋषभ शेट्टी की शीर्ष भूमिका वाली और उनके द्वारा ही लिखित और निर्देशित फिल्म “कांतारा : चैप्टर 1” ने। यह फिल्म फिलहाल सिनेमाघरों में धूम मचा रही है। साल 2022 में प्रदर्शित “कांतारा : ए लीजेंड ” ने दर्शकों को सिर्फ लोक कथाओं और दंत कथाओं के जादू से परिचय करवाकर चौँकाया भर था और सिनेमा की एक नई और सुखद अनुभूति से रु-ब-रु करवाया था। लेकिन 2025 में प्रदर्शित “कांतारा :चैप्टर 1” ने दर्शकों को सही मायने में लोक कथाओं का मर्म समझाया है। मूलतः इस फिल्म को पिछली फिल्म के पूर्ववर्ती भाग के रूप में दिखाया गया है।

‘कांतारा’ का शाब्दिक अर्थ होता है- ‘वन।’ इस फिल्म में वन और वनवासियों की दंत कथा को प्रदर्शित किया गया है। हालांकि पात्रों के द्वारा कई बार इसे ‘ईश्वर का मधुबन ‘ कहा गया है, जो इंगित करता है कि ईश्वर इस जंगल भूमि में आते हैं और इसकी रक्षा के लिए सदैव प्रतिबद्ध हैं। पिछली फिल्म में ही दर्शकों को यह बतला दिया गया था कि कांतारा के लोग जंगल की खुशहाली के लिए दैवों (आत्माओं ) के आशीर्वाद को जिम्मेदार मानते हैं और इसी चलते प्रत्येक वर्ष मुख्य रूप से दो दैवों, पंजुरली दैव और गुलगा दैव की पूजा करते हैं।

कांतारा की सीमा के ठीक बाहर अवस्थित बांगरा साम्राज्य है, जिसके राजा राजशेखर ने कांतारा से कभी सीधा बैर मोल नहीं लिया। इसके पीछे राजशेखर के पिता का अतीत था, जिसमें वे पूर्व में कांतारा में अपने स्वार्थसिद्धि के लिए जबरन घुस कर वहां की शांति को नष्ट करने का प्रयास कर चुके हैं। लेकिन इस चक्कर में इस भूमि के रक्षक दैवों ने राजा का वध कर दिया। तब से बांगरा साम्राज्य ने कांतारा को एक अभिशप्त भूमि मानकर इससे एक दूरी बना रखी है। परन्तु बाद में स्थितियां ऐसी बनती हैं कि आखिरकार बांगरा साम्राज्य और कांतारा के लोगों का टकराव होता है। इस टकराव की धूरी सर्वप्रथम बनता है राजा राजशेखर का पुत्र कुलशेखर, जो राजा द्वारा ही बांगरा का नव नियुक्त राजा होता है। कुलशेखर एक विलासी प्रवृत्ति का राजा होता है जो हमेशा अपने चापलूस दरबारियों से घिरा रहता है। इस किरदार को गुलशन देवइया जैसे मंझे हुए अभिनेता ने बेहतरीन ढंग से निभाया है। सत्ता के नशे में चूर कुलशेखर अपने पिता को भी अपमानित करता रहता है और इसी चक्कर में कांतारा वासियों का कत्लेआम करने अपनी सेना के साथ कांतारा की सीमा में घुस जाता है, परन्तु इसकी कीमत उसे चुकानी पड़ती है जब उसने फिल्म के मुख्य पात्र ‘बेरमे ‘ की माँ की हत्या कर दी होती है…

यहीं पर ऋषभ शेट्टी अभिनीत मुख्य पात्र ‘बेरमे ‘के अंदर दैव का वास होता है और तब परदे पर जो लोमहर्षक दृश्य उपस्थित होता है, उसे देखकर दर्शक विस्मित होते हैं, अचंभित होते हैँ और भावुक होते हैं। दरअसल इस टकराव में कांतारा और उसकी जनता को दैवों के आशीर्वाद से कैसा सहयोग मिलता है, यही इस कहानी का मूल भाव है। जब ‘बेरमे’ के अंदर दैव का वास हो जाता है, तब उसके अंदर अद्भुत शक्तियां आकर पैठ जाती हैं। फिर बेरमे के लिए कुछ करना असंभव नहीं होता और जब दैव रूप में बेरमे पापियों को सबक सिखाता है तब उन दृश्यों को परदे पर देखते वक़्त मानो साँसें थम जाती हैं। ऋषभ शेट्टी इन दृश्यों में अभिनय के शीर्ष पर पहुंचे हुए प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता हैं कि इससे बेहतर कुछ और हो ही नहीं सकता।

जब दर्शकों को ये लगने लगता है कि कहानी इतनी ही सीधी और सरल है, तभी फिल्म दर्शकों को अपने पेंचदार और घुमावदार मोड़ों से चौँकाती है, जिसका भान उन्हें पहले से ज़रा सा भी नहीं होता है।

इस फिल्म की कहानी की सफलता बस इन्हीं ट्विस्टों से तय नहीं होती, बल्कि ऐतिहासिक रूप से इसे सत्य बनाने के लिए पुर्तगाली व्यापारियों को बांगरा साम्राज्य के अधिकृत बंदरगाह पर मसालों का व्यापार करते हुए दिखाया गया है। साथ ही बड़ी होशियारी से कांतारा वासियों को भी व्यापार के लिए बांगरा वासी व्यापारियों का प्रतिद्वंदी दिखाकर कहानी को और ज़्यादा धारदार और विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया गया है। दरअसल यही व्यापारिक प्रतिस्पर्धा बांगरा और कांतारा के बीच टकराव का प्रथम कारण बनता है। एक कटुता दोनों के बीच व्याप्त हों जाती है, जिसकी परिणति अंततः युद्ध के रूप में होती है। यहीं पर कई अन्य सारे रहस्यों से भी पर्दा उठता है।

फिल्म के क्लाइमैक्स की बात करें तो यह काफी शानदार है। इसमें बेरमे के किरदार में ऋषभ शेट्टी एक कदम और अभिनय में एक कदम और आगे जाते हैं जब उनके अंदर ‘ चंडी ‘ समा जाती हैं , जो पांपियों का संहार करती हैं। फिल्म के दूसरे प्रमुख किरदार, जैसे राजा राजशेखर, उसका पुत्र और बांगरा साम्राज्य का नया नरेश- कुलशेखर, राजा की बेटी-राजकुमारी कनकवती (रुक्मिणी वसंत का किरदार), आदि ने भी बेहद उम्दा अभिनय किया है। रुक्मिणी वसंत को इस फिल्म की एक नई खोज कहा जा सकता हैं। राजकुमारी के किरदार में उनकी सुंदरता और मादकता ने जहाँ दर्शकों को मोहित किया है, वहीं अपने अभिनय क्षमता का भी उन्होंने लोहा मनवाया है। निश्चित तौर पर अपने इस प्रदर्शन के लिए उन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से काफी मौके मिलने वाले हैं।

सहायक कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिका को जीवंत अभिनय से आत्मसात कर लिया है। बीच-बीच में आनेवाली वनलाइनर ने दर्शकों को खूब हंसाया और उनका भरपूर मनोरंजन किया है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि फिल्म को सीरियस जोन में रखते हुए भी किस तरह दर्शकों को हंसी की फुहार से सराबोर किया जा सकता है, यह इस फि शल्म से सीखा जा सकता है।

यह कहना सर्वथा उचित होगा कि सभी कलाकारों के शानदार अभिनय, फिल्म में दिखलाए गए लोमहर्षक दृश्यों और इसके कर्णप्रिय पार्श्व संगीत ने ऐसा जादुई समां बाँधा है कि कांतारा सचमुच एक जादुई फिल्म लगने लगती है।

फिल्म सिनेमाई दृष्टि से इतनी अच्छी बन पड़ी है कि लगता ही नहीं है कि परदे पर किसी दंत कथा को दिखलाया जा रहा है, ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये कोई सत्य कथा हो। वैसे भी सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। परदे पर चल रहे दृश्य, संवाद, पात्रों का अभिनय,आदि जब हद दर्जे तक वास्तविक लगने लगे तो वहीं पर सिनेमा का मकसद पूरा हो जाता है। इसके लिए बेहतरीन पटकथा, बेहतरीन निर्देशन के अलावा तमाम ज़रूरी सिनेमाई तकनीकों की दरकार होती है। “कांतारा:चैप्टर 1” इन सभी कसौटियों पर खरी उतरती हुई मालूम पड़ती है।

सबसे खास बात इस फिल्म की यही है कि कहीं पर भी ये अपनी कहानी के मूल पथ से विचलित नहीं होती और सभी तरह के गैर-ज़रूरी मसालों से बचती है।इस फिल्म की सबसे बड़ी सफलता यह है कि यह फिल्म भरपूर मनोरंजन देने के साथ -साथ कहीं-न-कहीं हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखने की चेष्टा करती है। आज की पीढ़ी जो दंत- कथाओं का ठीक से अर्थ भी नहीं जानती वो भला इनके महत्व से कैसे परिचित हो पाएगी? ऐसे में कांतारा:चैप्टर -1′ एक ज़रूरी फिल्म बन जाती है जिसे सिनेमाघर में जाकर ही अनुभव करना चाहिए। क्योंकि तभी इस फिल्म की असली ताकत समझ में आएगी।

पुनश्च, कर्नाटक और दक्षिण भारत की दंत कथाओं से तो देश भर का परिचय सिनेमा के माध्यम से हो गया है, पर क्या उत्तर भारत की दंत कथाओं, जैसे ‘आल्हा-ऊदल ‘, ‘शीत-बसंत’, आदि की कहानियों से दक्षिण भारत समेत पूरा भारत या यूँ कहें सम्पूर्ण विश्व रूपहले परदे के जरिए कभी रु -ब -रु हो पाएगा?

शादाब खान
शादाब खान
शिक्षा- एम. टेक (डिजिटल कम्युनिकेशन) वर्तमान में राज्य स्तरीय लोक सेवाओं हेतु इतिहास और समसामयिक विषयों के शिक्षक के रूप में कार्यरत। रुचियां- विभिन्न प्रकार की किताबें और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना तथा अलग-अलग विषयों पर लेखन करना।
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