नई दिल्लीः दिल्ली हाई कोर्ट ने सोमवार, 3 नवंबर को देश में कानूनी शिक्षा के संचालन पर विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इसमें उच्च न्यायालय ने बताया कि छात्रों की उपस्थिति में कमी उनके शैक्षणिक करियर को कैसे प्रभावित करेगी?
जस्टिस प्रतिभा एम सिंह और अमित शर्मा की पीठ ने आदेश दिया कि किसी भी लॉ छात्र उपस्थिति में कमी के चलते रोका नहीं जा सकता और अनिवार्य उपस्थिति के अभाव में अगले सेमेस्टर में उनकी प्रगति नहीं रोकी जा सकती है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने क्या कहा?
दिल्ली हाई कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि लॉ कॉलेजों द्वारा बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के नियमों से परे उपस्थिति मानदंड निर्धारित नहीं किए जाने चाहिए।
अदालत ने कहा कि यदि कॉलेज अंक दे रहा है तो उनके अंकों में अधिकतम 5 फीसदी की कमी की जा सकती है वहीं यदि सीजीपीए प्रणाली लागू है तो इसमें .33 फीसदी की कटौती की जा सकती है।
पीठ ने इस दौरान निर्देश दिया कि छात्रों की उपस्थिति की सूचना उन्हें और माता-पिता को दी जानी चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि अगर उपस्थिति कम है तो ऐसे छात्रों के लिए अतिरिक्ति भौतिक या ऑनलाइन कक्षाएं आयोजित की जानी चाहिए।
अदालत ने आगे सभी लॉ कॉलेजों, शैक्षणिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों के लिए यह अनिवार्य किया कि शिकायत निवारण आयोग (जीआरसी) का गठन करें। वहीं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को यह अपने नियमों में यह संशोधन करके यह सुनिश्चित करना होगा कि जीआरसी के 51 फीसदी सदस्य छात्र हों।
अदालत ने कहा कि छात्रों का पूर्णकालिक प्रतिनिधित्व होना चाहिए। अदालत ने इसके साथ ही बीसीआई को भी निर्देश दिया कि कॉलेजों की संबद्धता शर्तों में संशोधन करे जिससे छात्रों की मदद के लिए उपलब्ध काउंसलरों और मनोचिकित्सकों की संख्या को इसमें शामिल किया जा सके।
अदालत ने बीसीआई से क्या कहा?
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि बीसीआई तीन वर्षीय और पांच वर्षीय लॉ पाठ्यक्रमों में अनिवार्य उपस्थिति का पुनर्मूल्यांकन करेगा… इसमें मूट कोर्ट को शामिल किया जाएगा और उन्हें क्रेडिट दिया जाएगा।
पीठ ने आगे बीसीआई को यह भी निर्देश दिया कि वह इंटर्नशिप की विस्तृत जानकारी विशेषकर उन छात्रों को उपलब्ध कराए जो वंचित पृष्ठभूमि के हैं। अदालत ने कहा कि इसके लिए वरिष्ठ अधिवक्ताओं, अधिवक्ताओं, लॉ फर्म और अन्य निकायों के नाम प्रकाशित किए जाएं जो इंटर्न की तलाश कर रहे हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा यह दिशानिर्देश एक मामले को स्वतः संज्ञान लिए जाने के मामले में आए हैं। दरअसल, साल 2016 में एमिटी विश्वविद्यालय में लॉ के छात्र सुशांत रोहिल्ला ने कथित तौर पर अटेंडेंस की कमी के चलते आत्महत्या कर ली थी। रोहिल्ला तृतीय वर्ष के छात्र थे और उपस्थिति में कमी के चलते उन्हें परीक्षा में बैठने से मना किया गया था। रोहिल्ला ने एक नोट छोड़ा था जिसमें खुद को फेल बताया था।
इस मामले में रोहिल्ला की मृत्यु के महीने भर बाद सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका दायर की और 2017 में इसे दिल्ली हाई कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया था। अदालत ने इस मामले में एमिकस क्यूरी (न्यायालय मित्र) रहे वरिष्ठ अधिवक्ता दया कृष्णन के साथ रोहिल्ला परिवार की भी सराहना की।

