नाटकों के स्त्री किरदार के बारे में सोचते हुए पुरुषों द्वारा रचे किरदार ही याद आते रहते हैं। यह मेरी व्यक्तिगत सीमा भी हो सकती है। बतौर पुरुष होने का भी कुछ असर इसमें होगा ही, इसे स्वीकार ही कर लेना चाहिए। 

हिंदी नाटकों ने कई सशक्त और यादगार स्त्री किरदार साहित्य को दिये हैं। इस श्रृंखला में भारतेंदु की नीलदेवी, जयशंकर प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी, राधेश्याम कथावाचक की मशरिकी हूर, उपेंद्रनाथ अश्क की अंजो, भुवनेश्वर की श्यामा, भिखारी ठाकुर की प्यारी सुंदरी, मोहन राकेश की मल्लिका, सुंदरी और सावित्री, सुरेंद्र वर्मा की द्रौपदी और शीलवती, हबीब तनवीर की बहादुर कलारिन, असगर वजाहत की रतन की अम्मा, मुझे ये कुछ नाम याद आ रहे हैं।  

अलग अलग पृष्ठभूमियों और समयधारा से संबंध रखने वाले ये किरदार कभी परिस्थितियों को परिवर्तित करते हुए तो कभी परिस्थितियों के दास नजर आते हैं। पितृसत्ता से सतत संघर्ष इनके चरित्र को गढ़ने का एक सिरा है, जो सबमें है। इन किरदारों में गहराई से झांकने से पुरुष की मंशा भी स्पष्ट दिख जाएगी। इन किरदारों की संभावित विकास रेखा भी अनुमानित है जिसे नाटक के शुरू में ही पढ़ा जा सकता है। विकास की इस तय रेखा से किरदार विचलित नहीं होते। 

ध्रुवस्वामिनी को जबरन विवाह से बाहर निकलना है और अंतत: चंद्रगुप्त से विवाह जो नहीं हो पाया है उसको संपन्न करना है, इसका संकेत पहले अंक में ही मिल जाता है। मल्लिका को कालिदास के लिए पथ निर्मित करना है और फिर उससे हट जाना है, और अपने हिस्से का इंतजार भोगना है। अम्बिका के रूप में मल्लिका के भविष्य को लेखक ने वर्तमान के साथ ही उपस्थित कर दिया है। शीलवती को नाटककार इतनी स्वतंत्रता नहीं देता कि वह प्रेम के बाहर किसी अपरिचित को नियोग के लिए चुन सके। नाटककार भी अपनी लैंगिक चेतना की सीमा से बंधे हैं और युग सीमा से भी…

dhruvswamini
ध्रुवस्वामिनी

 बात वहीं से शुरू करनी चाहिए जहाँ से हिंदी नाटक शुरू होता है, भारतेंदु से। भारतेंदु अपने निबंध नाटक अथवा दृश्यकाव्य में अथ नवीन भेद के अंतर्गत नाटक के पांच उद्देश्य बताते हैं शृंगार, हास्य, कौतुक, समाज-संस्कार और देश-वत्सलता। इसमें समाज संस्कार को परिभाषित करते हुए वह कहते हैं कि- ‘समाज संस्कार के नाटकों में देश की कुरीतियों का दिखलाना मुख्य कर्तव्य कर्म है। यथा शिक्षा की उन्नति बिवाह सम्बन्धी कुरीतिनिवारण अथवा धर्म सम्बन्धी अन्यान्य विषयों में संसोधन इत्यादि (जिसके उदाहरण हैं -सावित्री चरित्र, दु:खिनी बाला, इत्यादि)’ आशय यह कि भारतेन्दु नाटकों के उद्देश्य को निर्धारित करने में स्त्री चित्रण पर अलग से ध्यान दिया और इस लिहाज से उन्होंने ‘नीलदेवी’ की रचना की।

‘नीलदेवी’ की भूमिका में वह लिखते हैं ‘मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरांगी युवती समूह की भाँति हमारी कुललक्ष्मी गण भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमै; किंतु और बातों में जिस भांति अंगरेजी स्त्रियाँ सावधान होती हैं, पढ़ी लिखी होती हैं, घर का काम काज संभालती हैं, अपने संतान गण को शीक्षा (शि?) देती हैं, अपना स्वत्व पहचानती हैं, अपनी जाति और अपने देश की सम्पत्ति विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहाय देती हैं, और इतने समुन्नत मनुष्य जीवन को व्यर्थ ग्रह (गृ?) दास्य और कलह ही में नहीं खोतीं उसी भाँति हमारी गृह देवता भी वर्तमान हीनावस्था को उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें, यही लालसा है। इस उन्नति पथ की अवरोधक हम लोगों की वर्तमान कुल परंपरा मात्र है और कुछ नहीं है। आर्य जन मात्र को विश्वास है कि हमारे यहाँ सर्वदा स्त्रीगण इसी अवस्था में थीं। इस विश्वास को भ्रम को दूर करने ही के हेतु यह ग्रंथ विरचित हो कर आप लोगों के कोमल कर कमलों में समर्पित होता है। निवेदन यही है कि आप लोग इन्हीं पुण्यरूप स्त्रियों के चरित्र को पढें, सुनें और क्रम से यथा शक्ति अपनी वृद्धि करें”। 

उनकी स्पष्ट दृष्टि है कि स्त्रियों की वर्तमान दशा में सुधार हो और उसका आदर्श सामने रखने के लिए नीलदेवी जैसी स्त्री किरदार की रचना करते हैं। जिसमें नीलदेवी अपनी पति की मृत्यु का बदला लेती हैं और हिंदू धर्म के अनुकूल सति की मर्यादा का एक उदाहरण पाठकों के समक्ष रखती हैं। खासकर स्त्रियों के समक्ष, उन्हें जिनका अनुसरण करना है। स्त्रियों को कहां तक पढ़ाना है वह ‘भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ में वे बता चुके हैं। 

इस दृष्टिकोण में यह दुचित्तापन है कि स्त्री को उन्नति करनी तो है लेकिन उसकी एक सीमा निर्धारित है और वह व्यक्तिगत विकास से अधिक समाज और राष्ट्र के लिए है।

जयशंकर प्रसाद के नाटकों के नायक और स्त्री

जयशंकर प्रसाद के नाटकों के नायक बड़ी जिम्मेदारी और आत्म की तलाश में व्यस्त हैं और स्त्री इस चिंता में कि वह विवाह के गलत बंधन से बाहर कैसे निकले? यहां यह स्पष्ट करना ठीक होगा कि किसी भी पाठ को हम जब स्त्रीवादी नजरिए से पढ़ते हैं तो वह पाठ जो सामान्य की तरह स्थापित है, वह समस्याग्रस्त हो जाता है। 

जुडिथ बटलर भी कहती हैं कि अगर सिमोन की बातों में कुछ सच्चाई कि स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है, तो इसका आशय है कि स्त्री होना एक प्रक्रिया है होना है, एक निर्मिति है। और विमर्शों के बीच है इसलिए हस्तक्षेप करने के लिए और खारिज करने के लिए भी खुला है। क्योंकि जेंडर अपने को बहुत सी सामाजिक माध्यमों से दृढ़ करता है। जेंडर शरीर का बार बार दोहराया गया अंदाज है, शैलीकरण है, बेहद सख्त विनियामक सांचे के भीतर बार-बार किये जाने वाले व्यवहारों का समुच्चय है, जो समय के साथ सार के प्रकट होने के रूप में ठोस हो जाता है। एक प्राकृतिक से लगने वाले अस्तित्व की तरह।  इसलिए पहले से स्त्री के पक्ष में पुरुषों द्वारा लिखे जा रहे पाठों का भी पुनर्पाठ करना ही चाहिए।

जैसे ‘स्कंदगुप्त’ को पढ़ते हुए इसके स्त्री चरित्रों को विशेष तौर पर पढ़ना चाहिए क्योंकि वे ऐसी स्त्रियां है जो अपने आत्म के साथ उपस्थित हैं। उनमें त्याग भी है तो महत्त्वाकांक्षा भी। प्रेम है तो ईर्ष्या भी। द्वेष है तो भर्त्सना भी। प्रसाद ने जिस प्रखरता के साथ ऐसे चरित्रों को रचा है वह भी दुर्लभ है। अनंतदेवी एक ऐसी माता है जो साम्राज्य की गद्दी पर अपने पुत्र को देखना चाहती है और इसके लिए षडयंत्र का प्रयोजन करती है और कुटिलता और छल की नीति से युक्त है। वहीं स्कंदगुप्त की माँ देवकी क्षमा भाव से। 

स्कंदगुप्त के राज्याभिषेक के समय देवकी कहती है- 'आज तुम्हारे शुभ महाभिषेक में एक बुंद भी रक्त न गिरे। तुम्हारी माता की यही मंगलकामना है कि तुम्हारा शासनदंड क्षमा के संकेत पर चला करे। आज मैं सबके लिए क्षमाप्रार्थिनी हूं। ” 

भट्टारक की माँ कमला एक ऐसी माँ है जिसके लिए राष्ट्र पहले है और पुत्र बाद में। पुत्र भट्टारक के कर्मों के लिए वह उसकी निरंतर भर्त्सना करती है‌ शर्वनाग की पत्नी रामा भी यह जानकर कि वह देवकी की हत्या के लिए उद्धत है उस पर अपशब्दों की झड़ी लगा देती है। यह वे स्त्रियां है जिनके लिए संबंध का प्रश्न बाद में है और नीति और मर्यादा पहले। प्रसाद ऐसे स्त्री चरित्र गढ़ते हैं जो समाज के लिए आदर्श बनें। इनमें स्त्रियों के निजता का सवाल अहम नहीं है, इन्होंने अपनी चिंता को राष्ट्र की चिंता में घुला दिया है। यह वह दौर भी था जब स्त्रियों के प्रश्न को आंतरिक वृत का प्रश्न मान लिया गया था, जिसमें भारत को पश्चिम के आधुनिक विचारों से कुछ सीखने की जरूरत नहीं थी। 

यहाँ इस नाटक में निजता को अहमियत देने वाली स्त्रियां दो हैं, अनंतदेवी और विजया। और दोनों ही तयशुदा रास्ते से अलग राह पकड़ती हैं। विजया और देवसेना का चरित्र एक दूसरे का प्रतिसंसार रचती है। एक ही पुरुष से अनुरक्त विजया इर्ष्या से दग्ध होकर अपने चरित्र को गर्त की ओर ले जाती है वहीं देवसेना उच्च स्तर को प्राप्त करती है। देवसेना के लिए ऐश्वर्य और शक्ति हृदय के भावना से अधिक महत्त्व का है, इसलिए वह स्कंदगुप्त की उदासीनता से विचलित होती है। भट्टारक में उसे भविष्य दिखता है लेकिन अंतत: उसको परिज्ञान होता है। 

जयशंकर प्रसाद अतीत की स्त्रियों का चित्रण करते हुए अपनी मौलिक परिकल्पना में भविष्य की स्त्री की रचना करते हैं। विजया जब कहती है कि “मुझे क्षुद्र पुरगुप्त से विलासजर्जर मन और यौवन में ही जीर्ण शरीर का अवलंब वांछनीय नहीं।” तो इस पर गौर करना चाहिए कि एक सशक्त शरीर की कामना की खुली मांग है, जिसमें कोई अपराधबोध नहीं। जबकि पितृसत्ता इस कामना को नियंत्रित करना चाहती है।

पितृसत्ता ने स्त्री और पुरुष को समाज में अपनी छवि से बद्ध होकर जो प्रदर्शनात्मकता निर्धारित की है, देवसेना उस पर सवाल उठाती है। समाज ने पुरुषो के लिए जो लैंगिक प्रदर्शन तय किया है उसकी प्रवंचना की ओर इशारा करती हुई देवसेना बंधुवर्मा से  जो कहती है वह बड़ा दिलचस्प है  -“जी खोलकर कह देने में पुरुषों की मर्यादा घटती है। जब तक तुम्हारा हृदय भीतर से क्रंदन करता है, तब तक तुम लोग एक मुस्कराहट से टाल देते हो। यह बड़ी प्रवंचना है।”

नाटक में अभिव्यक्त स्त्री-दृष्टि में युग सीमा भी है। मालिनी के प्रसंग में कालिदास उसी को लांक्षित करता है, यह नहीं जानना चाहता कि उसने यह पेशा क्यों अपनाया? आखिर किस कारण तक वहां पहुंची। पुरुषों और स्त्रियों के कार्यक्षेत्र में बाहर भीतर का जो विभाजन है, यह नाटक इस सीमा रेखा को तोड़ता है।  स्त्रियां बाहर सक्रिय है युद्ध के मोर्चे पर और राजनीति में भी उनकी बराबर भूमिका है तो राष्ठ्र जागरण का भी काम करती है। देवसेना के चरित्र को इस नजरिये से देखना चाहिए। 

देवसेना अवंति के दुर्ग को बचाने के लिए जयमाला और बंधुवर्म्मा के साथ मिलकर लड़ती हैं। वह पुरुषों के साथ कदमताल करती है तो उनको पहचानती भी है- “नये ढंग के आभूषण, सुंदर, भरा हा यौवन-यह सब तो चाहिए ही, परंतु एक वस्तु और चाहिए। पुरुष को वशीभूत करने के पहले चाहिए, धोखे की टट्टी‌” देवसेना मालव को स्कंदगुप्त को सौंपने के लिए अपने भाई का समर्थन करती है। वह अपनी बलि देने के लिए भी तैयार हो जाती है। प्रेम की भावनाएं उसके मन में आती है तो वह उसको नियंत्रित करती है।

भुवनेश्वर के नाटकों की स्त्रियां

इसी दौर में भुवनेश्वर के नाटकों की स्त्रियों को हम अधिक स्वतंत्र पाते हैं। ‘श्यामा एक वैवाहिक विडंबना’ में, ‘स्ट्राइक’ में, ‘ऊसर’ में। भुवनेश्वर की स्त्रियों की निर्मिति का सोर्स क्या है इस पर शोध होना चाहिए। भुवनेश्वर की स्त्रियां जो असहज वैवाहिक संबंध में फंसी हुई हैं, पीड़िता नहीं है, वह एजेंट वुमन जैसी लगती है। जैसे श्यामा का यह संवाद देखिए- “समाज के सम्मुख मैं तुम्हें प्यार करने के लिए उत्तरदायिनी हूं और विवाह करके यदि मैंने जीविका के लिए अपने आपको नहीं बेचा है – यदि इस कठिन सत्य का सामना तुम नहीं करना चाहते तो मुझे प्रेम तो चाहिए..। ”

आजादी के बाद हिंदी नाटक के परिदृश्य पर केंद्रीय उपस्थिति मोहन राकेश की है और उनके तीनों पूर्ण नाटकों के केंद्र मे स्त्री है।  ‘आषाढ़ का एक दिन’ की मल्लिका कहती है कि उसका जीवन उसकी अपनी संपत्ति है, वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है? ‘लहरों के राजहंस’ की सुंदरी को शिकायत है कि- ’इतना ही तो समझ पाते हैं ये लोग ! ...बस इतना ही तो इनकी समझ में आ पाता है!’ इसमें ‘आधे अधूरे’ की बात विस्तार से करनी चाहिए जिसमें राकेश ने जुनेजा और सावित्री के बीच के संवाद से स्त्री को संदेश दिया है कि हर बार नए पुरुष की तलाश में वही पुरुष मिल सकता है, जिसे वह छोड़ना चाहती है। 

जुनेजा सारा दोष सावित्री के माथे पर रखना चाहता है लेकिन सावित्री महेन्द्रनाथ की दशा के लिए उसके दोस्तों और खुद महेन्द्रनाथ को जिम्मेदारी ठहराती है। इसी बिन्दू पर आकर लगता है कि राकेश ने जुनेजा के बहाने यह मौका तलाशा है कि परिवार के बिखराव को समेटने की जिम्मेदारी सावित्री पर थोप कर महेन्द्रनाथ को बरी कर दिया जाए और उसकी दयनीयता को उभार कर उसके प्रति सहानुभूति पैदा की जाए। 

इस नाटक में स्त्री नजरिए से प्रस्तुति करने वाली त्रिपुरारी शर्मा ने जुनेजा के व्यवहार की सटीक पहचान की है, “जुनेजा के शब्दों में स्वीकृत नैतिकता, जो सामाजिक रस्म रिवाज से पैदा हुई है गुंजती है, उसमें दुहरापन है, फिर भी उसके कहना है कि अलग-अलग मुखौटों के नीचे चेहरा एक ही है- इसलिए सावित्री की तलाश बेमानी है। सावित्री नहीं मानती। वो केवल भूमिकाओं से बंधी औरत नहीं बल्कि, मानवीय आत्मा है जो अपने सुख की खोज, शांति और सुन्दरता और मंजिल में संतुलन की खोज स्वयं करती है।” 

नाटक में पुरुष घर बैठा है और स्त्री बाहर जा रही है जाहिर है पुरुष इस यथार्थ का सामना नहीं कर पा रहा है। इस नाटक में परिवार की पवित्रता की अवधारणा को ही राकेश ने समस्याग्रस्त कर दिया है। अपर्णा भार्गव धारवड़कर लिखती हैं कि आधुनिकता में एक कोशिश यह भी थी कि अपने शौक या इच्छा को एक तरफ रखा जाए और पारिवारिक जिम्मेदारी को दूसरी तरफ और भावनाओं को नैतिक मार्गदर्शक कारणों के अधीन कर दिया जाए ताकि गरिमापूर्ण घर का विचार सुरक्षित रहे। लेकिन यहाँ इस नाटक में परिवार की पवित्रता पर ही प्रश्नचिह्न है जो व्यक्तियों को अपने इच्छित विकास से रोकता है इसलिए व्यक्ति अपने संघर्ष के कारण की तलाश इस परिवार में करता है. दूसरी तरफ सावित्री, जिस पर परिवार आश्रित है, इस परिवार से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढती है जो उसे मिल नहीं पाता।

मन्नु भंडारी की ‘बिना दीवारों के घर’ नाटक

मोहन राकेश के आधे अधूरे के पहले मन्नु भंडारी ‘बिना दीवारों के घर’ (1965) नाटक लिख चुकी थी और अपनी परिणति में यह अपने समय से आगे का नाटक है। वैसे समीक्षकों ने इसमें संश्लिष्टता का अभाव दिखा था, नाटक भी दृश्यात्मकता के निर्वाह कि बजाए संवादों में कहानी की तरफ़ अधिक झुका हुआ है। शोभा, जयंत, अजीत और मीना इसके पात्र हैं। इसमें विवाह संबंध के बीच पति पत्नी के बीच बढ़ता अविश्वास कैसे संबंध विच्छेद तक पहुंचता है इसको दिखाया गया है। 

पत्नी के काम करने से उपजी पति की इर्ष्या इस अविश्वास को और गहरा करती है। जयन्त, शोभा और अजित के संबंधों के बीच आता है, जो एक अलग कारण बनता है कलह का। जयन्त शोभा को प्रिसिंपल बनवाता है, जिससे अजीत के मन में फ़ांस अधिक बढ़ जाती है। तनाव इतना बढ़ जाता है कि शोभा घर छोड़ने का निर्णय लेती है और अपनी बच्ची को भी छोड़कर निकल जाती है। लेकिन बच्ची के बीमारी की खबर सुनकर जयंत के समझाने से लौटती है। अब जयन्त क्यों समझाता है? पुरुष के बगैर क्या स्त्री खुद समझ नहीं सकती? यहां हम देखेंगे तो पता चलेगा कि स्त्री और पुरुष दृष्टि में अधिक भिन्नता नहीं है।  ‘आधे अधूरे’ में भी जुनेजा है जो सावित्री को समझाने आता है और सावित्री कह देती है कि ‘सब के सब एक से...’ वहां महेन्द्रनाथ  लौट आता है और यहां शोभा लौट आती है। परिस्थितियां दोनों ही नाटक का लगभग एक सी हैं लेकिन अंतर कहां है? 

aadhe adhure
आधे-अधूरे का मंचन

 मोहन राकेश महेन्द्रनाथ की बेचारगी स्थापित करते हैं और सावित्री से यह कहलवाते हैं ‘मुझे भी अपने पास उस मोहरे की बिलकुल बिलकुल जरूरत नहीं है जो न खुद चलता है, न किसी और को चलने देता है।’ मन्नू भंडारी के यहां शोभा लौट आती है अपने बच्चे के कारण और उसकी मांग क्या है -” आपको घर का इतना खयाल है, जीजी का खयाल है, अपनी का खयाल है लेकिन कभी मेरा खयाल किया है आपने? मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश की है? मेरी अपनी भी कुछ आंकांक्षाएं हैं, अपने जीवन का कुछ स्वप्न है, इस घर की चारदिवारी के परे मेरा अपना भी कोई अस्तित्व है, व्यक्तित्व है।”‌ यही अस्तित्व और व्यक्तित्व की तलाश राकेश के नाटकों में उस दृष्टि से नहीं है जो मन्नू भंडारी के नाटकों में है। सवालों के दायरे में है स्त्री की महत्त्वाकांक्षा।

अब इन दोनों नाटकों में बुनियादी अंतर यही है कि मन्नू भंडारी स्त्री रूप में इसको उसी तरह नहीं देखती जैसे मोहन राकेश। राकेश थोड़े कम संवेदनशील है इसलिए स्त्री की आत्मा को छील देने वाले संवाद अधिकांशत: जुनेजा के हिस्से में आखिरी में है। मोहन राकेश एक स्वत्ववादी स्त्री (ऐसी स्त्री जिसके पास एजेंसी है) को कमोबेश नकारात्मक तरीके से दिखाते हैं, वहीं मन्नू भंडारी इस स्त्री के एजेंसी को जायज बताती हैं। यह फर्क है स्त्री के लेखन में केवल उसे अबला या कुलटा की तरह नहीं दिखाया जाएगा, बल्कि सामान्य की तरह चित्रित किया जाएगा  यह सामान्यत: गौर करने वाली बात है।

इसी तरह हबीब तनवीर अपने मशहूर नाटक ‘चरनदास चोर’ में भी एक ऐसी स्त्री को खलनायक की तरह चित्रित करते हैं। आखिर वह चरनदास की जान क्यों लेती है? उसने अपनी कामना का इजहार ही तो किया था, वह अपने इस इजहार को समाज से छुपाना क्यों चाहती है? और इसी छुपाने के कारण वह चरनदास को मौत की सजा देती है! यही पितृसत्ता की दृष्टि है। 

सुरेंद्र वर्मा का ‘सूर्य की पहली किरण से सूर्य की अंतिम किरण तक’ ऐतिहासिक परिवेश का नाटक है।  राज्य और उत्तराधिकार के बीच स्त्री शरीर की अपनी अनिवार्यता और उसका किसकी इच्छा से उपयोग किया जायेगा, इस बहस को नियोग प्रथा के माध्यम से नाटक उकेरता है। स्त्री शरीर पर अधिकार की बहस का संदर्भ अति प्राचीन है लेकिन नाटक जोर देकर कहता है कि स्त्री ही अपने शरीर की वास्तविक उपयोगकर्ता है। 

राज्य जिस उत्तराधिकारी की चिंता से स्त्री शरीर के रूप में रानी को किसी और के हाथों में सौप देता है, लेकिन रानी इस अवसर को अपनी दमित इच्छा की पूर्ति का साधन बना लेती है,  जिसके दमन का कारण पति की नंपुसकता है। एक समय में वह व्यवस्था में सबसे निरीह होती है, लेकिन अवसर आते ही वह व्यवस्था को निरीह बना देती है। यहां गौर करने की बात यह है कि नियोग के लिए चुना गया पुरूष उसका पूर्व परिचित है यह नाटककार की सीमा को दर्शाता है कि वह तय सीमा में ही स्त्री शरीर को छूट देना चाहता है।

मैंने जानबूझ कर स्त्री नाटककारों में केवल मन्नू भंडारी का जिक्र किया है। शांति मेहरोत्रा, कुसुम कुमार, मृदुला गर्ग, त्रिपुरारी शर्मा, नादिरा जहीर बब्बर, गिरीश रस्तोगी जैसी नाटककारों की लंबी फेहरिस्त हैं, जिनके नाटकों में स्त्री सरोकार हैं। लेकिन यहां यह भी देखिए कि हिंदी के पाठ्यक्रमों में स्त्री नाटककारों की अनुपस्थिति हैऔऱ कई नाटक प्रचलन से बाहर है। शांति मेहरोत्रा के नाटक आज कहां है? कुसुम कुमार का नाटक ‘सुनो शेफाली’ किताब किसी दुकान पर क्यों नहीं मिलता?

मेरे नजरिए से स्त्री विमर्श का आशय है कि स्त्रीवादी नजरिए से उसे अधीनस्थ लिंग ना मानते हुए उसे ठीक ठीक प्रस्तुत करना। जो खांचा बना हुआ है उसके अंदर रहेंगे तो स्त्री और पुरुष की श्रेणी और फिक्स हो जाती है और शक्ति का विमर्श मजबूत होता है और प्रतिक्रिया होती है। लेकिन कोई साझा स्थल भी चुनना चाहिए जिसमें व्यक्ति अपनी लैंगिक पहचान को पार करके स्त्री के सत्व तक पहुंच सकता है। जैसा हम भिखारी ठाकुर या हिंदी नाटककारों में रमेश बक्षी के नाटक ‘देवयानी का कहना है’ में देखते हैं। इस प्रक्रिया में स्त्री के अब तक किये गए चित्रण को समस्याग्रस्त करना होगा और यह देखना होगा कि किन नाटकों में स्त्री को परंपरागत भूमिका में देखे जाने का प्रतिरोध रचा जा रहा है या उसे पीड़ित की तरह सदैव चित्रित ना करके फैसला लेने में सक्षम स्त्री की तरह चित्रित किया जा रहा है और पाठकों के अब तक स्त्री को देखे जाने के परंपरागत तरीकों पर भी आघात हो रहा है।