ऐ महरौली! तू महज़ कोई इलाक़ा नहीं, तू तो ख़ुद एक तारीख़ है, एक दहलीज़ है जहाँ से दिल्ली ने पहली करवट ली थी। तेरे दामन में क़िला राय पिथौरा की वो पुरानी दीवारें हैं, जो इस शहर की पहली गवाही देती हैं। लाल कोट की मिट्टी में राजा अनंगपाल तोमर का पहला ख़्वाब ज़िंदा है, जो बाद में पृथ्वीराज चौहान की शौर्यगाथा का मक़ाम बना। यहीं, इन्हीं दीवारों के साये में, एक ऐसी सल्तनत क़ायम हुई, जिसने इतिहास का रुख मोड़ दिया।
रज़िया सुल्तान की राजधानी की वो ख़ामोश गलियाँ, जो आज भी उस बेबाक़ और अदम्य ख़ातून-ए-हुक्मरान की आवाज़ को हवा में महसूस करती हैं। रज़िया का वक़्त छोटा रहा, मगर उनकी विरासत की गूंज इन पत्थरों में क़ैद है।
और फिर आती है, मिथकों से जुड़ी एक और निशानी: बेला की क़ब्र। कहते हैं कि पृथ्वीराज चौहान की बेटी हुई बेला, जिसने मोहब्बत में इंक़लाब लाने की कोशिश की। बेला की ये मज़ार आज भी उन अनकही और अधूरी प्रेम कहानियों की गवाही देती है जो शाही तख़्तों के बोझ तले दब गईं। बेला की क़ब्र महरौली की मिट्टी में एक गहरा ज़ख्म और एक मीठी याद दोनों बनकर समाई हुई है।
गुज़िश्ता दौर की इन कहानियों के बाद, महरौली में इस्लाम की अज़मत का पहला निशान उभरता है: क़ुतुब कॉम्प्लेक्स। यह महज़ इमारत नहीं, बल्कि दो तहज़ीबों के मिलन और टकराव का एक नायाब नमूना है।
फ़लक-बोस क़ुतुब मीनार! ये पत्थर की वो किताब है जिसकी हर मंज़िल अलग-अलग सल्तनत और सुल्तानों की कहानी कहती है। इस मीनार के साये में क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद खड़ी है, जो हिन्द-इस्लामी वास्तुकला की पहली करवट थी। इसके मेहराब और साहन, उस नए दौर की गवाही देते हैं जब पुराने मंदिरों के अवशेषों पर एक नया मक़ाम-ए-इबादत वजूद में आया। यह मस्जिद महरौली के उस दौर की नुमाइंदगी करती है जहाँ मज़हबों की सरहदें धुँधली थीं। और इस पूरे कॉम्प्लेक्स का सबसे बड़ा अजूबा है लौह स्तम्भ (Iron Pillar)। हज़ारों साल पुराना ये खम्भा आज भी जंग (rust) को मात देता है। यह प्राचीन भारतीय साइंस और धातु कला की वो बेमिसाल मिसाल है, जिसे देखकर हर कोई हैरतज़दा रह जाता है। यह क़ुतुब कॉम्प्लेक्स महरौली की रूह का वो मुक़ाम है जहाँ तारीख़ अपने सबसे बुलंद लहजे में बोलती है।
क़ुतुब की अज़मत से कुछ क़दमों की दूरी पर महरौली का वो ख़ामोश हिस्सा शुरू होता है जिसे मेहरौली आर्किओलॉजिकल पार्क कहते हैं। यह पार्क महज़ एक बाग़ नहीं, बल्कि इतिहास के अनगिनत अध्यायों की महफ़िल है। यहाँ ग़ुलाम सल्तनत से लेकर लोधी और मुग़लिया दौर तक की इमारतें ख़ामोश गवाह बनकर खड़ी हैं, जिनमें बलबन का मक़बरा और जमाली-कमाली की मस्जिद ख़ास हैं। यह वो इलाक़ा है जो हमें बताता है कि इतिहास ने एक पल भी यहाँ चैन से करवट नहीं ली।
महरौली केवल सल्तनत की कहानियाँ नहीं सुनाती; यह रूहानियत का ठिकाना भी रही है।
यहाँ सदियों से खड़ा जोगमाया मंदिर, जिसे योगमाया के नाम से भी जाना जाता है, महाभारत काल के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है। ये वो स्थान है, जो हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता की पुरानी डोर को थामे हुए है और इसकी पाक चौखट पर हर मज़हब का आदमी सर झुकाता आया है।
इन्हीं ऐतिहासिक रास्तों पर आगे बढ़ते हुए हम उस मक़ाम पर रुकते हैं जहाँ बंदा सिंह बहादुर की शहादत का ख़ून इस मिट्टी में जज़्ब हुआ। बन्दा बहादुर शहीदी स्थान, वह पवित्र जगह है जहाँ सिख धर्म के इस अजीम जांबाज़ सिपाही ने अपनी अदम्य हिम्मत का परिचय दिया और धर्म की ख़ातिर बेख़ौफ़ होकर अपनी जान न्योछावर कर दी। यह क़ुर्बानी का एक ऐसा पाठ है जिसे महरौली की हर सुबह दोहराती है।
और महरौली की इस गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक बेहतरीन मिसाल है सेंट जॉन चर्च। इसकी खास बात है कि यह गिरिजाघर मुग़ल शैली में बना हुआ है और इस बात का सबूत है कि यहाँ की ज़मीन ने हमेशा हर रंग, हर आवाज़ को अपनाया है। इसकी मेहराबें और गुम्बद हमें बताते हैं कि मोहब्बत और इबादत के रास्ते एक ही हैं, चाहे उनकी मंज़िल कोई भी हो।
महरौली की गलियों में बसी है 40 अब्दालों (औलियाओं) की मज़ार, जिनकी इबादत की ख़ुशबू अब भी यहाँ फैली हुई महसूस होती है। ये मक़ाम सूफ़ी मक़ामों की एक रवायत का हिस्सा है, जो बताता है कि महरौली हमेशा से क़लंदरों और दरवेशों की पसंदीदा सरज़मीन रही है। यह मज़ार, आध्यात्म की एक पुरसुकून कहानी है।
और फिर आती है हिजड़ों का ख़ानक़ाह। एक ऐसा ख़ानक़ाह जहाँ ख़्वाजासरा समुदाय के फ़क़ीरों ने इबादत और सुकून की जगह पाई। ये ख़ानक़ाह महरौली के सामाजिक समावेश की एक बेमिसाल रिवायत को पेश करती है। ये साबित करती है कि महरौली का दिल कितना बड़ा रहा है।
इस रूहानी रंगत के बीच, महरौली बन एक शाही उदासी भी तारी मिलती है : बहादुर शाह ज़फ़र की आरामगाह में। आख़िरी मुग़ल बादशाह ने अपनी हुकूमत के दौरान यहीं आखिरी सुकून और पनाह की ख्वाहिश की थी, अपने मुर्शीद ख़्वाजा बख़्तियार काकी के सानिध्य में। यह आरामगाह, उस आख़िरी शमा की टिमटिमाहट है, जो बुझने से पहले महरौली की यादों में अपनी रोशनी छोड़ गई। बहादुर शाह ज़फ़र का शे’र अब भी गूंजता है:
“कितना है बदनसीब ज़फ़र, दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।”
महरौली की तारीख़ में कई रहस्य और क़िस्से भी दफ़न हैं, जिनमें से अधम खान का मक़बरा और उसकी भूलभुलैया सबसे ख़ास है। यह अष्टकोणीय मक़बरा, मुग़ल वास्तुकला की एक बेहतरीन मिसाल तो है ही, मगर ये क़िस्सा-ए-बारात से ज़्यादा मशहूर है। कहा जाता है कि एक बारात इसमें रास्ता भटक गई और कभी बाहर नहीं आ पाई। यह अफ़वाहें, यह क़िस्से, इस मक़बरे को एक रहस्य और एक डर की चादर ओढ़ाते हैं, जिससे इसे भूलभुलैया का नाम मिला। यह मक़बरा महरौली की उन कहानियों का ठिकाना है, जो इतिहास से ज़्यादा लोक कथाओं में ज़िंदा हैं।
इसके क़रीब ही सदियों से खड़ा है जैन मंदिरों का समूह। ये मंदिर महरौली की सबसे पुरानी तहज़ीबों में से एक, जैन धर्म की विरासत को ज़िंदा रखे हुए हैं। इनकी वास्तुकला और मूर्तिकला हमें बताती है कि ये सरज़मीन, आस्था के हर फूल को अपनी ख़ुशबू फैलाने का मौक़ा देती रही है। ये जैन मंदिर, शांति और अहिंसा के शाश्वत संदेश का प्रतीक हैं।
बीसवीं सदी में भी महरौली ने नए अध्याय लिखे। आज़ादी के पहले, महात्मा गांधी ने अपने देहांत से ठीक पहले, इसी महरौली में दस्तक दी थी। गांधी जी का महरौली दौरा, इस ऐतिहासिक जगह को देश के स्वतंत्रता संग्राम के साथ जोड़ देता है, जहाँ एक नई सुबह का इंतज़ार किया जा रहा था।
आज़ादी के बाद, इंदिरा गांधी का फार्महाउस महरौली के आधुनिक इतिहास का हिस्सा बन गया। यह फार्महाउस विभाजन की त्रासदी और उसके बाद पुनर्निर्माण की कहानी कहता है।
ब्रिटिश लेखक विलियम डैलरिम्पल ने जब ‘City of Djinns’ लिखा, तो उनकी प्रेरणा का ठिकाना भी मेहरौली ही था। उनका फ़ार्महाउस यहाँ जीते जागते इतिहास के बीच बसा है, जहाँ अतीत और वर्तमान रोज़ एक-दूसरे से बातें करते हैं।
महरौली की यादों में यह भी दर्ज है कि किस तरह विभाजन के दंश झेल रहे लोगों को यहाँ पनाह और एक नया जीवन मिला। उस दौर के उजाड़ में, महरौली ने एक बार फिर सबको आसरा दिया।
महरौली की दास्तान का सबसे हसीन पहलू है फूलवालों की सैर का त्यौहार। यह मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के ज़माने में शुरू हुआ, जो एक ऐसा त्यौहार है जहाँ हिन्दू-मुस्लिम दोनों मज़हबों के लोग एक साथ मिलकर जोगमाया मंदिर और बख़्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ाते हैं। यह केवल एक मेला नहीं, यह गंगा-जमुनी तहज़ीब का ज़बरदस्त इज़हार है। यह त्यौहार हर साल यह पैग़ाम देता है कि मज़हब अलग हो सकते हैं, मगर ख़ुशी और भाईचारा एक ही है। फूलवालों की सैर महरौली की आत्मा है, जो रंग, रोशनी, और सर्वधर्म समभाव से महकती है।
ऐ महरौली! तूने सदियाँ गुज़ारी हैं, कितने बादशाहों का सूरज चढ़ते ढलते देखा है। लाल कोट की मिट्टी से लेकर ज़फ़र की खाली कब्र तक, बन्दा बहादुर की क़ुर्बानी से लेकर फूलवालों की सैर की रौनक़ तक, तूने हर रंग को अपनी दीवारों पर जज़्ब किया है। तू वह इबारत है जो दिल्ली ने सबसे पहले लिखी थी और आज भी तेरी एक-एक ईंट, एक-एक पत्थर हमें उस दौर की याद दिलाता है। तेरी दास्तान अभी ख़त्म नहीं हुई, तू आज भी दिल्ली के दिल में धड़कन की तरह धड़क रही है।

