विश्व पुस्तक मेला
आज 55वाँ विश्व पुस्तक मेला समाप्त हो गया। एक से नौ फरवरी तक चलने वाले मेले में 50 से अधिक देशों और करीब बीस लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने छह मंडपों में यह मेला आयोजित किया। जिनमें भारतीय भाषाओं के लिए दो मंडप थे। इस मेले में हिंदी किताबों की क्या स्थिति रही, पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार कवि विमल कुमार की एक रिपोर्ट। विमल कुमार हिंदी के वरिष्ठ कवि, पत्रकार होने के साथ-साथ 'स्त्री-लेखा' के संपादक भी हैं। - कविता
विश्व पुस्तक मेले में हिंदी की उड़ान
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का 55वाँ मेला इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि यह 21वीं सदी के 25 वर्ष गुजरने पर आयोजित हो रहा है। इन ढाई दशकों में हिंदी की दो नई पीढ़ी सामने आ गयी है। साहित्य की दुनिया में बड़ा बदलाव दिख रहा है। कविता, कहानी की भाषा और शिल्प में भी बदलाव दिख रहा है तो विषय वस्तु में भी बदलाव नजर आ रहा है। दलित और स्त्री समुदाय से काफी संख्या में लेखक-लेखिकाएँ सामने आई हैं और युवा लेखकों की भी फौज आई है। हिंदी के नए प्रकाशकों की संख्या भी बढ़ रही है। 'हिंदी युग्म' और 'रूख प्रकाशन' जैसे नए प्रकाशकों ने युवा वर्ग को आकर्षित किया है। ये नई हिंदी के लेखक हैं जिनका कंटेंट बीसवीं सदी के लेखकों से अलग है। अब हिंदी में बाज़ार भी हावी हुआ है। लिट फेस्ट का चलन बढ़ा है, कार्पोरेट का प्रवेश हुआ है, इसलिए पारंपरिक साहित्य कम छप रहा है जो बीसवीं सदी के आठवें-नौवें दशक तक छपता था।
अब नए लेखक नयी जीवन शैली की कहानियां लेकर आ रहे हैं। ये आईआईटी, प्रबंधन और चिकित्सा जगत की कहानियां हैं, जिसमें प्रेम और ब्रेकअप पहले की तरह नहीं है। अब इन कहानियों की स्त्रियां बेबाक खुली और आत्मनिर्भर हैं। ये नई स्त्री है।यह पीढ़ी उदय प्रकाश, अखिलेश, कुमार अम्बुज, देवी प्रसाद के बाद की पीढ़ी है जो इंटरनेट और वेब पत्रिकाओं से निकली है। जो रेख्ता, कविता कोश, हिंदी समय, हिंदवी, समालोचन, जानकीपुल, सदानीरा जैसे ब्लॉग पढ़कर निकली है। क्योंकि अब हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य कम छपता है। प्रकाशकों ने इस परिघटना को ध्यान में रखकर किताबें छापना शुरू किया है। हिन्दी में अंग्रेजी के पेंग्विन जैसे प्रकाशकों ने भी काफी किताबें छापना शुरू किया है। अब हिंदी में अमृतलाल नागर, भीष्म साहनी, भगवती चरण वर्माा, यशपाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे बड़े लेखकों के बड़े उपन्यास की परंपरा खत्म हो गयी है।
हिन्दी के प्रकाशक अब भी उपन्यास प्रकाशित करना पसंद करते हैं, क्योंकि वह बिकता है। लेकिन अब नया नारा है- 'जो दिखता है वह बिकता है।' हिन्दी साहित्य में भी यह नारा स्पष्ट रूप से सुनाई और दिखाई पड़ रहा है। पिछले 20 साल में विनोद कुमार शुक्ल, दूधनाथ सिंह, मंजूर एहतेशाम, पंकज बिष्ट जैसे उपन्यास लिखने वाले लोग नहीं है। अब साहित्य में बाज़ार के मद्देनजर कंटेंट तैयार लिया जा रहा और साहित्य का फ़ास्टफ़ूड कल्चर विकसित हुआ है। पेपरबैक किताबों का आवरण और साइज़ भी बदला है। प्रोडक्शन की दृष्टि से किताबें पहले से बेहतर निकल रही हैं, लेकिन अधिकतर साहित्य कविता, कहानी, उपन्यास तक सीमित है पर राजकमल, सेतु , ग्रंथ शिल्पी, गार्गी प्रकाशन, प्रकाशन संस्थान जैसे प्रकाशकों ने विदेशी साहित्य के अनुवाद और समाजविज्ञान की किताबें भी छापी हैं।
किताबें महंगी भी हुई हैं। मेले में सबसे अधिक भीड़ राजकमल और वाणी पर देखी गयी। राजकमल ने हिंदी का 'नया जलसाघर' विकसित किया है। इसके मंच पर अशोक वाजपेयी और रवीश कुमार जैसे लोग थे जो अब ब्रांड बन चुके हैं। शोधार्थियों की भीड़ भी यहां देखी गयी।तीसरा स्टाल राजपाल का था जिसमें पाठकों की दिलचस्पी थी। सेतु प्रकाशन ने तेजी से अपनी पहचान बनाई है। 'नयी किताब' ने भी अच्छी पुस्तकें छापी हैं। 'पुस्तकनामा' में भी एक उभरता प्रकाशन देखा गया।
हिंदी में पुस्तकों का बाजार बढ़ा है?
नई आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण के बाद देश में पिछले तीन दशकों में काफी बदलाव देखने को मिले हैं, इसका असर न केवल भारतीय समाज पर पड़ा बल्कि संस्कृति पर भी पड़ा है जिसके कारण देश में पुस्तक-संस्कृति भी प्रभावित हुई है। ब्लॉग, इंटरनेट , ऑनलाइन पत्रकारिता, सोशल मीडिया तथा रील संस्कृति के उभार के कारण भी पुस्तक संस्कृति पर असर पड़ा है। 2014 के बाद देश में दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के बाद हिंदी पट्टी में धार्मिकता और सांप्रदायिकता के विस्तार का असर पठन-पाठन पर भी पड़ा है।
अब राष्ट्रवादी सरकार भारतीय ज्ञान-परंपरा की तरफ लौटने की बात कर रही हैै, जिसके कारण हिंदी प्रकाशन में पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियां भी दिखाई देने लगी हैं। हिंदी के प्रकाशकों ने भी अब हिंदुत्ववादी साहित्य को छापने में दिलचस्पी दिखाई है। एक जमाना था जब विश्व पुस्तक मेले में “मैंने गांधी को क्यों मारा” जैसी किताबें प्रदर्शित नहीं होती थीं लेकिन अब ऐसी किताबें खुलेआम धड़ल्ले से बिक रही हैं। इतना ही नहीं अब गोडसे, वीर सावरकर, गोलवरकर ही नहीं अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी और स्मृति ईरानी आदि पर किताबें भी हिंदी में काफी प्रकाशित होने लगी हैं, जिसे विश्व पुस्तक मेले में देखा जा सकता है।
साथ ही साथ धार्मिक पुस्तकों के स्टाल भी पहले की तुलना में अधिक दिखाई देने लगे हैं लेकिन यह हिंदी प्रकाशन की एक तस्वीर का एक पक्ष है। इसकी एक दूसरी तस्वीर भी है जिसमें हिंदी की प्रगतिशील परंपरा और धर्मपेक्ष परंपरा की किताबें भी छपती हैं और मेले में उन्हें भी देखा जा सकता है। देश में साक्षरता दर और उच्च शिक्षा में दाखिला दर के बढ़ने से अब हिंदी में पाठकों का एक नया वर्ग भी सामने आया है। हालांकि यह वर्ग टीवी और सोशल मीडिया के प्रभाव में है लेकिन वह हिंदी की तरफ उन्मुख हुआ है लेकिन उसकी रुचियाँ पहले की तुलना में बदली है।
अंग्रेजी में जिस तरह चेतन भगत देवदत्त पटनायक आदि को पढ़ने की एक उत्सुकता युवा पीढ़ी में देखी गई थी वैसे ही एक युवा पीढ़ी हिंदी की दुनिया में भी विकसित हुई है जो लोकप्रिय साहित्य को पढ़ना चाहती है और यही कारण है कि हिंदी के प्रकाशन जगत में पल्प लिटरेचर का भी प्रकाशन हुआ है और बेस्ट सेलर लेखकों की एक नई धारा विकसित हुई है। हालांकि इसके पीछे प्रकाशकों के प्रचार तंत्र की रणनीति अधिक है क्योंकि वह इस तरह किताबें अधिक बेच पा रहे हैं। पिछले दस-पंद्रह सालों में लिट फेस्ट हिंदी पट्टी में अधिक होने लगे हैं उससे भी हिंदी में एक नया पाठक वर्ग विकसित हुआ है लेकिन उसका असर पुस्तक संस्कृति पर पड़ा है। पर हिंदी में अभी भी कुछ ऐसे प्रकाशक हैं जो गंभीर और समकालीन साहित्य भी छाप रहे हैं।
राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, नयी किताब, ग्रंथ शिल्पी, प्रकाशन संस्थान, संवाद प्रकाशन, अनामिका पब्लिशर, सेतु प्रकाशन और राजपाल एंड संस ने भी काफी ऐसी किताबें छपी हैं जिसमें गंभीर साहित्य को पढ़ा जा सकता है। पिछले 20-25 वर्षों में हिंदी की दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में युवा लेखक और लेखिकाएँ भी सामने आई हैं। इन सारे प्रकाशनों ने अब अपना ध्यान इन पर केंद्रित करना शुरू किया है। इसके अलावा दलित साहित्य और वाम साहित्य भी काफी छपने लगा है। यह अलग बात है कि अब 'पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस' जैसी संस्था नहीं रही जिसने एक जमाने में बड़ी संख्या में रूसी और वामपंथी साहित्य को प्रकाशित किया था लेकिन अब भी लेफ्ट वर्ल्ड, गार्गी प्रकाशन, जनचेतना जैसे छोटे प्रकाशको ने काफी मात्रा में वाम साहित्य को प्रकाशित किया है।
हिंदी की दुनिया में अब समाज विज्ञान की काफी किताबें छपने और बिकने लगी हैं। नई पीढ़ी अब समाज विज्ञान की किताबों को हिंदी में पढ़ना चाहती है। एक जमाना था जब समाज विज्ञान की अधिकतर किताबें अंग्रेजी में हुआ करती थीं लेकिन अब स्थिति बदली है। इतिहास, राजनीति-विज्ञान, समाज शास्त्र की किताबें आयी हैं लेकिन अंग्रेजी की तुलना में वे बहुत कम है। हिंदी में पत्रकारिता और दलित तथा स्त्री विमर्श की काफी किताबें आई हैं लेकिन हिंदी के प्रकाशक लेखकों को रॉयल्टी देने में आनाकानी करते हैं, हिसाब नहीं देते, बिना कॉन्ट्रैक्ट के किताबें छापते हैं। इसका असर पुस्तक मेले पर भी दिखाई देता है, क्योंकि अच्छे लेखक नहीं जुड़ते और गुणवत्ता में कमी दिखाई देती है। जब तक पुस्तकों की खरीद-बिक्री में भ्रष्टाचार रहेगा हिंदी का प्रकाशन फल-फूल नहीं सकता। हिंदी पट्टी में पुस्तक मेला संस्कृति बढ़ी है पर अच्छी किताबों को पाठकों तक पहुंचना अभी भी एक चुनौती है
मेले में स्त्री स्वर छाया रहा
इस साल भी कई लेखिकाओं की पुस्तकें आई जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना से लेकर अनुवाद तक शामिल है। इस बार मेले में कई विदुषी विदेशी महिला विद्वान भी आईं और उन्होंने विचार-विमर्श में हिस्सा लिया। साथ ही स्त्री मुद्दे पर चर्चाएं भी आयोजित की गईं।हिंदी में स्त्री रचनाकारों की इतनी किताबें आई कि उनका लेखा-जोखा रखना मुश्किल है।
इस बार मेले का अतिथि देश रूस था। रूस की कई लेखिकाएँ भी मेले में आईं थी। मेले में रूस से आये 75 लोगों के शिष्टमंडल की सदस्य और रूसी दूतावास की काउंसलर यूलिया अरायेवा ने कहा, "भारत की तरह रूस में भी 'स्टोरी टेलिंग' की एक प्राचीन परंपरा है।" सुश्री अरायेवा ने भारत एवं रूसी लेखकों के सम्मेलन में यह बात कही। 'साहित्य अकादेमी' ने इस मौके पर यह सम्मेलन आयोजित किया था। उन्होंने कहा कि अभी तक हमने कालजयी साहित्य के अनुवाद ही किए हैं लेकिन अब ज़रूरत है कि हम आधुनिक साहित्य के अनुवाद को प्राथमिकता दें।
रशियन सेंटर की निदेशक 'एलेना रामिजोवा' ने कहा कि एक दूसरे के देश को अच्छे से समझने के लिए साहित्यिक कृतियों के अनुवाद की जरूरत होती है। इसके लिए हमें वहां के सांस्कृतिक परिवेश और भावबोध को समझना भी जरूरी है।
वारसा विश्विद्यालय में हिंदी की अध्यापक 'दानुता स्ताशिक' भी इन दिनों भारत की यात्रा पर आई हैं । वह पहले भी भारत आती रही हैं। साहित्य अकादेमी कार्यालय में सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत आयोजित साहित्य मंच कार्यक्रम में प्राच्य अध्ययन विभाग, दक्षिण एशियाई अध्ययन संकाय, वारसा विश्वविद्यालय, पोलैंड की अध्यक्ष दानूता स्ताशिक ने अपने हिंदी अध्यापन और अनुवाद संबंधी अनुभव साझा किए। उन्होंने हिंदी के प्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण की कविताओं के पोलिश अनुवाद और उनके निबंधों तथा उनकी पौलेंड यात्रा के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने रामायण को लेकर किए अपने काम के बारे में भी जानकारी दी।
गांधीवादी लेखिका सुजाता चौधरी का उपन्यास
राष्ट्र निर्माण में आप पुरुषों के योगदान की चर्चा अक्सर सुनते हैं लेकिन इस देश के निर्माण में महिलाओं ने बड़ी भूमिका निभाई है।आप अभिनेत्रियों और महिला खिलाड़ियों और महिला राजनीतिज्ञों को तो जानते हैं लेकिन क्या आप महिला वैज्ञानिकों के बारे में जानते हैं? नहीं जानते होंगे क्योंकि बचपन से आपको जगदीश चन्द्र बोस, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, बीरबल साहनी आदि के बारे में बताया गया, महिला वैज्ञानिकों के बारे में नहीं। देवरिया की अनुपमा गोरे ने भारतीय महिला वैज्ञानिकों पर एक किताब लिखी है, जिसे आई सेक्ट ने छापा है। मात्र 200 रुपए की इस किताब में 15 महिला वैज्ञानिकों के बारे में जानकारी दी गयी है। जिनमें आप कल्पना चावला को जानते होंगे, बाकी को शायद नहीं। हम लोग सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख, महादेवी वर्मा आदि को जानते हैं लेकिन इनको नहीं। ये महिला वैज्ञानिक आनंदीबाई गोपालराव जोशी, मैरी पूनेन लुकोस, जानकी अम्माल, इरावती वक्र, कमला सोहनी, बिभा चौधरी, असीमा चटर्जी, कमला रणदिवे, अन्ना मणि, राजेश्वरी चटर्जी, देबला मित्रा, पूर्णिमा सिन्हा मंजू शर्मा, रोहिणी गोडबोले और कल्पना चावला हैं।
मेले में होमवती देवी और कमला चौधरी के योगदान पर एक किताब आई। 1902 में जन्मी होमवती देवी भगवतीचरण वर्मा औऱ यशपाल की समकालीन थीं जबकि 1908 में जन्मी कमला जी महादेवी की समकालीन थीं। कमला जी संविधान सभा की सदस्य थीं और आजादी की लड़ाई में जेल गयी थीं। सांसद भी बनीं लेकिन हिंदी साहित्य की मुख्य धारा से बाहर रहीं। मेरठ के शोधार्थी डॉक्टर विक्रांत ने इन दोनों भूली बिसरी लेखिकाओं पर किताब लिखी है। होमवती जी के 6 कहानी-संग्रह और कमला जी के 4 कहांनी संग्रह निकले थे पर हिंदी आलोचना बेखबर रही।
मेले में स्त्री-दर्पण की दो सक्रिय सदस्यों रीता दास राम और सुधा तिवारी की दो किताबें आई। रीता जी अपना दूसरा कहांनी संग्रह “चेक एंड मेट “लेकर आईं तो सुधा जी अंग्रेजी की कवयित्रियों के अनुवाद की किताब “देशान्तर के स्त्री स्वर “लेकर आईं।
मार्खेज और हार्वर्ड फ़ास्ट के अनुवाद
रॉबर्ट बर्न्स की कविताओं का हिंदी में पहली बार अनुवाद किया अंजु रंजन ने तो प्रवासी लेखिका 'सुषम बेदी' की कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद का सम्पादन किया रेखा सेठी ने ।पहली पुस्तक ‘रॉबर्ट बर्न्स: 20 कालजयी कविताएँ’ शीर्षक से तो दूसरी पुस्तक सुषम बेदी की कहानियों का अनुवाद ‘ए प्लेस कॉल्ड होम’ शीर्षक से आया। संपादन रेखा सेठी और हिना नंद्राजोग ने किया है।
इस अवसर पर रॉबर्ट बर्न्स की कविताओं कीअनुवादिका अंजु रंजन ने कहा कि रॉबर्ट बर्न्स स्कॉटलैंड के राष्ट्रीय कवि थे और उनकी कविताएँ हिंदी में पहली बार अनूदित होकर सामने आई हैं। इस संग्रह में उनकी 20 कालजयी कविताएँ शामिल हैं। इन कविताओं के सहारे 17वीं शताब्दी के स्कॉटलैंड के समाज को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
दूसरी पुस्तक ‘ए प्लेस कॉल्ड होम’ जोकि सुषम बेदी की हिंदी कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद था की संपादिका रेखा सेठी ने कहा कि अनुवाद एक सामूहिक कार्य होता है, जिसे हमने बखूबी इस पुस्तक के अनुवाद के लिए हुई कार्यशाला में महसूस किया। हम सभी इस प्रक्रिया में हुए अनुभवों से काफी समृद्ध हुए। सहयोगी संपादिका हिना नंद्राजोग ने भी अपने विचार साझा किए।
कथाकार-कवयित्री सुलोचना के बंगला अनुवाद की किताब “सेतु बंधन भी आई। 'लिपिका साहा' की बंगला कवयित्रियों के हिंदी अनुवाद की पुस्तक भी मेले की एक उल्लेखनीय किताब है। लिपिका जी की वाणी बसु की कहानियों के हिंदी अनुवाद की किताब भी आई। मीता दास की किताब भी मेले में नजर आई।
स्त्री कविता में वरिष्ठ कवयित्री रश्मि भारद्वाज, श्रुति कुशवाहा, स्मिता सिन्हा, ज्योति रीता की किताबें आयी। 'सम्मुख' नाम से रश्मि भारद्वाज का काव्य संग्रह आया है। सुपरिचित कवयित्री श्रुति कुशवाहा (सुख को भी दुख होता है), स्मिता (रुंधे कंठ की अभ्यर्थना) और युवतर कवयित्री ज्योति ( अतिरिक्त दरवाजा) के दूसरे काव्य संग्रह इस मेले में आये। भोपाल की कवयित्री पल्लवी त्रिवेदी का पहला काव्य संग्रह भी आया। रंजीता सिंह “फलक" का भी काव्य संग्रह “चुप्पी प्रेम की भाषा" आया मेले में आया। इस बार पत्रकार भाषा सिंह का कविता संग्रह 'योनि सत्ता संवाद' भी आया। पांच रुपये की काव्य पुस्तिका सीरीज़ में मृदुला शुक्ला की किताब आई।
वरिष्ठ लेखिका अनुवादक शोभा नारायण का उपन्यास “पतझर के रंग “आया तो वरिष्ठ पत्रकार कथाकार जयंती रंगनाथन का कहांनी संग्रह “मध्यवर्ग का मंचूरियन”भी चर्चा में रहा। सपना सिंह (बहुत अच्छे लोग), रश्मि शर्मा का कहांनी संग्रह, कंचन जायसवाल औऱ अंजलि काजल का पहला कहांनी संग्रह ( 'माँ डरती डरती' है) भी मेले में आया। वरिष्ठ लेखिका पल्लवी प्रसाद का उपन्यास “काठ का उल्लू “आया तो गीता श्री, प्रतिभा कटियार एवं इरा टाक की भी किताबें आईं।
वरिष्ठ स्त्री विमर्शकार गरिमा श्रीवास्तव की किताब” चुप्पियाँ और दरारें “का लोकार्पण भी मेले में हुआ जो स्त्री आत्मकथा की सैद्धान्तिकी पर है। चर्चित आलोचक सुजाता की आलोचना की किताब “ पितृसत्त्ता, यौनिकता और समलैंगिकता “भी मेले में आई । आलोचना के क्षेत्र में रेखा सेठी द्वारा संपादित स्त्री चिंतन पर पुस्तक आई तो वरिष्ठ लेखिका रजनी गुप्त के अलावा अंकिता जैन तथा सोनी पांडेय की भी किताबें आईं। निर्देश निधि (मोती से दिन) प्रज्ञा रोहिणी (काठ के पुतले) की किताबें भी मेले में दिखीं। मुंबई की गृहणी जूही शर्मा की “अबोली की डायरी “नाम से एक स्त्री के जीवन संघर्ष की डायरी आई। गुनगन उर्फ पद्मजा की डायरी आई तो रश्मि भारद्वाज की भी डायरी आयी। नीलिमा शर्मा की सम्पादित किताब भी मेले में आई जो पुरवाई पत्रिका में प्रकाशित कहानियों पर थी।
मेले में मृदुला गर्ग, ममता कालिया, तेजी ग्रोवर, अनामिका, सविता सिंह, प्रत्यक्षा, वंदना राग, अलका सिन्हा, वंदना वाजपेयी, अंजू शर्मा, वंदना गुप्ता, उर्मिला शुक्ल, अणुशक्ति सिंह, पूनम अरोड़ा ने भी शिरकत की और किताबों पर चर्चा में भाग लिया।
राजपाल, राजकमल, वाणी जैसे बड़े प्रकाशकों के अलावा पुस्तकनामा, शिवना प्रकाशन, हिंदी युग्म, वेरा प्रकाशन, बोधि प्रकाशन, आधार प्रकाश, जनचेतना, अन्तिका, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी किताब, गार्गी प्रकाशन ने भी कई लेखिकाओं की किताबें छापी हैं। लिटिल वर्ल्ड , भावना प्रकाशन, सर्वभाषा ट्रस्ट, वनिका प्रकाशन, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन आदि ने भी स्त्री रचनाकारों को छापा। लिटिल वर्ल्ड ने 7 से अधिक नयी स्त्री रचनाकारों की किताबें छापीं।